इल्तुतमिश की सफलताएं

Iltutamish ki saphalataen

इल्तुतमिश की सफलताएं (Iltutamish ki saphalataen) : विद्यादूत में दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इल्तुतमिश से सम्बन्धित दो लेख – ‘इल्तुतमिश का प्रारम्भिक जीवन‘ और ‘सुल्तान के रूप में इल्तुतमिश की कठिनाईयां‘ पहले ही प्रस्तुत किये जा चुके है | इस लेख में इसके आगे की घटनाओं का वर्णन किया गया है | जैसा कि हमने पिछले लेख में बताया है कि सुल्तान इल्तुतमिश के समक्ष कठिनाईयों का अंबार मौजूद था और दिल्ली का नव-स्थापित तुर्की राज्य एक अस्थिर फौजी जागीर की भांति था, जिसमे स्थायित्व का पूर्णतया अभाव था |

इल्तुतमिश अपने इस नव-स्थापित तुर्की राज्य को केवल शक्ति के आधार पर ही स्थायित्व प्रदान कर सकता था | सुल्तान इल्तुतमिश ने अपनी सूझबूझ, शक्ति और साहस के आधार पर अपने नव-स्थापित तुर्की राज्य को एक मजबूत सल्तनत का स्वरुप प्रदान किया |

इल्तुतमिश की सफलताएं (Iltutamish ki saphalataen)

दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बनने के बाद इल्तुतमिश ने अपनी कठिनाइयों पर इस प्रकार सफलता प्राप्त की –

  1. विरोधी तुर्की कुलीनों का दमन
  2. ताजुद्दीन याल्दौज का दमन
  3. कुबाचा का दामन
  4. मंगोलों से राज्य की रक्षा
  5. बंगाल और बिहार पर पुनर्विजय
  6. राजपूतों से संघर्ष
  7. दोआब क्षेत्रों की पुनर्विजय

विरोधी तुर्की कुलीनों का दमन

इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम अपने विरोधी मुइज्जी तथा कुतुबी कुलीनों का दमन किया | इन्होंने दिल्ली के बाहर एकत्र होकर विद्रोह कर दिया था | इल्तुतमिश ने इन विद्रोहियों को दिल्ली के निकट जूद के मैदान में पराजित किया | बड़ी संख्या में विद्रोही मौत के घाट उतार दिए गए | बाकी बचे विद्रोही कुलीनों ने इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली |

इसके बाद इल्तुतमिश ने अवध, बनारस, बदायूं और शिवालिक पर अधिकार कर लिया | भविष्य में इन कुलीनों के विद्रोह को रोकने तथा इन्हे अपने पक्ष में करने के लिए उसने इन्हें राज्य के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना आरंभ किया |

लेकिन वें परस्पर मिलकर षड्यंत्र न कर सके, इसलिए उन्हें राजधानी से दूर राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में भेज दिया | इस प्रकार इल्तुतमिश ने बड़ी चालाकी से अपना सिंहासन सुरक्षित कर लिया

ताजुद्दीन याल्दौज का दमन

ऐबक की मृत्यु के पश्चात दिल्ली सल्तनत पर याल्दौज की दावेदारी और मजबूत हो गई थी | इल्तुतमिश अभी इस स्थिति में नहीं था कि वह याल्दौज से सीधी टक्कर ले सकें | इसलिए उसने कूटनीति का सहारा लेते हुए याल्दौज द्वारा भेजे गए राजचिन्ह-छतरी (Canopy) और चोब (Mace) स्वीकार कर लिया, भले ही इसका अर्थ याल्दौज की प्रभुता स्वीकार करना था |

इस प्रकार याल्दौज को संतुष्ट करके तथा उसकी ओर से अपने को सुरक्षित मानकर इल्तुतमिश अब ऐसे सुअवसर की तलाश में लग गया, जब वह दिल्ली पर से गजनी का आधिपत्य उतार फेंके |

