सांख्य दर्शन का परिचय

Sankhya Darshan Ka Parichay in Hindi

सांख्य दर्शन का परिचय (Sankhya Darshan Ka Parichay in Hindi) Introduction to Sankhya Philosophy in Hindi : इस लेख में हम दर्शनशास्त्र केटेगरी में सांख्य दर्शन का परिचय, सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष, सांख्य दर्शन के 25 तत्व (Sankhya Darshan Ke 25 Tatva in Hindi) आदि पर चर्चा करेंगें | षड्दर्शन में सांख्य दर्शन सबसे प्राचीन है | इसकी प्राचीनता इसी बात से सिद्ध होती है कि महाभारत, रामायण, भगवद्गीता, उपनिषद, स्मृति और पुराण आदि में इसकी विचारधारा की झलक मिलती है |

सांख्य दर्शन, दूसरा सबसे महत्वपूर्ण भारतीय दर्शन है , पहला सबसे महत्वपूर्ण दर्शन वेदान्त दर्शन है | सांख्य दर्शन ‘सांख्य प्रवचन’ के नाम से जाना जाता है |

सांख्य दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल है | डॉ राधाकृष्णन ने कपिल को महात्मा बुद्ध से एक शताब्दी पूर्व माना है | पालि साहित्य में वर्णन आता है कि विरक्त होकर बुद्ध ने जिन गुरुओ के पर तपस्या की उनमे सांख्य के आचार्य आलार कालाम भी थे | महर्षि कपिल ने दो ग्रंथो की रचना की – सांख्य सूत्र और तत्व समास |

किन्तु न तो महर्षि कपिल के विषय में प्रमाणिक जानकारी मिलती है और न ही वर्तमान में उनके रचित ग्रन्थ ही उपलब्ध है |

सांख्य–सूत्र में 537 सूत्र थे और उसने सांख्य दर्शन के सिद्दांतो का प्रमाण के साथ प्रतिपादन किया गया था | तत्व समास में केवल 22 सूत्र थे |

वर्तमान में सांख्य दर्शन के ज्ञान का मूल आधार ईश्वरकृष्ण (तीसरी से पाँचवी सदी) द्वारा रचित सांख्यकारिका है | सांख्यकारिका, सांख्य दर्शन का प्राचीन और प्रामाणिक ग्रन्थ है |

सांख्यकारिका में सांख्य दर्शन की व्याख्या 72 छोटी–छोटी ‘कारिकाओ’ में की गई है, जो छन्द में है | आधुनिक काल में साधारणतया इसी ग्रन्थ को आधार मानकर सांख्य दर्शन की व्याख्या की जाती है |

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सांख्य का अर्थ

सांख्य का नामकरण ‘सांख्य’ क्यों पड़ा इस प्रश्न को लेकर निम्न मत प्रचलित है –

1. सांख्य शब्द ‘सं’ और ‘ख्या’ के संयोग से बना है | ‘सं’ का अर्थ सम्यक् और ‘ख्या’ का अर्थ ज्ञान होता है | इसलिए सांख्य का वास्तविक अर्थ हुआ ‘सम्यक् ज्ञान’ | सम्यक् ज्ञान का अर्थ है पुरुष और प्रकृति के बीच की भिन्नता का ज्ञान |

क्योकि इस दर्शन में सम्यक् ज्ञान पर जोर दिया गया है, इसलिए इसे ‘सांख्य’ कहा गया है |

2. सांख्य नाम ‘संख्या’ शब्द से प्राप्त हुआ है |

इस दर्शन में सर्वप्रथम  तत्वों की संख्या निर्धारित की गई है |

इसमे तत्वों की संख्या को 25 बतायी गयी है | जिसमे प्रकृति और पुरुष दो मूल तत्व और प्रकृति की 23 विकृतियाँ है | यह पच्चीस संख्या वाले तत्वों का दर्शन है |

भगवतगीता में इस दर्शन को ‘तत्व गणन’ अथवा ‘तत्व संख्या’ कहा गया है | अतः इस दर्शन का सम्बन्ध संख्या से होने के कारण इसे सांख्य कहा जाता है |

सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष में सम्बन्ध

सांख्य दर्शन एक द्धैतवादी दर्शन है | इसके अनुसार दो मूल तत्व है – एक प्रकृति और दूसरा पुरुष | इन्ही दो तत्वों के योग से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है |

पुरुष चेतन है जबकि प्रकृति अचेतन है | पुरुष निष्क्रिय है जबकि प्रकृति सक्रिय है | पुरुष अपरिवर्तनशील है परन्तु प्रकृति परिवर्तनशील है |

पुरुष सत्व, रजस् , और तमस् से शून्य है जबकि प्रकृति सत्व, रजस् और तमस्  से अलंकृत है | अतः पुरुष को त्रिगुणातीत और प्रकृति को त्रिगुणमयी माना गया है |

पुरुष अनेक है और प्रकृति एक है | पुरुष ज्ञाता है (knower) और प्रकृति ज्ञान का विषय (object of knowledge) है | पुरुष कार्यकारण से मुक्त है परन्तु प्रकृति कारण है |

पुरुष विवेकी है जबकि प्रकृति अविवेकी है | पुरुष भोक्ता (enjoyer) है, परन्तु प्रकृति भोग्या (object of enjoyment) | पुरुष अपरिणामी नित्य है परन्तु प्रकृति परिणामी नित्य है |

पुरुष अपरिवर्तनशील है परन्तु प्रकृति चंचल और परिवर्तनशील है |

सांख्य के अनुसार प्रकृति केवल जड़ है, बिना पुरुष (चेतन तत्व) के इसमे कोई क्रिया नही हो सकती जबकि पुरुष केवल चेतन है, बिना जड़ माध्यम के वह भी क्रिया नही कर सकता | अतः सृष्टि की रचना हेतु प्रकृति और पुरुष का संयोग अति आवश्यक है |

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सांख्य दर्शन में प्रकृति के विभिन्न नाम

संख्या दर्शन में प्रकृति को प्रकृति के अतिरिक्त निम्न नामो से सम्बोधित किया गया है |

प्रकृति

प्रकृति को प्रकृति इसलिए कहा जाता है क्योकि यह विश्व का मूल कारण है | परन्तु यह स्वयं कारणहीन है | प्रत्येक वस्तु का कारण है परन्तु प्रकृति का कोई कारण नही है | यह आदि कारण है | यह सृष्टी से पूर्व (प्र+कृति) है |

जड़

प्रकृति को जड़ इसलिए कहा जाता है क्योकि वह मूलतः भौतिक पदार्थ है | अचेतन है |

अव्यक्त

प्रकृति को अव्यक्त कहा जाता है | प्रकृति विश्व का आदि कारण है | आदि कारण होने के कारण विश्व के सभी पदार्थ प्रकृति में अव्यक्त रूप से मौजूद रहते है | इसीलिए प्रकृति को अव्यक्त कहा गया है |

प्रधान

प्रकृति को प्रधान कहा जाता है क्योकि यह विश्व का प्रथम मूलभूत कारण है |

यह स्वयं स्वतंत्र है परन्तु प्रथम कारण होने के कारण विश्व की समस्त वस्तुएँ इस पर आश्रित्र है |

ब्रह्मा

प्रकृति को ब्रह्मा कहा जाता है | ब्रह्मा उसे कहा है जिसका विकास हो | प्रकृति का विकास भिन्न भिन्न पदार्थो से होता है और यह स्वयं विकसित होती है | इसलिए इसे ब्रह्मा कहा जाता है |

अजा

प्रकृति को अजा कहते है क्योकि यह अनुत्पन्न है और इसका कोई कारण नही है | यह सम्पूर्ण जड़ जगत् का कारण है परन्तु इसका कोई कारण नही है |

शक्ति

प्रकृति को शक्ति कहा जाता है क्योकि यह सदैव गतिशील रहती है | प्रकृति किसी भी अवस्था में हो निरन्तर गतिशील दिखाई पड़ती है |

अनुमान

प्रकृति को अनुमान कहा जाता है | इसकी सत्ता का ज्ञान प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से न होकर केवल अनुमान से होता है |

