बहरामशाह का इतिहास

baharam shah ka itihas

बहरामशाह का इतिहास (1240-42) History of Bahram Shah in Hindi : रजिया के पतन के पश्चात तुर्की सरदारों ने अपनी पूर्वयोजनानुसार बहरामशाह को गद्दी पर बैठाया तथा सर्वसम्मति से उसे दिल्ली का सुल्तान घोषित किया (मई 1240) | बहरामशाह ने मुइज्जुद्दीन की उपाधि की | रजिया की सिंहासनाच्युत वस्तुतः तुर्की सरदारों की विजय थी | अब वे और अधिक शक्तिशाली हो गये |

उन्होंने बहरामशाह को इस शर्त पर सिंहासन पर बैठाया था कि वह केवल नाममात्र शासन करेगा तथा शासन की वास्तविक शक्ति उन्ही (तुर्की सरदार) के पास रहेगी |

सुल्तान को कठपुतली बनाने हेतु नायब-ए-ममलिकात (naib-i-mamlikat) (राज्य का नायब) नायक एक नये पद का सृजन किया गया | षड्यंत्रकारियों का प्रमुख होने के कारण यह पद एतगीन को प्राप्त हुआ |

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मिनहाज के अनुसार – “उसने अपने पद के अधिकार से राज्य कार्य का संचालन अपने हाथों में ले लिया |” षड्यंत्रकारियों का साथ देने के कारण वजीर का पद निजामुलमुल्क महजबुद्दीन के पास ही रहा |

लेकिन अब वजीर का पद नायब-ए-ममलिकात से गौण हो गया था | एतगीन ने अपने विशेषाधिकारों का पूर्णतया उपयोग करने लगा | उसने अपने अधिकारों में और अधिक बढ़ोत्तरी करने के लिए सुल्तान की बहन से विवाह कर लिया |

मिनहाज के अनुसार – “उसके महल के द्वार पर दिन में तीन बार बाजा बजता था और एक हाथी खड़ा रहता था | उसका बड़ा ठाट था |” लेकिन जल्द ही सुल्तान उसके द्वारा राजकीय विशेषाधिकारो के दुरुपयोग से परेशान हो गया |

बहरामशाह अपने पिता की तरह स्वेच्छा से शासन करने का इच्छुक था तथा अपने विशेशाधिकारो पर होने वाले आक्रमणों को वह सह न सका | इसलिए सुल्तान ने शाही महल में एक धार्मिक गोष्ठी के समय एतगीन की हत्या करवा दी |

वजीर पर भी हमला हुआ लेकिन वह बच निकला | एतगीन के पतन के पश्चात सुल्तान ने सतर्कता बतरते हुए नायब-ए-ममलिकात के पद पर किसी की भी नियुक्ति नही की | लेकिन सुल्तान की विजय क्षणिक सिद्ध हुई |

अमीर-ए-हाजिब के पद पर नव-नियुक्त मलिक बदरूद्दीन संकर अब एतगीन की तरह तानाशाही व्यवहार करने लगा |

मिनहाज लिखता है – “बदरुद्दीन संकर बड़ी सत्ता के साथ काम करने लगा और सुल्तान से पूछे बिना ही आदेश जारी करने लगा | वह शासन का संचालन करने लगा और निजामुलमुल्क महजबुद्दीन (वजीर) को दबाकर रखने लगा |”

इस प्रकार अधिकारच्युत होने पर सुल्तान और वजीर दोनों ही बदरुद्दीन की इस बढ़ती हुई शक्ति से सतर्क हो गये तथा स्वाभाविक रूप से एक दूसरे के अधिक निकट आ गये | बदरुद्दीन भी बदलती परिस्थितियों से अंजान न था | उसे एतगीन की दुर्दशा अच्छी तरह से ज्ञात थी |

अतः अपनी सुरक्षा हेतु उसने सुल्तान को सिंहासनाच्युत करने के लिए नगर के कुछ मुल्लाओं के साथ षडयंत्र रचा | अपनी गुप्त सभा में षड्यंत्रकारियों ने वजीर महजुबद्दीन को भी आमंत्रित किया | लेकिन वजीर पहले से ही बदरूद्दीन की बढ़ती हुई शक्तियों से भयभीत था | अतः प्रतिशोध की भावना से उसने पूरे षड्यंत्र का भंडाफोड़ कर दिया |”

सुल्तान ने तुरंत आक्रमण करके षड्यंत्रकारियों को पकड़ लिया | लेकिन षड्यंत्रकारियों की समाज में उच्च स्थिति को देखते हुए सुल्तान ने उनके साथ अत्यधिक कठोर व्यवहार नही किया |

