पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य

पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य के अंतर्गत मुख्य रूप से उत्कीर्ण लेख (अभिलेख), सिक्के (मुद्रायें), पुरातत्वीय स्मारक, भवन, मूर्तियाँ, चित्रकला इत्यादि आते है |

इस लेख में हम प्राचीन भारत के इतिहास के अंतर्गत इतिहास जानने के साधन के रूप में पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य (स्रोत) का अध्ययन करेंगें | यह लेख इतिहास विशेषज्ञ डॉ. के. के. भारती द्वारा लिखा गया है | पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य (Puratatva Sambandhi Sakshya) का यह लेख यूपीएससी परीक्षा (प्रारम्भिक और मुख्य) के लिए अत्यंत उपयोगी है |

प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के साधन को हम निम्नलिखित तीन शीर्षकों में विभाजित कर सकते है –

  1. साहित्यिक स्रोत (साक्ष्य)
  2. विदेशी यात्रियों के विवरण
  3. पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य (स्रोत)

प्राचीन भारत के साहित्यिक स्रोत और विदेशी यात्रियों के विवरण पर विस्तृत लेख हम पहले ही आपको उपलब्ध करा चुके है | इस लेख में हम प्राचीन भारत के पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य (स्रोत) पर चर्चा करेंगें |

पुरातत्व का अर्थ और परिभाषा

पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य (Puratatva Sambandhi Sakshya) को जानने से पहले हम जानेंगें कि पुरातत्व का अर्थ क्या है ?

जिस विज्ञान के आधार पर पुराने टीलों का क्रमिक स्तरों में विधिवत् उत्खनन किया जाता है और प्राचीन काल के व्यक्तियों के भौतिक जीवन के विषय में जानकारी प्राप्त होती है उसे हम पुरातत्व (Archaeology) कहते है |

दूसरे शब्दों में,

पुरातत्व (आर्कियोलॉजी) वह विज्ञान है जिसके द्वारा पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई वस्तुओं की खुदाई कर प्राचीन काल के व्यक्तियों के भौतिक जीवन के विषय में जानकारी प्राप्त की जाती है |

पुरातत्व शब्द पुरा और तत्व से मिलकर बना है | यहाँ संस्कृत शब्द पुरा का शाब्दिक अर्थ प्राचीन (पुराना) और तत्व का अर्थ है वस्तु | इसप्रकार पुरातन का अर्थ है प्राचीन वस्तु या पुरानी वस्तु |

पुरातत्व को अंग्रेजी भाषा में आर्कियोलॉजी (Archaeology) कहते है | आर्कियोलॉजी (Archaeology) शब्द यूनानी भाषा के दो शब्दों आर्कियोस (Archaious) और लोगोस (Logos) से मिलकर बना है | यहाँ आर्कियोस (Archaious) का शाब्दिक अर्थ है प्राचीन (Ancient) अथवा पुरातन और लोगोस (Logos) का अर्थ ज्ञान (Knowledge) होता है | इसप्रकार आर्कियोलॉजी (Archaeology) शब्द का अर्थ हुआ ‘प्राचीन ज्ञान या पुरातन ज्ञान (Ancient Knowledge) |

कालान्तर में पुरातत्व पुरा-अवशेषों का अध्ययन मात्र न रहकर मानव के अतीत के अध्ययन के रूप में स्थापित हुआ |

पुरातत्व की परिभाषाएं विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार से दी है –

डॉ. सांकलिया के अनुसार ‘पुरा अवशेषों का अध्ययन ही पुरातत्व है |’

जबकि अमेरिकी पुराविद् ग्राहम क्लार्क ने लिखा है कि ‘पुरा अवशेषों के क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित अध्ययन से मानव इतिहास की संरचना ही पुरातत्व है |’

एम. के. श्रीवास्तव ने पुरातत्व की परिभाषा इस प्रकार दी है – ‘एक लम्बी अवधि से प्रकृति और जलवायु में सुरक्षित मानव के विभिन्न उपकरणों, हथियारों और अन्य उपयोगी सामग्रियों के आधार पर मानव के अतीत के विभिन्न भागों के विकास का वैज्ञानिक अध्ययन ही पुरातत्व है |’

पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य | Puratatva Sambandhi Sakshya

