भगवान् बुद्ध के समकालीन छह तीर्थंकर

भगवान् बुद्ध के समकालीन छह तीर्थंकर (Six Tirthankaras contemporary to Buddha in Hindi) दीघनिकाय के सामञ्जफलसुत्त में यह उल्लेख मिलता है कि उत्तर भारत में भगवान् बुद्ध के समय छह प्रबल दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करनेवाले मत मौजूद थे, जो इस प्रकार है – (1) अक्रियावाद (2) दैववाद (3) उच्छेदवाद या भौतिकवाद (4) अकृतवाद (5) अनिश्चिततावाद (6) चतुर्यामसंवर |

अक्रियावाद

अक्रियावाद दार्शनिक सिद्धांत के संस्थापक एवं प्रचारक पूर्णकाश्यप थे, कि किसी अच्छे-बुरे कार्य का कोई भी अच्छा या बुरा फल नहीं होता | न तो दान, शील, यम-नियम, तप, संयम व परोपकार इत्यादि कार्यो में कोई पुण्य प्राप्त होता है और न ही हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार इत्यादि से कोई पाप लगता है | पूर्णकाश्यप के मतानुसार कोई भी मानव अपने आप कोई क्रिया नहीं करता | इसलिए अक्रिय होने से उसे पाप-पुण्य का भी दोष नहीं लगता | इस प्रकार पूर्णकाश्यप ने अक्रियत्व का प्रतिपादन किया और उनका मत अक्रियावाद कहलाया |

दैववाद या नियतिवाद

नियतिवाद के प्रतिपादक मक्खलि गोसाल थे, जो दैववादी भी कहलाते थे क्योकि मक्खलि गोसाल और उनके अनुयायी दैव पर ही भरोसा रखते थे | कर्म अर्थात्‌ पुरुषार्थ को ये नकारते थे | ये अकर्मण्यवादी थे | इनका कहना था कि सत्वों के क्लेश का हेतु नही है | बिना हेतु के और बिना प्रत्यय के ही सत्व क्लेश पाते है | सत्वो की शुद्धि का कोई हेतु नही हैं, कोई प्रत्यय नहीं है | बिना हेतु के और बिना प्रत्यय के सत्व शुद्ध होते है | अपने कुछ नही कर सकते है, पराये भी कुछ नही कर सकते है, (कोई) पुरुष भी कुछ नहीं कर सकता है, बल नहीं है, वीर्य नही है, पुरुष का वोई पराक्रम नहीं है | सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी भूत और सभी जीव अपने वश में नहीं है | सभी प्राणी भाग्य व संयोग के फेर में पड़कर सुख-दुःख का अनुभव करते हैं | यही मक्खलि गोसाल का नियतिवाद (भाग्यवाद) और अहेतुवाद है |

मक्खलि गोसाल पहले महावीर स्वामी के अनुयायी थे, लेकिन बाद में उनसे वैचारिक मतभेद हो जाने पर उन्होंने महावीर स्वामी का साथ छोड़ दिया और आजीवक नामक स्वतंत्र संप्रदाय की स्थापना की | महावीर स्वामी की भांति मक्खलि गोसाल भी ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करते थे और जीव व पदार्थ को अलग-अलग तत्व मानते थे |

उच्छेदवाद या भौतिकवाद

इस दार्शनिक मत के प्रतिपादक अजित केशकम्बली थे | इनके मतानुसार जगत में किसी वस्तु का अस्तित्व नही है | पाप-पुण्य का कोई फल नही है और न स्वर्ग आदि की कोई रचना हैं | प्राणी चार महाभूतों से मिलकर बना है और मृत्यु के पश्चात् वह उन्हीं में विलीन हो जाता हैँ | आत्मा की कोई सत्ता नही होती है और मृत्यु के बाद सबकुछ भस्म हो जाता है |

अकृतवाद

अकृतवाद दार्शनिक मत के प्रतिपादक प्रकुध कात्यायन थे | ये अकृतवादी अथवा सप्तकायवादी थे, जिनका मानना था कि पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), वायु, सुख, दुःख व जीव (आत्मा), ये सब अकृत, अनिमित्ति और अचल हैं | ये न कभी विकार को प्राप्त होते हैं और न एक-दूसरे को हानि पहुंचाते हैं | यहाँ न कोई मारने वाला है, न कोई मरने वाला है, न कोई सुनने वाला, न कोई सुनाने वाला, न कोई जानने वाला, न कोई जतलाने वाला | यही इनका अकृतवाद है | ये आध्यात्मिक जीवन की आवश्यकता अस्वीकार करते है |

अनिश्चिततावाद

अनिश्चिततावाद दार्शनिक मत के प्रतिपादक संजय वेलट्ठिपुत्त थे | इनका मत संदेहवाद भी कहलाता है | इन्होने न तो किसी मत को स्वीकार किया और न किसी मत का खण्डन ही किया | इनका मानना था कि कोई भी तत्त्व, जैसे परलोक, देवता, पुण्य, अपुण्य होता है या नहीं होता, मैं निश्चित नहीं कह सकता क्योकि न ही मैंने परलोक देखा है, न ही देवता इत्यादि को देखा है, अतः मैं कैसे कहूँ कि इनका अस्तित्व है अथवा नहीं है |

चतुर्यामसंवर

चतुर्यामसंवर दार्शनिक मत के प्रवर्तक निगण्ठनाथपुत्त थे | बौद्ध ग्रंथों में जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी को ही निगण्ठनाथपुत्त कहा गया है | सामञ्जफलसुत्त के अनुसार निगण्ठनाथपुत्त चार प्रकार के संयम को मानते थे – (1) जीव-हिंसा के भय से जल के व्यवहार का संयम करना (2) सभी पापों का वारण करना (3) सभी पापों का वारण करने के कारण धूतपाप (पापरहित) होना (4) सभी पापों के वारण में सदैव लगे रहना | इसीलिए निगण्ठनाथपुत्त को गतात्मा (अनिच्छुक), यतात्मा (संयमी) व स्थितात्मा कहा गया है |

उपर्युक्त छह प्रमुख सम्प्रदायों के अतिरिक्त अनेक अन्य सम्प्रदाय भी थे | भगवान् बुद्ध के चचेरे भाई ने भी एक संप्रदाय का प्रतिपादन किया था जोकि गुप्तकाल तक चलता रहा | हमे पालि ग्रंथों में अनेक अन्य ब्राह्मण व ब्राह्मणेतर आचार्यों के नाम का उल्लेख मिलता है जो अपने बहुसंख्यक अनुयायियों के साथ विभिन्न स्थानों में रहते थे |

इन विभिन्न दार्शनिक मतों एवं सम्प्रदायों में बौद्ध धर्म और जैन धर्म ही चिर-स्थायी सिद्ध हुए | अन्य या तो इन्ही धर्मों में मिल गये अथवा विलुप्त हो गये | पालि ग्रंथों से पता चलता है कि स्वयं भगवान् बुद्ध ने ही अनेक सम्प्रदायों के आचार्यों को अपने मत में दीक्षित किया था |