सुल्तान इल्तुतमिश के कार्य और शासन व्यवस्था

Sultaan Iltutamish Ke Kaary Aur Shaasan Vyavastha

इल्तुतमिश के कार्य और शासन व्यवस्था (Sultaan Iltutamish Ke Kaary Aur Shaasan Vyavastha) : इल्तुतमिश प्रारम्भिक तुर्क सुल्तानों में सर्वश्रेष्ठ था | छब्बीस वर्षों के अथक परिश्रम और संघर्ष से इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत को स्पष्ट स्वरुप प्रदान किया | उसने मुहम्मद गौरी द्वारा निर्मित दिल्ली सल्तनत की राजक्षेत्रीय अखंडता को पुर्नस्थापित किया, जो विखंडित होने की दशा पर पहुंच गयी थी | उसने मध्य-एशिया की राजनीति से सम्बन्ध खत्म करके दिल्ली सल्तनत को एक पूर्णतः भारतीय, स्वतंत्र और वैधानिक स्वरुप प्रदान किया |

सुल्तान इल्तुतमिश ने दिल्ली में सर्वप्रथम वंशानुगत राजसत्ता स्थापित करने का कार्य किया था | लेकिन वह एक सुगठित और संघनित राज्य की स्थापना करने में असफल रहा था |

सुल्तान इल्तुतमिश के कार्य और शासन व्यवस्था

दिल्ली सल्तनत के वास्तविक संस्थापक सुल्तान इल्तुतमिश ने अपने नव-स्थापित तुर्की राज्य के दृढीकरण के लिए निम्नलिखित कार्य किये –

  1. खलीफा से सम्मान प्राप्त करना (1229)
  2. दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक
  3. इक्ता व्यवस्था की स्थापना
  4. तुर्कान-ए-चिहिलगानी बंदगान-ए-शमसी (चालीसा) का सृजन
  5. मुद्रा में सुधार (टंका और जीतल)
  6. न्याय व्यवस्था
  7. सैन्य व्यवस्था

खलीफा से सम्मान प्राप्त करना (1229)

इल्तुतमिश का संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कार्य था – बगदाद के खलीफा से मानाभिषेक प्राप्त करना | फरवरी 1229 में बगदाद के अब्बासी खलीफा अल-मुस्तानसिर बिल्लाह का एक दूत दिल्ली आया तथा उसने इल्तुतमिश को खलीफा द्वारा भेजा गया सुल्तान की मान्यता देने वाला एक मानाभिषेक पत्र और खिलअत (सम्मान सूचक एक विशेष पोशाक) प्रदान किया |

खलीफा ने उसकी विजयों से प्रभावित होकर उसे दिल्ली का सुल्तान स्वीकार कर लिया तथा उसे “नासिर अमीर उल मोमिनीत” (खलीफा का सहायक) की उपाधि प्रदान की | इसका सीधा अर्थ था कि इल्तुतमिश का सुल्तान के पद पर अधिकार पूर्णतया वैध बन गया तथा उसे मुस्लिम संसार में एक दर्जा मिल गया |

इससे इल्तुतमिश की प्रभुसत्ता को नया बल प्राप्त हुआ तथा अब भारत के  मुसलमानों के लिए उसकी आज्ञाओं की अवज्ञा करना इस्लाम धर्म के विरुद्ध हो गया | इसके साथ ही दिल्ली के सिंहासन पर उसके उत्तराधिकारियों का स्थान भी सुनिश्चित हो गया |

दरबार में सभी के समक्ष खलीफा द्वारा भेजा गया फरमान पढ़कर सुनाया गया, जिसमे घोषणा की गई थी कि सुल्तान इल्तुतमिश ने जो भी स्थल और समुद्र जीते हैं उन पर उसके स्वामित्व की पुष्टि की जाती है | मानाभिषेक समारोह राजधानी में पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया गया |

इल्तुतमिश ने सिक्कों पर अपना उल्लेख खलीफा के प्रतिनिधि के रूप में उत्कीर्ण करवाया | अब दिल्ली सल्तनत को गजनी से अलग एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त हो गया, जिसे खलीफा, जो समस्त मुस्लिम जगत का धार्मिक नेता था, कि कानूनी मान्यता तथा आध्यात्मिक स्वीकृति प्राप्त थी |

यहीं से वैधानिक स्वतंत्र दिल्ली सल्तनत का युग आरंभ हुआ |

दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक

इल्तुतमिश ने लाहौर की जगह दिल्ली से शासन किया | उसके 26 वर्षों के लंबे शासनकाल के दौरान दिल्ली भारत में तुर्क शासन का राजनीतिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया |

मध्य-एशिया में मंगोल आतंक से पीड़ित अनेक विद्वानों, धार्मिक संतो, कवियों, राजपुरुषों को उसने दिल्ली में शरण दी, जिन्होंने उसके दरबार की शोभा बढ़ाई | उसने दिल्ली की प्रतिष्ठा और गौरव बढ़ाने के लिए उसे सुंदर भावनों, मस्जिदों, तालाबों से सजाया |

इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात थी खलीफा द्वारा उसे दिल्ली के सुल्तान के रूप में सम्मान देना | इल्तुतमिश के कारण ही दिल्ली को गजनी से अलग एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त हो सका | इसलिए इल्तुतमिश को दिल्ली का प्रथम सुल्तान तथा दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक माना गया है | 

इक्ता व्यवस्था की स्थापना

इल्तुतमिश द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था में इक्ता व्यवस्था का सर्वोच्च स्थान है | इक्ता व्यवस्था सल्तनत प्रशासन की आधारशिला थी | इस व्यवस्था के कारण ही सल्तनत संभव हो सकी |

इक्ता एक अरबी शब्द है और इस व्यवस्था को सैलजुकों ने अपने अब्बासी शासन क्षेत्रों में अपनाया था, जिसमें उन्होंने अपनी आवश्यकतानुसार परिवर्तन किए |

इल्तुतमिश ने अपने नव-स्थापित तुर्की राज्य के दृढीकरण के लिए इस व्यवस्था को अपनाया था | उसने अपने पूरे राज्य को अनेकों इक्ताओं में बांटकर उन्हें तुर्कों को आवंटित किया |

यह इक्ता अनुदान छोटे भी हो सकते थे और बहुत बड़े (एक पूरा प्रांत) भी हो सकते थे | इक्ता वह भू-भाग था, जिसकी आय अमीरों को अनुदान में दी जाती थी |

इक्ता को प्राप्त करने वाले मुक्ती या वली कहलाते थे | मुक्ती (muqtis) या वली (walis) अपनी इक्ता से भू-राजस्व वसूल करके अपने सैनिकों को वेतन देते थे और स्वयं अपने खर्च के लिए एक निश्चित धनराशि रख लेते थे | बचे हुए अतिरिक्त राजस्व (फवाजिल) को मुक्ती ‘दीवान-ए-विजारत’ में भेज देते थे |

मुक्ती को अपनी आय और व्यय का विवरण भी केंद्रीय कोषागार को भेजना पड़ता था | जालसाजी रोकने के लिए गहन लेखा-परीक्षण किया जाता था |

मुक्ती को अपनी इक्ता में कानून-व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी निभाना पड़ता था | इस प्रकार मुक्ती प्रांतीय प्रशासन का प्रमुख होता था | उसे पैदल और घुड़सवारों से युक्त एक सेना रखनी होती थी तथा आवश्यकता पड़ने पर मुक्तियों को सुल्तान को सैनिक सहायता भी देनी पड़ती थी |

यदि कोई मुक्ती ऐसा नहीं करता था तो उसे विद्रोही माना जाता था | यद्यपि केंद्र को सैनिक सहायता देना प्रत्येक मुक्ती का अनिवार्य कर्तव्य था तथापि केंद्र सामान्यतः केवल मुक्तियों को उपस्थित होने का आदेश देता था जो दिल्ली के पड़ोस में होते थे | 

यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि इक्ता के अनुदान का अर्थ भूमि पर अधिकार देना नहीं था | यह अनुदान वंशानुगत भी नहीं था |

इक्ताओं का स्थानांतरण भी किया जा सकता था | मुक्तियों का सामान्यतः तीन या चार वर्ष के अंतराल पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरण किया जाता था |

इक्ता व्यवस्था की आदर्श परिभाषा ग्यारहवी शताब्दी के एक सेल्जुक राज्यवेत्ता निजाम उल मुल्क तुसी द्वारा लिखित पुस्तक ‘सियासतनामा’ में मिलती है |

तुसी के अनुसार “उनको मुक्तियों को) जानना चाहिए कि रियाया (किसानों) के ऊपर उनका अधिकार शांतिपूर्वक धन की केवल वैध मात्रा या माल-ए-हक (mal-i-haqq) वसूल करना है |…… प्रजा का जीवन, धन और परिवार को कोई हानि नहीं पहुंचाना चाहिए | उन पर मुक्तियों का कोई अधिकार नहीं है | यदि प्रजा सीधे सुल्तान से निवेदन करना चाहती हो तो मुक्ती को उसे रुकना नहीं चाहिए | जो कोई मुक्ती इन अधिनियमों का उल्लंघन करें, उसे बर्खास्त कर देना चाहिए और सजा देनी चाहिए |…… मुक्ती और वली रियाया (किसानों) के वैसे ही अधीक्षक होते थे जैसे सुल्तान मुक्तियों का अधीक्षक होता है |……तीन या चार वर्ष के बाद आमिलो (amils) और मुक्तियों का स्थानांतरण हो जाना चाहिए | जिससे वें अत्यधिक शक्तिशाली ना हो जाए |”

मुक्ती की नियुक्ति सुल्तान करता था और सुल्तान ही उसे स्थानांतरित और पदच्युत करता था | मुक्ति का वेतन उसके पूरे इक्ता के राजस्व के अनुपात में निर्धारित होता था |

साधारणतया किसी मुक्ती को बड़ी इक्ता से छोटी इक्ता में स्थानांतरित नहीं किया जाता था | किंतु किसी मुक्ती को दंडस्वरूप बड़ी इक्ता से छोटी इक्ता में स्थानांतरित किया जा सकता था |

इक्ता व्यवस्था द्वारा ही सुल्तान अमीरों पर अपना नियंत्रण स्थापित करता था | मुक्तियों को हिंदुओं और विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध युद्ध करने की पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त थी |

इल्तुतमिश के पश्चात दिल्ली के सुल्तानों ने अपनी आवश्यकतानुसार इक्ता व्यवस्था में कई परिवर्तन किए | 

तुर्कान-ए-चिहिलगानी बंदगान-ए-शमसी (चालीसा) का सृजन

सिंहासन पर बैठते ही इल्तुतमिश को मुइज्जी और कुतुबी सरदारों के विद्रोह का सामना करना पड़ा था | यद्यपि इल्तुतमिश ने इनका दमन कर दिया था किंतु अब उसके लिए सिंहासन पर उसका तथा उसके वंशानुगत उत्तराधिकारियों का दावा मजबूत बनाने के लिए दरबार में ऐसे एक शक्तिशाली तथा कर्मठ समूह का सृजन करना अत्यधिक आवश्यक हो गया था, जो पूर्णतया उसके अधीन हो तथा सदैव वफादार रहें |

फलस्वरूप इल्तुतमिश ने अपने सर्वाधिक योग्य, कर्मठ और विश्वसनीय चालीस तुर्क दास अधिकारियों का एक समूह तैयार किया | यह समूह “तुर्कान-ए-चिहिलगानी बन्दगान-ए-शमसी” (चालीसा) के नाम से जाना जाता था |

इल्तुतमिश ने राज्य के प्रायः सभी महत्वपूर्ण सैनिक तथा असैनिक पदों पर इनकी नियुक्ति की तथा ये सभी पूर्णतया सुल्तान की कृपा पर ही आश्रित थे | इल्तुतमिश इनका अत्यधिक सम्मान करता था | दरबार में इनका अत्यधिक प्रभाव था | ये इल्तुतमिश के प्रमुख सलाहकार थें |

चालीसा के सदस्य इल्तुतमिश संपूर्ण जीवनकाल में उसके तथा राज्य के प्रति पूर्णतया वफादार रहें | यह चालीसा की पूर्ण निष्ठा का ही परिणाम था कि इल्तुतमिश ने सिंहासन पर स्वयं को सुरक्षित अनुभव किया तथा उस पर अपने उत्तराधिकारियों का दावा सुनिश्चित करने के लिए राजतंत्र को एक वंशानुगत संस्था बनाने का विचार किया | 

मुद्रा में सुधार (टंका और जीतल)

दिल्ली सल्तनत की मुद्रा के मानकीकरण का श्रेय इल्तुतमिश को जाता है | उसने जो मुद्रा-प्रणाली स्थापित की वह अपने सारभूत रूप में सल्तनत काल में जारी रही |

इल्तुतमिश ने टंका और जीतल नामक दो सिक्के जारी किए | टंका सोने और चांदी दोनों धातुओं के होते थे जबकि जीतल तांबे का होता था | चांदी का एक टंका तौल में 175 ग्रेन का होता था तथा 48 जीतल के बराबर था | 

इल्तुतमिश पहला तुर्क शासक था, जिसने पूर्णतया अरबी ढंग का सिक्का (टंका) चलाया | इल्तुतमिश के द्वारा चांदी का टंका ढालने के साथ ही भारत-मुस्लिम (Indo-Muslims) मौद्रिक प्रणाली का आरंभ स्वीकार किया जाता है |

फारसी अनुश्रुति, सुल्तान की उपाधियाँ तथा कलमा का अंकन होने के साथ ही टंका दिल्ली सल्तनत की मानक-मौद्रिक इकाई स्वीकार की जाने लगी |

आधुनिक इतिहासकार हबीबुल्ला के अनुसार “अरबी दन्त-कथा (legend) के अभिग्रहण (adoption) के बाद, जो निसंदेह दिनार से ली गई थी और जिसमें कलीमा (kalimah) और अधिराट् की उपाधियां सम्मिलित थी, टंका दिल्ली सल्तनत की मानक वित्तीय इकाई हो गया | सिक्के के चेहरे पर तत्कालीन खलीफा के नाम के समावेश से प्रायोगिक प्रक्रिया समाप्त हो गई जो, प्रकाशित नमूना के आधार पर हम कह सकते हैं, 614/1217 में आरंभ हुई थी | सन् 622/1225 के पहले सिक्कों पर केवल कलीमा होता था | पहले पहल 622/1225 में सिक्के के चेहरे पर, जिन पर वर्ष साफ-साफ अंकित था, खलीफा का नाम दिखाई पड़ा | इस पर सुल्तान की उपाधियां विस्तार पूर्वक अंकित है |……. 628/1230-31 से सिक्कों पर खलीफा अल-मुस्तंसिर का नाम सिक्कों पर छपने लगा, क्योंकि उस वर्ष में इल्तुतमिश को चिर-प्रत्याशित मानाभिषेक प्राप्त हुआ | बहुत संभव है कि इस घटना का स्मरणोत्सव अकालांकित (undated) सिक्के ढालकर मनाया गया जिस पर केवल कलीमा और खलीफा का नाम अंकित है |”

इल्तुतमिश ने ही पहली बार अपने टंका पर टकसाल का नाम अंकित करवाने की प्रथा आरंभ की थी | इसके पहले के आरंभिक सिक्कों पर टकसाल के नाम का अंकन नहीं मिलता है |

दिल्ली की टकसाल का नाम पहली बार 1230-31 के एक टंके पर मिलता है | 1235 ई. के एक टंके पर लखनौती की टकसाल का नाम अंकित है पर वह विवादास्पद है |

इल्तुतमिश की एक अप्रामाणित तांबे की मुद्रा पर मुल्तान के नाम का अंकन मिलता है | इसलिए नेल्सन राइट के अनुसार विदेशों में प्रचलित टंको पर टकसाल का नाम लिखने की परंपरा भारत में प्रचलित करने का श्रेय इल्तुतमिश को दिया जा सकता है |