सौभाग्य से उसे यह अवसर शीघ्र ही मिल गया | 1215 ई. में याल्दौज ख्वारिज्म के शाह अलाउद्दीन मुहम्मद से पराजित हो गया और गजनी से भगा दिया गया | याल्दौज भागकर भारत आया तथा कुबाचा को हराकर लाहौर और समस्त पंजाब पर कब्जा कर लिया | उसने पुनः दिल्ली के सिंहासन पर अपना पुराना दावा प्रस्तुत किया |

यह दावा इल्तुतमिश को अस्वीकार्य था | अब इल्तुतमिश के लिए आवश्यक हो गया था कि वह याल्दौज का दमन कर दें, क्योंकि अगर याल्दौज पंजाब में अपनी शक्ति संगठित कर लेता है तो इल्तुतमिश के दिल्ली को सुरक्षित रख पाना कठिन हो जाता |

इसलिए तुरंत एक विशाल सेना लेकर इल्तुतमिश ने याल्दौज की ओर कूच किया | तराइन के ऐतिहासिक मैदान में दोनों के बीच हुए युद्ध में याल्दौज पराजित हुआ | बदायूं के दुर्ग में कुछ समय तक कैद रखने के बाद याल्दौज की हत्या कर दी गई |

यह विजय इल्तुतमिश के लिए एक महान उपलब्धि थी | इससे दोहरा लाभ हुआ | पहला, उसका सर्वाधिक कट्टर विरोधी तथा सिंहासन के दावेदार का हमेशा के लिए अंत हो गया तथा दूसरा दिल्ली सल्तनत गजनी के विदेशी प्रभुत्व से बच गई |

कुबाचा का दमन

इल्तुतमिश के द्वारा याल्दौज की पराजय के बाद कुबाचा ने अवसर का लाभ उठाकर लाहौर पर पुनः अधिकार कर लिया | अब इल्तुतमिश के लिए कुबाचा पर ध्यान देना आवश्यक हो गया |

1217 ई. में याल्दौज के भय से मुक्त होकर इल्तुतमिश ने कुबाचा पर आक्रमण किया | कुबाचा डरकर लाहौर से भाग खड़ा हुआ | इल्तुतमिश ने उसका पीछा किया और चेनाब नदी के तट पर स्थित मनसुरा में उसको पराजित किया |

कुबाचा ने दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली तथा उसे वार्षिक-कर देने को राजी हो गया | मुल्तान, कच्छ, सिन्ध और देवल कुबाचा के पास ही रहने दिया गया | लेकिन लाहौर उससे छीन लिया गया | नासिरुद्दीन महमूद (इल्तुतमिश का जेष्ठ पुत्र) को वहां का शासक नियुक्त किया गया |

यद्यपि कुबाचा ने दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली तथापि वह 11 वर्षों तक एक स्वतंत्र शासक की भांति व्यवहार करता रहा | 1228 ई. में इल्तुतमिश ने कुबाचा का दमन करने के लिए उस पर पुनः आक्रमण किया |  कुबाचा पराजित हुआ तथा उसके क्षेत्रों पर सुल्तान ने अधिकार कर लिया | कुबाचा भागकर सिन्ध के दक्षिणी भाग में स्थित भाक्कर (Bhakkar) द्वीप के सुरक्षित किले में चला गया |

कुछ समय बाद जब इल्तुतमिश ने भाक्कर की ओर कूच किया तो कुबाचा प्राण रक्षा हेतु भागते समय सिंधु नदी में डूब कर मर गया | इस प्रकार इल्तुतमिश को अपने दूसरे प्रबल प्रतिद्वंदी से भी छुटकारा मिल गया |

यहां इल्तुतमिश को एक लाभ और हुआ | निचले सिंध में देवल के सुमरा शासक सिनानुद्दीन चानीसार ने दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली | मुल्तान और सिन्ध प्रान्तों पर अलग-अलग सूबेदारों को नियुक्त किया | इस प्रकार मुल्तान और सिन्ध दिल्ली सल्तनत के अभिन्न अंग बन गए |

