बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद सिद्धांत (The Doctrine of No-self) Bauddh Dharam Mein Anatmvad : अनात्मवाद सिद्धांत बौद्ध दर्शन में आत्मा विषयक सिद्धांत है | बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद का सिद्धांत गौतम बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत से सिद्ध होता है | उपनिषद् और अद्वैतवाद शाश्वत-आत्मा को सत्य मानते है जबकि इसके विपरीत महात्मा बुद्ध ने अनित्य-आत्मा को सत्य माना है | महात्मा बुद्ध ने शाश्वत आत्मा का निषेध किया है, इसलिए उनका आत्मा सम्बन्धी विचार ‘अनात्मवाद’ या ‘नैरात्म्यवाद’ कहलाता है |
अनात्मवाद का अर्थ यह नही है कि महात्मा बुद्ध आत्मा का अस्तित्व को अस्वीकार करते है बल्कि वे उस शाश्वत आत्मा का निषेध करते है, जिसकी स्वीकृति उपनिषद्, अद्वैतवाद आदि दर्शनों में प्राप्त होती है | वे आत्मा को अनित्य मानते हैं |
बौद्ध दर्शन के अनुसार विश्व में सब कुछ अनित्य है | कही भी स्थायित्व या नित्यता नही है | इसी आधार पर बौद्ध दर्शन स्थायी आत्मा का निषेध करता है | यदि आत्मा को स्थायी माना जाये तो बुद्ध का आत्मा सम्बन्धी विचार अनात्मवाद या नैरात्म्यवाद कहलायेगा क्योकि उनके अनुसार स्थायी आत्मा में विश्वास करना भ्रामक है |
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गौतम बुद्ध स्थायी या शाश्वत आत्मा का निषेध करते हुए कहते है कि आत्मा अनित्य है और यह अस्थायी शरीर व मन का संकलन-मात्र है |
महात्मा बुद्ध ने शाश्वत आत्मा में विश्वास को उसीप्रकार उपहासास्पद कहा है जिसप्रकार काल्पनिक सर्वाधिक सुन्दरी से प्रेम करना उपहासास्पद है | [महात्मा बुद्ध कहते है कि ‘यदि कोई पुरुष यह कहे कि,“इस देश में जो सर्वाधिक सुन्दरी है, मैं उसको चाहता हूँ, उसकी कमाना करता हूँ|” यदि लोग उससे पूछे,“हे पुरुष, जिस सर्वाधिक सुन्दरी को तू चाहता है, जिसकी तू कामना करता है, क्या तू जानता है कि वह क्षत्रिय है, ब्राह्मण है, वैश्य है या शूद्र है ?…….काली है या श्यामा है या मद्गुरवर्ण है ?…….?” ऐसा पूछने पर वह पुरुष उत्तर दे कि वह यह कुछ नही जानता है | तो क्या उस पुरुष का कथन अप्रामाणिक नही हो जाता ?- ‘दीघनिकाय’ ]
यह मानना कि अनात्मवाद सिद्धांत केवल आत्मा पर ही लागू होता है, गलत है | वास्तव में अनात्मवाद से आत्मा व भौतिक जगत् दोनों की ही व्याख्या होती है | बुद्ध के ‘सर्व अनात्मकम्’ कथन से स्पष्ट होता है कि किसी नित्य चेतन अथवा जड़ तत्त्व का अस्तित्व नही है | अर्थात् न तो आत्मा नामक नित्य द्रव्य का अस्तित्व है और न ही भौतिक पदार्थ नामक जड़ द्रव्य का अस्तित्व है | सत् केवल क्षणिक धर्म है | ये क्षणिक धर्म मिलकर संघात (समूह) का निर्माण करते है, जो लगातार परिवर्तनशील है |
सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि जब हम आत्मा का अध्ययन करने के लिए अपने अन्दर की ओर देखते है, हमे गर्मी या सर्दी, प्रकाश या छाया, प्रेम या घृणा, दुःख या सुख का अनुभव होता है | साधारणतया यह विश्वास कर लिया जाता है कि ये संवेदन व विचार अकेले नही होते है बल्कि एक नित्य सत्ता, जिसे आत्मा कहा जाता है, से सम्बन्धित होते है |
महात्मा बुद्ध ने इस नित्य सत्ता (आत्मा) को अस्वीकार करके केवल इन क्षणित संवेदनों व विचारों की ही सत्ता स्वीकार की है | इसप्रकार महात्मा बुद्ध के मतानुसार आत्मा अनित्य है और यह संवेदन, विचार और अस्थायी भौतिक-शरीर का संकलन-मात्र है |
बौद्ध दार्शनिक नागसेन ने अपने ग्रन्थ ‘मिलिन्दपन्हों’ में आत्मा को पाँच स्कन्धों का संघात (समूह) माना है | ये पाँच स्कन्ध हैं – रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान |
रूप-स्कन्ध के अन्तर्गत मानव शरीर का आकार, रंग आदि आते है | वेदना-स्कन्ध के अन्तर्गत सुख, दुःख आदि की अनुभूति होती है | संज्ञा-स्कन्ध के अन्तर्गत वस्तु का निश्चित ज्ञान आता है | संस्कार-स्कन्ध के अन्तर्गत पूर्व-कर्मों के कारण उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियाँ आती है | और अन्त में विज्ञान-स्कन्ध के अन्तर्गत चेतना आती है |
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इसप्रकार इन पाँचों स्कन्धों के संघात (समूह) को ही आत्मा का नाम दिया जाता है | नागसेन बताते है कि जिसप्रकार पहिये, धुरी, पताका, रस्सी आदि के समूह को रथ कहा जाता है उसीप्रकार इन पंच-स्कन्ध के संघात को ही आत्मा का नाम दिया जाता है |
इसप्रकार बौद्ध मतानुसार हम कह सकते है कि वास्तव में आत्मा नामक की कोई स्वतन्त्र व नित्य सत्ता है ही नही, जबतक इन पंच-स्कन्धों के संघात का अस्तित्व रहता है तब-तक तथाकथित आत्मा का भी अस्तित्व कायम रहता है तथा जब ये संघात नष्ट हो जाता है तो तथाकथित आत्मा का भी अन्त हो जाता है |
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि बुद्ध आत्मा की नित्यता को अस्वीकार करते है तो फिर पुनर्जन्म में क्यों विश्वास करते है ? यदि आत्मा अनित्य है, क्षणिक है तो फिर जरामरण किसका होता है ? एक शरीर से अन्य शरीर में प्रवेश कौन करता है ? यदि समस्त भाव अनित्य व क्षणिक है तो कर्म व कर्मफल का क्या होगा ? जो कर्म करेगा क्या उसे कर्मफल नही मिलेगा या कर्मफल अन्य को मिलेगा ? जब आत्मा को परिवर्तनशील माना जा रहा है तो इस आत्मा से पुनर्जन्म की व्याख्या कैसे हो सकती है ?
बुद्ध ने नित्य आत्मा को अस्वीकार करके भी पुनर्जन्म की बखूबी व्याख्या की है | गौतम बुद्ध स्पष्ट करते है कि पुनर्जन्म का तात्पर्य एक आत्मा का अन्य में प्रवेश करना नही है, अपितु इसके विपरीत पुनर्जन्म का तात्पर्य विज्ञानप्रवाह की अविच्छिन्नता है | जब एक विज्ञान प्रवाह का अंतिम विज्ञान नष्ट हो जाता है तो अंतिम विज्ञान की मृत्यु हो जाती है तथा एक नवीन शरीर में एक नवीन विज्ञान का जन्म होता है | इसी को गौतम बुद्ध पुनर्जन्म कहते है |
गौतम बुद्ध ने पुनर्जन्म की व्याख्या दीपक की ज्योति के उदाहरण द्वारा की है | जिस तरह एक दीपक से दूसरे दीपक को जलाया जा सकता है उसी तरह वर्तमान जीवन की अंतिम अवस्था से भविष्य जीवन की प्रथम अवस्था का विकास होता है | इस प्रकार गौतम बुद्ध नित्य-आत्मा के भी पुनर्जन्म की व्याख्या में सफल होते है |
निष्कर्ष के रूप में स्पष्ट है कि बौद्ध दर्शन में अनात्मवाद (No Self Theory) का एक विशेष अर्थ है | बौद्ध दर्शन न तो चार्वाक दर्शन की भांति आत्मा का पूर्णतया निषेध ही करते है और न ही अद्वैतवाद, उपनिषद् आदि की भांति नित्य आत्मा की सत्ता को स्वीकार करते है | बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा अनित्य है और यह अस्थायी शरीर व मन का संकलन-मात्र है | आत्मा क्षणिक है और पंच स्कन्ध रूप है | स्कन्धों के परिवर्तनशील होने के कारण आत्मा भी परिवर्तनशील है |
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