माया

प्रकृति को माया कहा जाता है | माया का कार्य वस्तुओ को सीमित करना है | प्रकृति जगत की समस्त वस्तुओ को सीमित करती है, क्योकि यह कारण है और जगत की समस्त वस्तुएं कार्य है |

चूँकि कारण कार्य को सीमित करता है | इसलिए भिन्न भिन्न वस्तुओ को सीमित करने के कारण इसे माया कहा जाता है |

अविद्या

प्रकृति को अविद्या कहा जाता है क्योकि यह ज्ञान की विरोधी है |

सांख्य दर्शन में प्रकृति का स्वरुप

सांख्य विश्व के मूल कारण को जानने के प्रयास में प्रकृति की सत्ता का अनुमान करता है | प्रकृति ही वह तत्व है जिससे संसार की समस्त वस्तुएं विकसित होती है | समस्त विश्व प्रकृति का परिणाम है |

प्रकृति एक है | इसलिए उससे विश्व की व्यवस्था की व्याख्या हो जाती है | विश्व में दो प्रकार की वस्तुएँ दिखाई देती है – स्थूल (Gross) और सूक्ष्म (Subtle) |

भौतिक शरीर, जल, मिट्टी, नदी, वृक्ष, पर्वत आदि विश्व के स्थूल पदार्थ है जबकि मन, बुद्दि, अहंकार, इन्द्रिय आदि विश्व सूक्ष्म पदार्थ है |

विश्व का कारण उसे ही माना जा सकता है जो विश्व के स्थूल और सूक्ष्म दोनों पदार्थो की व्याख्या कर सके |

प्रकृति जड़ होने के साथ साथ सूक्ष्म पदार्थ भी है | इसलिए प्रकृति सम्पूर्ण विश्व, जिसमे स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ है, की व्याख्या करने में समर्थ है | इसीलिए सांख्य ने विश्व का आधार प्रकृति को माना है |

प्रकृति में सत्व, रजस् और तमस् तीन गुण पाए जाते है इसीलिए इसे त्रिगुणमयी कहते है |

ये तीनो गुण प्रकृति में साम्यावस्था अथवा शांतावस्था में रहते है |

इन तीनो गुणों के परस्पर विरोधी स्वभाव के होने के कारण इनमे आपस में संघर्ष होता रहता है तथा शांतावस्था भंग होती रहती है |

लेकिन इन गुणों का प्रत्यक्ष ज्ञान नही होता बल्कि इसका ज्ञान अनुमान के आधार पर होता है |

सत्व, रजस् और तमस्

सत्व

सत्व गुण ज्ञान का प्रतीक है | इसका रंग श्वेत है | सत्व गुण लघु , प्रकाशक और आनन्ददायक होता है | यह सुख और उत्साह का भाव उत्पन्न करता है |

सत्व गुण प्रकाश का प्रतीक है | यह स्वयं प्रकाशपूर्ण है तथा अन्य विषयों को भी प्रकाशित करता है |

इंद्रियों में अपने अपने विषयों को ग्रहण करने की शक्ति इस गुण से आती है | मन एवं बुद्दि इसी गुण के कारण विषयों को समझने में समर्थ होते है |

सत्व के फलस्वरूप ही सूर्य द्वारा संसार को प्रकाशित करने और दर्पण में प्रतिबिम्ब ग्रहण करने की शक्ति आती है | इसका स्वरुप हल्का और लघु होता है |

सभी हल्की वस्तुओ ( धुआ, भाप आदि ) का ऊपर जाना सत्व गुण के कारण ही सम्भव होता है | सभी प्रकार के सुख की अनुभूति जैसे प्रेम , आनन्द , संतोष , हर्ष , तृप्ति आदि सत्व गुण के कारण संभव होती है |

रजस्

रजस् गुण दुखदायक और गतिशील है | इसका रंग लाल है | यह दुःख का गुण है | संसार में सभी दुखो के मूल में यही गुण विद्यमान है |

यह गुण स्वयं गतिशील है तथा अन्य वस्तुओ को भी गतिशील बनाता है | इस प्रकार संसार में गति की व्याख्या इसी गुण के आधार पर संभव है | हवा का बहना, मन का चंचल होना, इन्द्रियों का अपने विषयों की ओर दौड़ना रजस् के ही कारण है |