हबीबउल्ला लिखते हैं “मामलूक मुद्रा से कुशल नियोजन और समंजन व्यक्त होता है | वह बहुत कौशलपूर्वक भारतीय भार-मानक (weight standard) में समाविष्ट किया गया था और उसमें जनता की धारणाओं और परिस्थतियों को बहुत छूट दी गई थी | दिल्ली के वित्त विशेषज्ञों की योग्यता का एक बड़ा प्रमाण यह है कि पूरी शताब्दी भर मुद्राओं का अपेक्षित मूल्य सुस्थिर बना रहा |”

न्याय व्यवस्था

इल्तुतमिश एक न्यायप्रिय शासक था | उसने  नव-स्थापित दिल्ली सल्तनत में न्याय और शासन-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया |

इल्तुतमिश ने उचित न्याय के संपादन के लिए स्थानीय प्रशासनिक निकायों को पूर्व की तरह ही कार्य करने की अनुमति दी और न्यायिक प्रशासन का कार्य तत्कालीन इस्लामी मानदंडों के अनुसार व्यवस्थित किया |

दिल्ली में अनेक काजी थे | राज्य के मुख्य नगरों में ‘अमीर-ए-दाद’ नियुक्त किए गए थे | इनके ऊपर ‘काजी-उल-कुजात’ का पद था, जो उच्चतम न्यायाधिकारी होता था |

न्याय का अंतिम स्रोत सुल्तान था | अपराध संबंधी और माल व दीवानी संबंधी सभी मामलों में सुल्तान ही सर्वोच्च तथा अंतिम न्यायालय था | अंतिम फैसला उसी के द्वारा किया जाता था |

न्यायपालिका एक केंद्रीकृत विभाग था | सुल्तान ही स्वयं विभिन्न नगरों में काजियों की नियुक्तियां करता था | इस कार्य के लिए वह आवश्यकतानुसार काजी-उल-कुजात की राय लेता था |

सुल्तान प्रमुख नगरों के अमीर-ए-दाद की नियुक्ति पर भी नियंत्रण रखता था तथा उनके स्थानान्तरण और पदच्युत के आदेश भी जारी करता था |

काजी के फैसलों को आवश्यकता पड़ने पर लागू करवाने का दायित्व मुक्ती पर था | काजी-उल-कुजात, जो राजधानी में रहता था, अमीर-ए-दाद के सहयोग से मुकदमों का फैसला करता था | सुल्तान के नीचे वह ही उच्चतम न्यायाधिकारी होता था |

इल्तुतमिश ने हिन्दुओं के बीच विवाद निपटाने के लिए हिंदू सरदारों को उनके क्षेत्रों में पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की थी | गांवो की पंचायत हिंदुओं के विवाद पूर्व की भांति ही निपटाने को स्वतंत्र होती थी |

लेकिन हिंदू और मुसलमान के बीच हुए विवाद का निपटारा काजी द्वारा किया जाता था |

इब्नबतूता, जोकि एक अरब यात्री और मोरक्को का अभियानकर्त्ता था, इल्तुतमिश की न्याय-व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए लिखता है “वह न्यायशील, धार्मिक और गुणवान था | उसमें सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह सताये हुए लोगों के साथ न्याय करता था और उनका दुख-दर्द दूर करता था | उसने आदेश दे रखा था कि जिसके साथ कोई अन्याय हुआ हो वह रंगदार कपड़े पहने | हिंदुस्तान के सब लोग सफेद कपड़े पहनते हैं | इसलिए जब वह दरबार लगाता था, सवार होकर बाहर निकलता और किसी को रंगदार कपड़े पहने हुए देखता तो उससे पूछा कि क्या शिकायत है और उसको सताने वाले के विरुद्ध उसके साथ न्याय करता था | वह इतने से भी संतुष्ट नहीं होता था और कहा करता था कि कुछ लोगों के साथ रात्रि में अन्याय होता है | मैं उनके दुख का निवारण करना चाहता हूं | इसलिए उसने अपने महल के दरवाजे पर दो मकराने के सिंह रखवा दिए थे | इन सिंहों के गले में लोहे की जंजीर थी, जिसमें घंटियां लगी हुई थी | जब सुल्तान उसकी आवाज सुनता था तो वह पूछताछ करके शिकायत करने वाले को संतुष्ट किया करता था |”