मंगोलों से राज्य की रक्षा

इल्तुतमिश ने मंगोलों के आक्रमण के खतरे से नव-स्थापित तुर्की साम्राज्य को सुरक्षित करने में कूटनीतिक सफलता पाई | इल्तुतमिश के ही शासनकाल में सर्वप्रथम 1221 ई. में मंगोल अपने प्रसिद्ध नेता चंगेज खां के नेतृत्व में सिंधु नदी के तट पर उपस्थित हुए |

मंगोल मध्य-एशिया की एक असभ्य और बर्बर जाति थी | मंगोलों ने अब तक इस्लाम धर्म नहीं स्वीकारा था | वे शमानिष्ठवादी थे, जो बौद्ध धर्म का एक विकृत रूप था | चंगेज खां के नेतृत्व में मंगोल एक भयावह शक्ति बन गए थे |

चंगेज खां स्वयं को “भगवान का अभिशाप” कहता था | उसका जन्म 1155 ई. में एक शक्तिशाली मंगोल सरदार के यहां हुआ था | उसका प्रारंभ का नाम तेमुचिन था | चंगेज खां एक क्रूर वीर योद्धा और शातिर कूटनीतिज्ञ था, जो अपने शत्रुओं में फूट डालने और उन्हें फंसाने में निपुण था |

चंगेज खां ने ख्वारिज्म के शाह अलाउद्दीन मुहम्मद को भी पराजित किया | उस काल में ख्वारिज्म साम्राज्य मध्य-एशिया का सबसे शक्तिशाली राज्य था | अलाउद्दीन मुहम्मद कैस्पियन सागर के तट की ओर भाग गया जबकि उसका ज्येष्ठ पुत्र जलालुद्दीन मंगबर्नी भागकर 1221 ई. सिंधु नदी के तट पर आ गया | उसने पंजाब में शरण ली |

इस प्रकार पंजाब मे इल्तुतमिश को हाल ही में जो लाभ हुआ था वह समाप्त हो गया | मंगबर्नी ऊपरी सिन्ध सागर दोआब में जम गया और नमक के पहाड़ (Salt Range) के खोखर शासक से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया और उत्तरी-पश्चिमी पंजाब और मुल्तान की विजय योजना में खोखरों की सहायता प्राप्त की |

इधर चंगेज खां के नेतृत्व में मंगोल मंगबर्नी का पीछा करते हुए सिंधु नदी के तट पर आ पहुंचे | इस प्रकार पंजाब और ऊपरी सिन्ध सागर दोआब मंगोलो, मंगबर्नी और कुबाचा के बीच युद्ध-क्षेत्र बन गया |

इल्तुतमिश बड़ी चालाकी से अपने राज्य को बचाने के लिए इस संघर्ष में तटस्थ रहा | ऐसा प्रतीत होता है कि चंगेज खां अपने इस दूत को इल्तुतमिश के दरबार में भेजा था |

इल्तुतमिश की इस पर क्या प्रतिक्रिया रही यह कह पाना कठिन है | लेकिन इतना निश्चित है कि चंगेज खां की मृत्यु (1227 ई.) तक उसने सिन्धु क्षेत्र में अपनी शक्ति का विस्तार करने का प्रयास नहीं किया | मंगबर्नी ने खोखरों की सहायता से कुबाचा को सिंध सागर दोआब से लगभग भगा दिया गया |

हबीबउल्ला के अनुसार “पश्चिमी पंजाब में मंगबर्नी के तीन वर्ष निवास करने का रावी और चेनाव क्षेत्रों में इल्तुतमिश के आधिपत्य पर बुरा प्रभाव पड़ा | मंगबर्नी ने सियालकोट जिले के बसरौर (Basraur) या पसरौर (Pasraur) के किले पर कब्जा कर लिया और नदीय भूभाग को लूट कर अपना खर्च चलाने का प्रयास किया |”