सत्व और तमस् गुण व्यक्तिगत रूप में निष्क्रिय है | रजस् के प्रभाव में आकर ही वे सक्रिय हो जाते है | यह दुःख का कारण है |

सभी प्रकार की दुखात्मक अनुभूतियाँ जैसे चिन्ता, क्रोध , अशान्ति, असन्तोष, अतृप्ति आदि रजस् गुण के कारण उत्पन्न होती है |

तमस्

तमस् अज्ञान अथवा अन्धकार का प्रतीक है | इसका रंग काला होता है | यह ज्ञान का अवरोध करता है | यह सत्व गुण के विपरीत है |

सत्व हल्का होता है जबकि यह भारी होता है | सत्व ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होता है जबकि यह ज्ञान प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करता है |

यह सत्व और रजस् गुणों की क्रियाओ का विरोध करता है | इसी के कारण उदासीनता का भाव उत्पन्न होता है |

ईर्ष्या , निद्रा , आलस्य , निष्क्रियता का कारण इसी गुण को माना गया है | प्रकृति के उपर्युक्त तीनो गुणों में पारस्परिक विरोध एवं सहयोग दोनों पाए जाते है |

संसार के प्रत्येक पदार्थ में ये गुण कम या ज्यादा मात्रा में विद्यमान है |

जब यहाँ पर यह पूछा जाता है कि तीनो गुण एक दूसरे के विरूद्ध है तो फिर इनका संयोग एक स्थान पर कैसे हो सकता है | तब सांख्य इस प्रश्न का उत्तर एक उपमा के सहारे देता है |

उसके अनुसार सत्व , रजस् और तमस् में उसी प्रकार सहयोग होता है जिस प्रकार दीपक की बाती , तेल ,और आग में होता है |

ये तीनो एक दुसरे के विरोधात्मक है | तेल को बाती सुखाती है और बाती को आग जलाती है | परन्तु इनके सहयोग से प्रकाश का निर्माण होता है |

इसी प्रकार सत्व, रजस् और तमस् आपस में मिलकर वस्तुओ को निर्मित करते है |

सांख्य दर्शन में पुरुष का स्वरुप

सांख्य दर्शन दो तत्वों को स्वीकार करता है | सांख्य के प्रथम तत्व की व्याख्या की जा चुकी है | अब हम दूसरे तत्व पुरुष की बात करते है |

जिस सत्ता को अधिकांश भारतीय दार्शनिको ने आत्मा का नाम दिया है , उसी सत्ता को सांख्य दर्शन ने पुरुष कहा है |

पुरुष सांख्य दर्शन का मुख्य तत्व है | सांख्य ने पुरुष का स्वरुप प्रकृति के सर्वथा विपरीत माना है |

सांख्य के अनुसार पुरुष शुद्ध चैतन्य (pure consciousness) है | यह चैतन्य आत्मा की सभी अवस्थाओ (जाग्रत अवस्था, स्वप्न अवस्था और सुषुप्ता अवस्था) में विद्यमान रहता है |

पुरुष को सांख्य ने निष्क्रिय (passive) और अकर्ता (non-doer) मनाता है, क्योकि वह संसार के कार्यो में योगदान नही देता है |

सांख्य ने पुरुष को अकर्ता मानते हुए भी भोक्ता माना है | वह अकर्ता होकर भी प्रकृति और उसके विकारो का भोक्ता है |

सांख्य पुरुष को अनेक मानता है | जितने जीव (empirical self) है , उतनी ही आत्माएं है | सांख्य पुरुष की अनेकता को सिद्ध करने हेतु कई युक्तियो का सहारा लेता है |

पुरुष में सत्व, रजस् और तमस् गुणों का अभाव है | यह त्रिगुणातीत है | पुरुष ज्ञाता (knower) है, यह अपरिवर्तनशील है, यह नित्य , अनादि एवं अनंत है | यह गुण रहित है क्योकि इसमे सुख, दुःख और उदासीनता के भाव नही पाए जाते |

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