क्योंकि इब्नबतूता ने अपना वृत्तांत अपने देश वापस लौट जाने के पश्चात बिना किसी दबाव के लिखा था, अतः उसकी उपरोक्त बातों को हमें निसंदेह स्वीकार कर लेना चाहिए |

सैन्य व्यवस्था

नव-स्थापित तुर्की शासन का स्वरूप प्रधानतः सैनिक था, इसलिए राज्य का सबसे महत्वपूर्ण विभाग सेना थी | इल्तुतमिश ने सैन्य व्यवस्था पर समुचित ध्यान दिया |

सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था का आरंभ इल्तुतमिश के शासनकाल से ही होता है | सेना में चार प्रकार के सैनिक होते थे –

(1) नियमित सैनिक – ये सीधे सुल्तान के नियंत्रण में होते थे और उनकी सेवा स्थायी होती थी | इस सेना की देखभाल ‘आरिज-ए-मुमालिक’ करता था |

नये सैन्य दलों की भर्ती करना, सेनाओं की साज-सज्जा तथा युद्ध-क्षमता की देखभाल करना, सैनिकों को वेतन देना आदि सभी कार्य इसी के जिम्मे ही था |

(2) प्रांतीय अक्तादरों के स्थायी सैन्य दल – व्यवहार में प्रादेशिक सेना अक्तादरों की निजी सेना होती थी | वे अपनी सेना की भर्ती, वेतन, देखभाल आदि के लिए स्वतंत्र होते थे और आरिज-ए-मुमालिक उसमें बहुत कम हस्तक्षेप करता था |

प्रादेशिक स्थायी सेना के संगठन का स्वरूप बिल्कुल सुल्तान की स्थायी सेना के संगठन जैसा ही था |

(3) युद्ध के समय तथा अभियान-काल में अस्थायी रूप से भर्ती किए सैनिक – ये विशेष अवसर पर हिंदू राजाओं के विरुद्ध जेहाद के लिए भर्ती होने वाले मुसलमान सैनिक थे, जिन्हें शरा के अनुसार लूट के माल का 80% (⅘) भाग मिलता था |

(4) साधारण मुस्लिम स्वयंसेवक – इन्हे अपने हथियारों और घोड़ों का प्रबंध स्वयं करना होता था तथा युद्ध में लूटे गए माल में हिस्सा मिलता था |

आधुनिक हबीबउल्ला सुल्तान की सेना के स्वरूप के बारे में लिखते हैं “यद्यपि सुल्तान के सीधे नियंत्रण में स्थायी सेना (standing army) के अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं मिलता है तथापि यह निष्कर्ष निकालने के लिए पर्याप्त संकेत मिलते हैं कि केंद्रीय सरकार के पास एक नियमित या स्थायी सेना रहती थी | परंतु हमें उसके स्वरूप और बनावट का बहुत कम ज्ञान है | यह कल्पना की जा सकती है कि सुल्तान के अंगरक्षक, जिन्हें जानदार (jandars) कहते थे, उसमें केंद्र रहे होंगे | ये जानदार, आरक्षी दल के रूप में न हीं केवल सुल्तान, दरबार और राजमहल के चारों ओर शांति और सुव्यवस्था स्थापित रखते थे बल्कि युद्धों में भी सम्मिलित होते थे |”

अधिकतर जानदारो की नियुक्ति सुल्तान के व्यक्तिगत दासो से ही की जाती थी | इनका प्रमुख ‘सर-ए-जानदार’ (sar-i-jandar)) होता था |

मिन्हाज इस स्थायी सेना को ‘ह्श्म-ए-कल्ब’ (hashm-i-qalb) या ‘कल्ब-ए-सुल्तानी (qalb-i-sultani) कहता है | शाही घुड़सवार सेना ‘सवार-ए-कल्ब’ कहलाती थी |

इल्तुतमिश की घुड़सवार सेना की संख्या लगभग तीन हजार थी | यह उसकी व्यक्तिगत सेना थी, जो शम्सी घुड़सवार कहलाती थी |

शाही घुड़सवारी सेना को नकद वेतन के स्थान पर दिल्ली के आसपास अक्ताएं प्रदान की जाती थी | प्रांतों में नियुक्त सेना ‘ह्श्म-ए-अतरफ” कहलाती थी |