इसके पश्चात मंगबर्नी आगे बढ़कर लाहौर जा पहुंचा और इल्तुतमिश के पास अपने दूत आइन-उल- मुल्क भेजकर उससे शरण के लिए प्रार्थना | इल्तुतमिश के कूटनीतिक तरीके से मंगबर्नी के साथ राजनीतिक गठबंधन करने की अवहेलना की |

सुल्तान इल्तुतमिश ने उसके दूत की हत्या करवा दी और मंगबर्नी के पास यह संदेश भिजवा दिया कि दिल्ली की गर्म जलवायु उसके ठहरने के लिए अनुकूल नहीं है |

हबीबुल्लाह लिखते हैं “आतिथ्य-सत्कार के नियमों के अनुसार मंगबर्नी को दिल्ली में शरण मिल जानी चाहिए थी लेकिन इल्तुतमिश महान यथार्थवादी था | इस स्थिति में भगेडू शहजादे को इल्तुतमिश का स्वयं अपनी वैदेशिक नीति में परिवर्तन करना और अत्यधिक भयानक शक्ति को क्रुद्ध करना केवल अविवेकपूर्ण ही नहीं बल्कि लगभग आत्म-विनाशक भी होता | इसलिए मंगबर्नी की प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई और जब उसने पंजाब में और आक्रमण करके बदला लेने का प्रयास किया तब इल्तुतमिश युद्ध के लिए तैयार हो गया | किंतु युद्ध की नौबत नहीं आई क्योकि शहजादे ने विचार किया कि इल्तुतमिश को छोड़कर कुबाचा पर आक्रमण करना अधिक विवेकपूर्ण होगा |”

भारतीय भूमि पर सुदृढ़ रूप से पैर जमाने में असफल होने के बाद मंगबर्नी 1224 ई. में अपने देश खुरासन लौट गया | चंगेज खां भी भारत की गर्म जलवायु को सहन न कर सका और सिंधु नदी के तट से लौट गया |

परिणामस्वरूप तुर्की राज्य एक भयंकर संकट से बच गया | अब इल्तुतमिश ने चैन की सांस ली क्योंकि अब वह राज्य के संकटग्रस्त क्षेत्रों पर खुलकर अपना ध्यान केंद्रित कर सकता था | 

बंगाल और बिहार पर पुनर्विजय

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के पश्चात अलीमर्दान खिलजी ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया | लेकिन वह क्रूर शासक था | उसके अत्याचारों से ऊब कर जनता ने विद्रोह कर दिया |

जल्द ही 1212 ई. के आरंभ में अलीमर्दान की हत्या करके खिलजी सरदारों ने हुसामुद्दीन इवाज खिलजी को लखनौती के सिंहासन पर बैठा दिया | इवाज ने सुल्तान गियासुद्दीन की उपाधि धारण की तथा स्वयं को पूर्ण स्वतंत्र शासक घोषित किया |

इवाज एक योग्य शासक सिद्ध हुआ | इल्तुतमिश की व्यस्तता और कठिनाइयों का लाभ उठाकर इवाज अपने राज्य-विस्तार में लग गया | उसने बिहार को अपने राज्य में मिला लिया |

उसने जाजनगर (उड़ीसा), तिरहुत (उत्तर बंगाल), बंग (पूर्वी बंगाल) और कामरूप (असम) के पड़ोसी हिंदू राज्य पर आक्रमण किया तथा उनसे वार्षिक-कर वसूल किया |

मंगोल संकट का निराकरण होते ही इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम इवाज की ओर ध्यान दिया | उसने दक्षिण बिहार को जीतकर वहां अपना सूबेदार नियुक्त किया | इसके उपरांत वह गंगा नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ा | इवाज भी अपनी सेना लेकर चला और इल्तुतमिश को बिहार में रोकने की योजना बनाई |