भारत के अतीत के पुनर्निर्माण हेतु पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्यों का उपयोग करना मात्र दो शताब्दी पूर्व ही आरंभ हुआ था | पुरातत्व सम्बन्धी स्रोत अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय होते है क्योकि साहित्यिक ग्रंथो की तरह इनमे इच्छानुसार हेर-फेर करने की सम्भावना बहुत कम होती है |

पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य (पुरातत्वीय स्रोत) न केवल मानव के अतीत के विषय में हमारे ज्ञान की अनुपूर्ति करते है, साथ ही इनसे हमें कुछ ऐसी सामग्री प्राप्त हुई है, जो हमें अन्य किसी स्रोत से नही मिल सकती थी |

पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य (Puratatva Sambandhi Sakshya) में पुराने टीलों का क्रमिक स्तरों में विधिवत् उत्खनन किया जाता है | टीला पृथ्वी की सतह के उस उभरे हुए हिस्से को कहते है, जिसके नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष ढके रहते है |

टीले कई प्रकार के होते है जैसे एक संस्कृतिक टीले, मुख्यसंस्कृतिक टीले और बहुसंस्कृतिक टीले |

एक संस्कृतिक टीले

एक संस्कृतिक टीलों में सभी जगह एक ही संस्कृति दिखाई देती है | इनमे कुछ टीले मात्र चित्रित धूसर मृदभांड (पी.जी.डब्ल्यू.) संस्कृति के द्योतक है, कुछ सातवाहन संस्कृति के और कुछ कुषाण संस्कृति के |

आपको बता दें कि चित्रित धूसर मृदभांड (पी.जी.डब्ल्यू.) स्थल उन्हें कहते है जहाँ के निवासी मिट्टी के चित्रित व भूरे रंग के कटोरों व थालियों का उपयोग करते थें | वें लोहे के हथियारों का भी प्रयोग करते थें |

मुख्यसंस्कृतिक टीले

मुख्य-संस्कृतिक टीलों में एक संस्कृति मुख्य (प्रधान) रहती है तथा अन्य संस्कृतियाँ (जो पूर्व काल की भी हो सकती है और उत्तर काल की भी) विशेष महत्व की नही होती है |

बहुसंस्कृतिक टीले

बहु-संस्कृतिक टीलों में उत्तरोत्तर अनेक संस्कृतियाँ प्राप्त होती है, जो कभी-कभी एक दूसरी से अंशतः संकीर्ण भी प्राप्त होती है |

टीले की खुदाई दो प्रकार से की जा सकती है – एक लम्ब रूप में अथवा दूसरा क्षैतिज रूप में |

लम्बरूप उत्खनन का अर्थ है लम्बालम्बी खुदाई करना जिससे कि विभिन्न संस्कृतियों का कालक्रमिक सिलसिला उद्घाटित हो | परन्तु यह सामान्यतः स्थल के कुछ भाग में ही सीमित रहता है |

जबकि क्षैतिज उत्खनन का अर्थ है सम्पूर्ण टीले की अथवा उसके बृहत भाग की खुदाई | इस तरह की खुदाई से हम उस स्थल की काल विशेष की संस्कृति का पूर्ण झलक पा सकते है | लेकिन क्षैतिज खुदाईयां खर्चीली होने की वजह से बहुत कम की गई है |

खुदाई और अन्वेषण के परिणामस्वरूप प्राप्त भौतिक अवशेषों का भिन्न-भिन्न प्रकार से वैज्ञानिक परीक्षण किया जाता है |

उत्खनन से प्राप्त भौतिक अवशेषों का काल निर्धारण ‘रेडियो कार्बन विधि’ द्वारा किया जा सकता है | रेडियो कार्बन विधि काल निर्धारण की एक विधि है | इस विधि से यह पता लगाया जाता है कि वे भौतिक अवशेष किस काल के है |

पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य (Puratatva Sambandhi Sakshya)

पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य या पुरातत्त्वीय स्रोत के अंतर्गत निम्नलिखित साक्ष्य आते है –

  1. उत्कीर्ण लेख (अभिलेख)
  2. सिक्के (मुद्रायें)
  3. पुरातत्त्वीय स्मारक, उत्खनन व अन्वेषण
  4. चित्रकला