काजी जलालुद्दीन कासानी को काजी के पद से हटा दिया गया और काजी कबीरुद्दीन तथा शेख मुहम्मद शामी भयभीत होकर दिल्ली से भाग निकले |

सुल्तान ने बदरुद्दीन को उसके पद से बर्खास्त करके दिल्ली से निर्वासित करते हुए बदायूं चले जाने का आदेश दिया | लेकिन बदरूद्दीन अपनी आदतों से बाज न आया तथा चार महीने बाद ही सुल्तान की बिना आज्ञा के राजधानी लौट आया | जिससे सुल्तान ने क्रोधित होकर उसे बंदी बना लिया तथा कारावास में उसकी हत्या करवा दी |

मंगोल आक्रमण (1241)

बहरामशाह के शासनकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना थी – 1241 में सल्तनत पर मंगोलों का एक गम्भीर खतरा उत्पन्न होना | यह दिल्ली का सौभाग्य ही था कि वे लाहौर से ही वापस लौट गये तथा कमजोर दिल्ली शक्तिशाली और क्रूर मंगोलों के कहर से बच गयी |

लेकिन मंगोलों ने लाहौर को पूर्णतया बर्बाद कर दिया | 1241 में ताइर बहादुर जो हिरात, गोर, गजनी और तुर्किस्तान का मंगोल सेनाध्यक्ष था, ने भारत पर विजय के उद्देश्य से सिन्धु नदी को पार करके लाहौर तक आ पंहुचा | मंगोलों ने लाहौर पर घेरा डाला |

लाहौर का सूबेदार कराकश शक्तिशाली मंगोलों का सामना करने की स्थिति में नही था, साथ ही लाहौर की जनता मंगोलों की क्रूरता के प्रति उदासीन थें |

मिनहाज के अनुसार – “लाहौर का सूबेदार मलिक कराकश वीर और बहादुर व्यक्ति था, परन्तु नगर के निवासियों ने उसका साथ नही दिया और लड़ने में तथा चौकसी करने में पीछे रहें |”

नगर के व्यापारी भी मंगोलों के विरुद्ध कोई सहायता देने को तैयार न थें क्योकि वे मध्य-एशिया के साथ व्यापार में संलग्न थे तथा मंगोलों से अनुमति पत्र और अन्य सुविधाएँ प्राप्त करते थें |

सुल्तान ने लाहौर की सहायता हेतु वजीर महजबुद्दीन के नेतृत्व में एक सेना भेजी | लेकिन महजबुद्दीन सुल्तान के प्रति षड्यंत्र रच रहा था | अतः उसने सेना में सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह फैला दिया |

फलतः सेना बहराम को अपदस्थ करने के लिए दिल्ली की ओर मुड गयी | अब मलिक कारकश असहाय होकर अपने सैनिकों के साथ भाग जाने को बाध्य हो गया |

मिन्हाज लिखता है – “काफिरों (मंगोलों) ने उसका पीछा किया किन्तु सर्वशक्तिमान अल्लाह ने उस पर कृपादृष्टि रखी और वह सकुशल उन लोगो से बच निकला |”

जब नगर सैनिक विहीन हो गया तब वहाँ के निवासियों को स्थिति की गम्भीरता का पता चला | मंगोलों को नगर पर अधिकार करने में वहाँ के निवासियों के घोर विरोध का सामना करना पड़ा |

संभवता कई हजार मंगोलों के साथ सेनाध्यक्ष ताइर बहादुर भी मारा गया | इसका परिणाम यह हुआ कि मंगोलों ने पूरे नगर का विनाश कर दिया | नगर को जमकर लूटा गया |

अधिकांश निवासियों को मौत के घाट उतार दिया गया, जो बच गये वे गुलाम बना लिए गये | लेकिन दिल्ली इस दुर्दशा से बच गयी क्योकि मंगोल किसी कारणवश अचानक लाहौर से वापस लौट गये |

उनके वापस जाने पर खोखरों ने भी अवसर का लाभ उठाया तथा नगर में जो कुछ बचा था, उसे लूटा | यद्यपि लाहौर पर दिल्ली का पुनः अधिकार हो गया लेकिन अगले बीस वर्षों तक मंगोलों और खोखरों के बार-बार हमलों के कारण लाहौर अपने पुराने वैभव को स्थापित न कर पाया | बलबन के राज्यारोहण के पश्चात् ही उसका पूर्णतया पुनर्निर्माण और पुनर्वास हो पाया |

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