किंतु इल्तुतमिश की वास्तविक शक्ति का ज्ञान होने पर इवाज ने बिना युद्ध किए ही इल्तुतमिश का आधिपत्य स्वीकार कर लिया (1225 ई.) | इवाज ने बिहार पर से अपना दावा त्याग दिया | अब इल्तुतमिश ने मलिक जानी को बिहार का सूबेदार बनाया |

लेकिन जैसे ही इल्तुतमिश वापस गया इवाज अपने वादे से मुकर गया | उसने मलिक जानी को पराजित करके उसे बिहार से भगा दिया तथा स्वयं को पुनः स्वतंत्र घोषित कर दिया |

अब इल्तुतमिश ने अपने जेष्ठ पुत्र नासरुद्दीन महमूद (जो उस समय अवध का सूबेदार था) को आज्ञा दी कि वह अवसर मिलते ही इवाज का दमन कर दें | नासिरुद्दीन महमूद को यह अवसर 1226-27 ई. में मिल गया, जब इवाज कामरूप और बंग में सैन्य अभियान में व्यस्त था |

उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर नासिरुद्दीन अकस्मात लखनौती आ धमका तथा उस पर कब्जा कर लिया | इवाज अपने राजधानी को प्राप्त करने के लिए वापस आया, किंतु वह महमूद से पराजित हुआ और मारा गया |

इस प्रकार लखनौती दिल्ली के अधिकार में आ गया | नासिरुद्दीन महमूद अपनी मृत्यु तक (1227 ई.) अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में लखनौती पर शासन करता रहा | लेकिन उसकी अचानक मृत्यु के कारण  लखनौती  में विद्रोह हो गया तथा बंगाल पुनः दिल्ली के हाथों से निकल गया |

खिलजी सरदारों ने बल्का खिलजी नामक व्यक्ति को लखनौती के सिंहासन पर बैठा दिया | परिणामस्वरूप 1230 ई. में इल्तुतमिश ने दूसरी बार बंगाल पर आक्रमण किया | बल्का खिलजी पराजित हुआ तथा मारा गया | बंगाल पुनः दिल्ली में मिला लिया गया |

अब इल्तुतमिश ने इस क्षेत्र पर दिल्ली का प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित करने के लिए बंगाल और बिहार के लिए अलग-अलग सूबेदार नियुक्त किए |

इस प्रकार बंगाल और बिहार दो पृथक-पृथक प्रदेश हो गए | दोनों प्रदेश इल्तुतमिश की मृत्यु तक दिल्ली सल्तनत के अभिन्न अंग बने रहे | 

राजपूतों से संघर्ष

इल्तुतमिश ने विद्रोही राजपूत राजाओं को पुनः दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया | इल्तुतमिश ने अपने खोये हुए राजपूत राज्यों को प्राप्त करने के लिए 1226 ई. से युद्ध आरम्भ किया |

इस वर्ष उसने शक्तिशाली रणथम्भौर के दुर्ग पर घेरा डाला तथा उसे चौहानों से जीत लिया | अगले वर्ष उसने शिवालिक की पहाड़ियों में स्थित मन्दोर को परमारों से आसानी से जीतकर दिल्ली में मिला लिया |

1228 ई. में उसने जालौर पर विजय प्राप्त की | जालौर के शासक उदय सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली तथा वार्षिक-कर देने को राजी हो गया |

लेकिन इल्तुतमिश को गुहलौत की राजधानी नागडा पर आक्रमण में हार का सामना करना पड़ा | यहां के राजा जैत्रसिंह ने उसे भागने पर मजबूर कर दिया था तथा उसे अत्यधिक हानि उठानी पड़ी थी |

इसके अलावा उसे गुजरात के चालुक्यों ने भी पराजय का स्वाद चखाया | लेकिन इल्तुतमिश को उत्तरी और पूर्वी राजपूताना में सफलता प्राप्त हुई | यहां उसने बायाना और थानगीर पर पुनः अधिकार कर लिया |

1231 ई. में उसने ग्वालियर पर घेरा डाला | यहां के परिहार शासक मंगलदेव ने पूरे एक वर्ष तक तुर्कों का प्रतिरोध किया | लेकिन अंत में वह चुपके से भाग निकला तथा दुर्ग पर दिल्ली का अधिकार हो गया |

इल्तुतमिश ने रशीदुद्दीन नामक व्यक्ति के नेतृत्व में वहां एक रक्षक सेना नियुक्त की | 1233-34 ई. में सुल्तान ने बायाना और ग्वालियर के सूबेदार मलिक ताजासाई को कालिंजर पर आक्रमण करने का आदेश दिया |

तुर्की सेना के निकट पहुंचने पर वहां का चंदेल राजा त्रेलोक्यवर्मन भाग गया | तुर्की सेना ने वहां के अनेक नगरों को जी-भरकर लूटा तथा खूब माल प्राप्त किया | लेकिन पड़ोस के चंदेलों द्वारा अत्यधिक परेशान किए जाने के कारण तुर्कों को कालिंजर से भागना पड़ा |

1234-35 ई. में इल्तुतमिश ने मालवा पर चढ़ाई की तथा भिल्सा और उज्जैन को लूटा | उज्जैन में महाकाल के प्राचीन मंदिर को नष्ट कर दिया गया तथा विख्यात विक्रमादित्य की एक मूर्ति दिल्ली लाई गई |

मालवा पर आक्रमण लूटमार से अधिक कुछ नहीं था, क्योंकि इस अवसर पर परिहार वंश को कोई राजक्षेत्रीय हानि नहीं उठानी पड़ी थी बल्कि वह शताब्दी के अंत तक स्वतंत्र बना रहा | 

दोआब क्षेत्रों की पुनर्विजय

दोआब के हिंदू शासकों ने इल्तुतमिश की व्यस्तता का लाभ उठाया | जिस समय इल्तुतमिश तुर्की कुलीनों के विद्रोह का दमन करने में व्यस्त था | उसी समय दोआब क्षेत्र के अनेक प्रदेशों ने अपनी स्वतंत्रताएं पुनः स्थापित कर ली |

बदायूं, कन्नौज और वाराणसी पर हिंदू राजाओं ने पुनः कब्जा कर लिया | कटेहर (आधुनिक रुहेलखंड) और उसकी राजधानी अहिच्छत्र भी दिल्ली से स्वतंत्र हो चुके थे | इल्तुतमिश इन प्रदेशों को सल्तनत से निकालता हुआ नही देख सकता था |

अतः जैसे ही उसकी स्थिति मजबूत हुई उसने दोआब के हिंदुओं के विरूद्ध अभियान शुरू कर दिया | बिना किसी परेशानी के बदायूं, कन्नौज और वाराणसी पर पुनः दिल्ली का अधिकार हो गया |

लंबे संघर्ष के बाद कटेहर पर उसकी राजधानी अहिच्छत्र के साथ अधिकार कर लिया गया | इसके बाद बहराइच और घाघरा नदी के उत्तर में स्थित जिलों पर भी तुर्कों का अधिकार हो गया |

अवध ने भी अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी | अतः उसे भी पुनः जीतकर दिल्ली में मिला लिया गया | नासिरूद्दीन महमूद (सुल्तान का जेष्ठ पुत्र) को अवध का सूबेदार नियुक्त किया गया |

लेकिन यहां नासिरुद्दीन महमूद को स्थानीय हिंदू जनजातियों के विरुद्ध निरंतर युद्ध करने पड़े | इनका नेता बरतू या पृथु नामक एक अत्यंत वीर और साहसी योद्धा था | मिनहाज उसका अतिशयोक्ति वर्णन करते हुए लिखता है कि उसकी तलवार से एक लाख बीस हजार मुसलमान शहीद हो चुके थे |

नासिरुद्दीन की उस पर विजय के पश्चात ही अवध पर पूर्ण रूप से दिल्ली का आधिपत्य स्थापित किया जा सका |