उत्कीर्ण लेख (अभिलेख)

पुरातत्व सम्बन्धी स्रोतों के अंतर्गत सबसे अधिक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय स्रोत उत्कीर्ण लेख या अभिलेख है | अभिलेख के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्रेफी) कहा जाता है और इनकी तथा अन्य पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र कहते है |

उत्कीर्ण लेखों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यें क्षेपकों से मुक्त होते है क्योकि यें समकालीन अभिलेख (रिकॉर्ड) होते है और इनमे कुछ जोड़ा या हटाया नही जा सकता है | ये हमें उसी रूप में उपलब्ध होते है. जिस रूप में इन्हे पहली बार उत्कीर्ण किया गया था |

लेकिन यह बात भोज-पत्रों, ताड़-पत्रों आदि पर उत्कीर्ण किये गये लेखों के लिए नही कही जा सकती क्योकि इनकी जर्जर या खराब होने वाली अवस्था में इनकी नकल बार-बार तैयार करने की आवश्यकता पड़ती थी | स्वाभाविक है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी नकल किये जाने पर इनमे परिवर्तन हो जाता होगा |

उत्कीर्ण लेख (अभिलेख) मुहरो, चट्टानों, स्तूपों, प्रस्तरस्तम्भों, ताम्रपत्रों, ईटो, मन्दिर की दीवारों आदि पर मिलते है |

अभिलेखों के अनेक प्रकार है |

पहले प्रकार के अभिलेखों में अधिकारियो और जनता हेतु जारी किये गये धार्मिक, सामाजिक और प्राशासनिक राज्यादेश एवं निर्णयों की सूचनाएं है , उदाहरणार्थ अशोक के शिलालेख |

दूसरे प्रकार में वे आनुष्ठानिक अभिलेख आते है जिन्हें बौद्ध धर्म, जैन धर्म, शैव धर्म, वैष्णव धर्म आदि के अनुयायियों ने मन्दिरों, मूर्तियों, स्तम्भों, प्रस्तरफलकों आदि पर उत्कीर्ण करवाया था |

तीसरे प्रकार में वे प्रशस्तियां आती है जिनमे राजाओ और विजेताओं के कीर्तियों का वर्णन होता है | इन सब के आलावा बहुत सारे ऐसे दान-पत्र मिले है जिनमे राजाओ, राजपरिवार के सदस्यों, शिल्पियों आदि के द्वारा दिए गये दानो (मुद्रा, भूमि आदि) का उल्लेख मिलता है |

सबसे पुराने अभिलेख हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त मुहरो (सील) पर पाए जाते है | ये लगभग 2500 ई.पू. के है | इन्हे पढ़ने में हमे अभी तक सफलता नही प्राप्त हुई है | विद्वानों के अनुसार ये सम्भवतः ऐसी किसी भावचित्रात्मक लिपि में लिखे गए है जिसमे विचारो एवं वस्तुओं को चित्रों के रूप में व्यक्त किया जाता था |

मौर्य सम्राट अशोक के शिलालेख सबसे पुराने अभिलेख है जो पढ़ें जा चुके है | अशोक के शिलालेख चार लिपियों में मिलते है | 1. ब्राह्मी, 2. खरोष्ठी, 3. अरामाइक, 4. यूनानी |

अशोक ने अफगानिस्तान में अपने शिलालेखों में अरामाइक और यूनानी लिपियों का प्रयोग किया, जबकि उसने पाकिस्तान में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया था | शेष साम्राज्य में अशोक ने अपने शिलालेखों में ब्राह्मी लिपि का उपयोग किया था |

ब्राह्मी लिपि बाई ओर से दाई ओर लिखी जाती थी | खरोष्ठी लिपि दाई ओर से बाई ओर लिखी जाती थी |

गुप्तकाल के अन्त तक देश की प्रमुख लिपि ब्राह्मी लिपि ही रही | ब्राह्मी लिपि से ही भारत की हिन्दी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, मराठी आदि सभी भाषाओं की लिपियों का विकास हुआ है |

अशोक के शिलालेखो को पढ़ने का प्रयास फिरोजशाह तुगलक़ ने किया था | उसने एक स्तम्भलेख मेरठ से तथा दूसरा स्तम्भलेख टोपरा (हरियाणा) से दिल्ली मंगवाकर उन्हें राज्य के विद्वानों से पढ़वाने का प्रयास किया था लेकिन वह असफल रहा था |

