बुद्ध की कहानी 18 : अंतिम शिष्य सुभद्र

बुद्ध की कहानी 18 : अंतिम शिष्य सुभद्र | सुभद्र नामक त्रिदंडी संन्यासी बोधिसत्त्व का अंतिम शिष्य था, उसने भगवान् के अंतिम समय में उनके उपदेशों को सुना और स्वयं तथागत द्वारा दीक्षित हुआ था |

सुभद्र एक सिद्ध पुरुष था, जब उसे पता चला कि भगवान् निर्वाण-प्राप्ति की अंतिम अवस्था में है, तो वह उनसे मिलने पहुंच गया |

उसने आनंद से कहा कि “मैंने सुना है कि बोधिसत्त्व की निर्वाण-प्राप्ति का समय आ गया है और इसलिए मैं उन्हें देखना चाहता हूँ, क्योंकि इस जगत में प्रतिपदा के चाँद के समान परम धर्म में प्रवेश पाये हुए का दर्शन दुर्लभ है |” 

लेकिन आनंद ने मना कर दिया क्योकि उन्हें लगा कि कहीं यह संन्यासी भगवान् से शास्त्रार्थ न करने लगे | लेकिन जब भगवान् ने दोनों का वार्तालाप सुना, तो उन्होंने लेटे-लेटे ही आनंद से कहा, “हे आनंद ! इस जिज्ञासु मुमुक्षु को मत रोको, आने दो |”

तब आश्वस्त व परम प्रसन्न होकर सुभद्र भगवान् के पास आया और अवसर के अनुकूल शांत भाव से उन्हें अभिवादन कर उनसे कहा, “हे भगवन् ! मैंने सुना है कि आपने निर्वाण-मार्ग प्राप्त कर लिया है, जो मेरे जैसे दार्शनिकों के मोक्ष-मार्ग से भिन्न है | कृपापुंज, वह मार्ग कैसा है ? मुझे बताने की कृपा करें | क्योंकि मैं इसे ग्रहण करना चाहता हूँ | मैं जिज्ञासावश आपके पास आया हूँ, न कि विवाद करने की चाह से |”

सुभद्र की प्रार्थना सुनकर बोधिसत्त्व ने उसे अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया, जिसे उसने ध्यानपूर्वक सुना, जैसे कि मार्ग से भटका हुआ व्यक्ति सही आदेश को ध्यानपूर्वक सुनता है |

भगवान् के उपदेश सुनकर सुभद्र की ज्ञान-दृष्टि सम्यक रूप से खुल गयी | तब उसने महसूस किया कि जिन रास्तों पर पहले वह चला था वह श्रेयस्कर नही था, और आज भगवान् ने उसे सच्चा मार्ग दिखा दिया है |

“पहले उसका मत था कि आत्मा शरीर से भिन्न है और विकारवान्‌ (परिवर्तनशील) नही है, अब बोधिसत्त्व के वचन सुनने से उसने जाना कि जगत्‌ अनात्म है और (जगत्) आत्मा का परिणाम नही है | यह जानकर कि जन्म अनेक धर्मों के पारस्परिक सम्बन्ध पर आश्रित है, और कुछ भी अपने पर आश्रित नहीं है, उनसे देखा कि प्रवृत्ति दु:ख है और निवृत्ति है दु:ख से मुक्ति |”

सुभद्र का चित्त श्रद्धा-युक्त हो गया और परम (धर्म) को पाकर उसने शान्त और अविकारी पद प्राप्त किया, और इसलिए, वहाँ लेटे हुए बोधिसत्त्व की ओर कृतज्ञतापूर्वक देखते हुए, आँखों में आँसू भरकर उसने निवेदन किया, “हे पूज्य गुरुवर, आपकी मृत्यु का दर्शन करना मेरे लिए उचित नही होगा, अतः अपने करुणामय गुरु की निर्वाण-प्राप्ति से पहले ही अपनी देह त्यागकर निर्वाण पद प्राप्त करने की अनुमति चाहता हूँ |”

ऐसा कहकर सुभद्र ने बोधिसत्त्व को प्रणाम कर, शैल की भांति स्थिर होकर बैठ गया और हवा से विलीन हुए बादल के समान एक ही क्षण में निर्वाण को प्राप्त कर गया | संस्कार के ज्ञाता बोधिसत्त्व ने तब अपने शिष्यों से सुभद्र के अंतिम संस्कार सम्पन्न करने का आदेश दिया और कहा कि “सुभद्र मेरा उत्तम एवं अंतिम शिष्य था |”

इस प्रकार सुभद्र को भगवान् का अन्तिम शिष्य होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ |