निर्वाण का स्वरुप

Nature of Nirvana in Hindi

निर्वाण का स्वरुप (Nature of Nirvana in Hindi) : बुद्ध ने अपने तीसरे आर्य सत्य में निर्वाण1 की चर्चा की है | बुद्ध के मतानुसार दुःख के कारण है |2 यदि दुःख के कारण का अंत हो जाये तो दुःख का अंत भी अवश्य होगा | कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति कैसे होगी ? दुःखों के अंत की अवस्था ‘दुःख-निरोध’ कहलाती है | बुद्ध ने दुःख-निरोध को निर्वाण  कहा है | ‘निर्वाण’ को पाली में ‘निब्बान’ कहा जाता है | कुछ भारतीय दर्शनों ने जिस परम सत्ता को ‘मोक्ष’3 या ‘कैवल्य’ कहा है, उसी परम सत्ता को महात्मा बुद्ध ने ‘निर्वाण’ (जिसकी स्थिति के विषय में उन्होंने स्पष्ट व सम्यक् रूप से कभी भी कोई व्याख्या नही उपस्थित की) की संज्ञा दी है | चूँकि बुद्ध ने नित्य आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नही किया है, इसलिए ऐसी स्थिति में उनके द्वारा निर्वाण के आदर्श को स्वीकार करना अधिक महत्वपूर्ण है | गौतम बुद्ध के अंतिम शब्द निर्वाण से ही संबंधित थें | ये वचन थें – भिक्षुओं ! अब तुम्हे कहता हूँ – सब संस्कृत धर्म नश्वर है, अप्रमाद के साथ (अमृत निर्वाण) प्राप्त करो |4

बौद्ध दर्शन में निर्वाण को ही जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है | वस्तुतः निर्वाण ही बुद्ध की शिक्षाओं का लक्ष्य है | धम्मपद में निर्वाण को आनंद, चरम-सुख, पूर्ण शांति और घृणा, लोभ व भ्रम से रहित अवस्था कहा गया है |5

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निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त नही है, बल्कि निर्वाण की प्राप्ति इस जीवन में भी सम्भव है | बुद्ध के अनुसार प्रत्येक मानव को अपना निर्वाण स्वयं ही प्राप्त करना है | बुद्ध की भांति मानव इस जीवन में भी अपने दुःखों का निरोध कर निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है | मानव का शरीर उसके पूर्वजन्म के कर्मो का फल होता है, जब तक ये कर्म समाप्त नही होते, शरीर भी समाप्त नही होता है इसलिए निर्वाण-प्राप्ति के बाद भी शरीर विद्यमान रहता है | इस प्रकार निर्वाण का अर्थ जीवन का अंत नही, बल्कि यह एक ऐसी अवस्था है जो जीवन-काल में ही प्राप्य है |

निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है ‘बुझ जाना’ अथवा ‘ठंडा पड़ जाना’ | वस्तुतः हम कह सकते है कि “जब निर्वाण की प्राप्ति होती है तो जीवन से सम्बन्धित सभी दुःखों का अन्त (बुझ जाना) हो जाता है या वे सभी दुःख निष्क्रिय अवस्था (ठंडा पड़ जाना) में आ जाते है और उनका अनुभव पूर्णता समाप्त हो जाता है |”  कहा गया है कि “जिस तरह दीपक में डाले गये तेल के खत्म हो जाने पर दीपक बुझ जाता है या ठण्डा पड़ जाता है उसी तरह दुःखों के समाप्त हो जाने पर ज्ञानी पुरुष शांत हो जाता है, बुझ जाता है या ठण्डा पड़ जाता है |”  वस्तुतः “निर्वाण को एक आनंददायक अवस्था माना जा सकता है, जिसमे शेष जीवन बिना किसी दुःख का अनुभव किये शान्ति के साथ बीतता है, इसमे मृत्यु के बाद पुनर्जन्म का भय समाप्त हो जाता है और इसके साथ ही जन्ममरणचक्र से मुक्ति की सुखद अनुभूति होती है |”

निर्वाण निष्क्रियता या अकर्मण्यता की अवस्था नही है | कुछ लोगों का विचार है कि निर्वाण प्राप्ति के बाद व्यक्ति को कोई कर्म करने की आवश्यकता नही रहती, अतः निर्वाणप्राप्त व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है | लेकिन यह धारणा पूर्णतया गलत है | यह सही है कि निर्वाण प्राप्ति हेतु व्यक्ति को समस्त कर्मों का त्याग कर चार आर्य-सत्यों का निरंतर विचार व मनन करना पड़ता है, लेकिन जब एक बार अखंड समाधि के द्वारा स्थायी रूप से प्रज्ञा की प्राप्ति हो जाती है तब न तो निरंतर समाधि में मग्न रहने की आवश्यकता रहती है और न ही कर्मों से अलग रहने की आवश्यकता रहती है | निर्वाण-प्राप्त व्यक्ति को भी कर्म करना पड़ता है, लेकिन यह कर्म स्वार्थमय न होकर लोक-कल्याण के लिए होता है | स्वयं बुद्ध को भी निर्वाण-प्राप्ति के पश्चात् अकर्मण्य रहने का विचार आया था |6, लेकिन संसार के लोगों को दुःखों से घिरा देखकर उन्होंने अपना यह विचार त्याग दिया | जिस ज्ञानरुपी नौका के सहारे बुद्ध ने दुःखरुपी सागर को पार किया, उसे उन्होंने तोड़ा नही बल्कि अन्य लोगों को भवसागर के पार उतारने हेतु छोड़ दिया | निर्वाण-प्राप्ति के बाद भी करुणा व दया से प्रेरित होकर बुद्ध ने जनकल्याण के लिए स्वयं को सक्रिय रखा और परिभ्रमण, धर्म-प्रचार, संघ-स्थापना आदि कार्य में व्यस्त रहकर अपना जीवन कर्ममय रखा | इस प्रकार निर्वाण को निष्क्रियता या अकर्मण्यता की अवस्था समझना भ्रान्तिमूलक है |

यहाँ पर यह प्रश्न उठता है यदि निर्वाण-प्राप्त व्यक्ति विश्व के कर्मों में भाग लेता है तो किये गये कर्म संस्कार का निर्माण करके उस व्यक्ति को बंधन की अवस्था में क्यों नही बांधते है ? बुद्ध का उपदेश है कि कर्म के दो प्रकार होते है | एक प्रकार का कर्म राग, द्वेष व मोह के कारण होता है और दूसरे प्रकार का कर्म बिना राग, द्वेष व मोह के होता है | प्रथम प्रकार के कर्म को ‘आसक्त कर्म’ कहा जाता है, जो मानव की विषयानुरक्ति की वृद्धि करता है और ऐसे संस्कारों को उत्पन्न करता है जिनके कारण जन्म ग्रहण करना ही पड़ता है | दूसरे प्रकार के कर्म को ‘अनासक्त कर्म’ कहा जाता है | जो व्यक्ति अनासक्त भाव से और संसार को अनित्य समझकर कर्म करता है वह जन्म ग्रहण नही करता है | साधारण तरीके से अगर बीज का वपन किया जाये तो पौधे की उत्पत्ति होगी, लेकिन यदि बीज को भूँज दिया जाये तो उसके वपन से पौधे की उत्पत्ति नही हो सकती है |7 आसक्त कर्म की तुलना बुद्ध ने उत्पादक बीज से की है जिसके वपन से पौधे की उत्पत्ति होती है जबकि अनासक्त कर्म की भूँजे हुए बीज से की है जो पौधे की उत्पत्ति करने में असमर्थ होते है | इस प्रकार राग, द्वेष व मोह से प्रेरित होकर कर्म करने से पुर्नजन्म हो जाता है लेकिन अनासक्त भाव से कर्म करने से जन्म-ग्रहण नही होता | अतः निर्वाण-प्राप्त व्यक्ति को कर्म करने के बावजूद कर्म के फलों से छुटकारा मिल जाता है | पाठकों को बता दे कि बुद्ध की अनासक्त-कर्म-भावना गीता की निष्काम-कर्म-भावना8 से मिलती-जुलती है |

निर्वाण का मुख्य स्वरुप यह है कि वह अवर्णनीय है | इसकी शाब्दिक अभिव्यक्ति सम्भव नही है | विचार व तर्क के माध्यम से इस अवस्था को व्यक्त कर पाना असम्भव है | विख्यात बौद्ध धर्मोपदेशक नागसेन ने भारत-यूनानी शासक मिलिंद के सम्मुख उपमाओं की सहायता से निर्वाण का अवर्ण्य स्वरुप प्रकट किया है | नागसेन ने निर्वाण को समुद्र की तरह गहरा, पर्वत की तरह ऊँचा और मधु की तरह मधुर बताया |9 इसके साथ ही उनका यह भी कहना था कि जिसे निर्वाण का तनिक भी ज्ञान पहले से नही है, उसे इसका ज्ञान उपमाओं व युक्तियों से नही हो सकता है | अंधे को रंग का ज्ञान कराने के लिए युक्ति व उपमा से कुछ भी मदद नही मिल सकती है |

निर्वाण के स्वरुप के विषय में डॉ. दास गुप्ता लिखते है कि “लौकिक अनुभव के रूप में निर्वाण का निर्वचन मुझे एक असाध्य कार्य प्रतीत होता है ……….. यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ सभी लौकिक अनुभव निषिद्ध हो जाते है, इसका विवेचन भावात्मक प्रणाली से शायद ही सम्भव है |”10 डॉ. कीथ का कथन है कि “समस्त व्यावहारिक शब्द अवर्णनीय का वर्णन करने में असमर्थ है |11

स्वयं बुद्ध ने भी निर्वाण संबंधित सभी प्रश्नों को ‘अव्याकृत प्रश्न’ मानते हुए निर्वाण को एक अवर्णनीय अवस्था माना है | बुद्ध एक दृष्टान्त की मदद से समझाते हुए कहते हैं – “जैसे कोई पुरुष गाढ़े लेप वाले विष से युक्त शल्य से बिंध गया हो तथा जब उसका मित्र किसी वैद्य को ले आये, तब वह पुरुष कहे- मैं तब तक इस शल्य को नही निकालने दूंगा जब तक मुझे यह पता नही लग जाये कि किस पुरुष ने मुझे बेंधा है, वह किस जाति का है ? उसका नाम व गोत्र क्या है ? कहाँ रहता है ? इत्यादि, तो भिक्षुओं ! ये बातें तो अज्ञात ही रह जाएँगी तथा वह पुरुष मर जायेगा |12 अतः निर्वाण के स्वरुप और तत्संबंधी अन्य प्रश्नों के विषय में तर्क-वितर्क करना निरर्थक है, बल्कि इसकी प्राप्ति के उपाय में संलग्न होना ही सार्थक है |

इस प्रकार निर्वाण का स्वरुप अवर्णनीय या अनिर्वचनीय है | अतः निर्वाण की जितनी परिभाषायें दी गयी है वें इसके यथार्थ स्वरुप को बतलाने में असफल है |

निर्वाण के लाभ – निर्वाण की प्राप्ति मानव के लिए अनेक प्रकार से लाभदायक होती है | इसके तीन मुख्य लाभ निम्नलिखित है –

1. निर्वाण प्राप्त व्यक्ति को सभी दुःखों से छुटकारा मिल जाता है | निर्वाण दुःखों के समस्त कारणों का अंत कर मानव को दुःखों से मुक्ति दिलाता है |

2. निर्वाण से जन्म-ग्रहण के लिए आवश्यक कारण नष्ट हो जाते है | जन्म-ग्रहण के आवश्यक कारण नष्ट हो जाने से निर्वाण-प्राप्त व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है |

3. निर्वाण से मानव को जीवन-काल में शांति की प्राप्ति हो जाती है | निर्वाण-प्राप्ति के पश्चात् मानव का शेष जीवन पूर्ण शांति के साथ व्यतीत होता है | निर्वाण से प्राप्त होने वाली असीम शांति का अनुभव का वर्णन संभव नही है | सांसारिक सुखों से प्राप्ति शांति की तुलना इससे नही की जा सकती है | यह परम सुख है : निब्बानं परमं सुखम् |  

संदर्भ व टिप्पणी

  1. निर्वाण – यह मुख्यतः बौद्ध दर्शन का शब्द है, किन्तु आस्तिक दर्शनों में उपनिषदों के समय से इसका प्रयोग हुआ है। निर्वाण तथा ब्रह्मनिर्वाण दोनों प्रकार से इसका विवेचन किया गया है । यह आत्मा की वह स्थिति है। जिसमें सम्पूर्ण वेदना, दुःख, मानसिक चिन्ता और संक्षेप में समस्त संसार लुप्त हो जाते हैं । इसमें आत्मतत्त्व की चेतना अथवा सच्चिदानन्द स्वरूप नहीं नष्ट होता, किन्तु उसके दुःखमूलक संकीर्ण व्यक्तित्व का लोप हो जाता है। (हिन्दू धर्मकोश)
  2. दुःख-समुदाय – द्वितीय आर्य सत्य
  3. मोक्ष – किसी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति या छुटकारा | जीवात्मा के लिये संसार बन्धन है । यह कर्म के फलस्वरूप अथवा आसक्ति से उत्पन्न होता है। शुभ व अशुभ दोनों प्रकार के कर्म बन्धन उत्पन्न करते हैं । अतः मोक्ष का साधन कर्म नहीं है | इसका उपाय है ज्ञान या विद्या (अध्यात्म विद्या) । साधक को जब सत्य का ज्ञान हो जाता है कि उसके और विश्वात्मा के बीच अभेद है, विश्वात्मा अर्थात् परब्रह्म ही एक मात्र सत्ता है; संसार कल्पित, मायिक और मिथ्या है; संसार में सुख-दुःख, जन्म-मरण भी कल्पित और मिथ्या है, तब उसके ऊपर कर्म-फल और संसार का प्रभाव नहीं पड़ता और वह इनके बन्धनों से मुक्त हो जाता है । परन्तु यह निषेधात्मक स्थिति न होकर विशुद्ध और पूर्ण आनन्द की स्थिति है । भक्तिमार्गी सम्प्रदायों में भक्ति द्वारा प्रसन्न भगवान् के प्रसाद से मुक्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति स्वीकार की गयी है जिसमे नित्य भगवान् की अत्यंत सन्निधि प्राप्त होती है | (हिन्दू धर्मकोश)
  4. दीघनिकाय, महापरिनिब्बानसुत्त |
  5. निब्बानं परमं सुखम् |
  6. मज्झिम निकाय |
  7. अंगुत्तर निकाय |
  8. निष्काम कर्म – मोक्ष की प्राप्ति के लिए भागवत धर्म में और विशेषकर भगवद्गीता में निष्काम कर्म का आदेश है । इसमें फल की इच्छा के बिना कर्म किया जाता है तथा उपास्यदेव के चरणों में कर्म को समर्पित किया जाता है । देवता इसे ग्रहण करता है तथा अपनी स्वर्गीय प्रकृति को उसके फल के रूप में देता है । फिर देवता उपासक अथवा कर्म करनेवाले के हृदय में प्रवेश करता है तथा भक्ति के गुणों को जन्म देता है और अन्त में मोक्ष प्रदान करता है । निष्काम कर्म के पीछे दार्शनिक विचार यह है कि कर्म के फल-शुभाशुभ के अनुसार मनुष्य संसारचक्र अथवा आवागमन में फँसता है । इसलिए जब तक कर्म से छुटकारा नहीं मिलता तब तक मुक्ति सम्भव नहीं । अब प्रश्न यह उठता है कि यह छुटकारा कैसे मिले । एक मार्ग यह है कि कर्म का पूरा परित्याग करके संसार से संन्यास ले लेना चाहिए । इसका अर्थ है अक्षरशः नैष्कर्म्य का पालन । परन्तु गीता में कहा गया है कि ऐसा करना सम्भव नहीं । जब तक मनुष्य शरीरधारण करता है तब तक वह कर्म से मुक्त नहीं हो सकता । इसलिए सांख्य दर्शन के अनुसार उसे यह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा होता है, पुरुष के ऊपर कर्म का आरोप मिथ्या तथा भ्रममूलक है । जब यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता । जिस प्रकार भुने हुए चने से फिर पौधा नहीं उत्पन्न होता वैसे ही सांख्यबुद्धि से कर्मफल उत्पन्न नहीं होता । परन्तु यह मार्ग सरल नहीं है । अतएव भक्तिमार्ग में, विशेषकर भागवत सम्प्रदाय में, यह बताया गया है कि कर्म को भगवत्प्रीत्यर्थ करना चाहिए और फल की निजी कामना न करके उसे भगवान् के चरणों में अर्पित कर देना चाहिए । इस प्रकार कृष्णार्पणबुद्धि से कर्म करने से मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता । (हिन्दू धर्मकोश)
  9. मिलिन्दपञ्ह |
  10. A History of Indian Philosophy – Vol. 1
  11. बुद्धिस्टिक फिलॉसफी – डॉ कीथ |
  12. मज्झिमनिकाय, चूलमालुक्तसुत्त |