अशोक के अभिलेखों को सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिन्सेप ने पढ़ा था, जो उस समय बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी में उच्च अधिकारी थे | इस महान कार्य में जेम्स प्रिन्सेप के एक सहयोगी अलेक्जेण्डर कनिंघम थे, जिन्हें भारतीय पुरातत्व विभाग का जन्मदाता कहा जाता है |

अशोक के शिलालेख को राज्यादेश अथवा शासनादेश कहा जाता है क्योकि उन्हें राजा के आदेशो या राजा की इच्छा के रूप में साम्राज्य की प्रजा हेतु प्रस्तुत किया गया था |

इतिहासकार देवदत्त रामकृष्ण भण्डारकर ने केवल अशोक के अभिलेखों के आधार पर ही उसका इतिहास लिखा है |

समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख, जो अशोक के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है, में उसकी विजयो विवरण मिलता है |

विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखा गया सबसे पहला अभिलेख शक शासक रुद्रदामन प्रथम (130-150 ई.) का जूनागढ़ अभिलेख है | इसके पहले के सभी लम्बे अभिलेख प्राकृत भाषा में ही पाए गये है |

चालुक्य वंश के शासक पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल शिलालेख में उसकी वंशावली और उपलब्धियों का वर्णन मिलता है |

प्रतिहार शासक भोज ने अपने ग्वालियर अभिलेख में अपने पूर्वजो और उनकी उपलब्धियों की जानकारी दी है |

अन्य महत्वपूर्ण अभिलेख है – कलिंग शासक खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, स्कन्दगुप्त का भीतरी स्तम्भ लेख, गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेख, सातवाहन राजा पुलुमावी का नासिक गुहलेख, यवन राजदूत हेलियोडोरस का वेसनगर (विदिशा) गरुड़-स्तम्भ लेख आदि |

एशिया माइनर (इसे अब तुर्की कहते है) से प्राप्त बोगजकोई अभिलेख से भी भारतीय इतिहास पर प्रकाश पड़ता है | यह लगभग 1400 ई.पू. का है |

बोगजकोई अभिलेख में हित्ती राजा सप्पिलुल्युमा तथा मित्तनी राजा मतिवजा के बीच हुई संधि का वर्णन है तथा इस सन्धि के साक्षी के रूप में वैदिक देवता इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य (अश्विनी कुमार) के नाम का उल्लेख है |

सिक्कें (मुद्रायें)

सिक्कों (मुद्राओं) के लिए इस लेख को देखें – प्राचीन भारत में सिक्कों का इतिहास

पुरातत्त्वीय स्मारक, उत्खनन व अन्वेषण

पुरातत्त्वीय स्मारक में प्राचीन भवन, मंदिर, मूर्तियाँ आदि आते है | इनसे हमे विभिन्न कालों की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है | इनके अध्ययन से भारतीयों के स्थापत्य एवं उनकी कला के इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है | प्राचीन भवनों, मन्दिरों व मूर्तियों से हमें वास्तुकला के विकास के अध्ययन में अत्यधिक मदद मिलती है | मन्दिरों, स्तूपों व विहारों से तत्कालीन धार्मिक विश्वासों का बोध होता है |

सम्पूर्ण भारत में गुप्त काल से लेकर वर्तमान तक मंदिर व मूर्तियाँ प्राप्त होती है | पश्चिमी भारत की पहाड़ियों में विशाल गुफाओं को खोदकर मुख्यतः चैत्य व विहार बनाये गये थें | चट्टानों को बाहर से काटकर बड़े-बड़े मन्दिर निर्मित किये गये | इस प्रकार के मंदिरों में एलोरा का कैलाश मंदिर और मामल्लपुरम का रथ प्रमुख है |

भारत के अलावा दक्षिण-पूर्व एशिया और मध्य एशिया के कई द्वीपों से भारतीय संस्कृति से संबंधित स्मारक प्राप्त होते है | इनमे प्रमुख रूप से जावा का बोरोबुदुर स्तूप और कंबोडिया का अंकोरवाट मंदिर उल्लेखनीय है | बोरोबुदुर स्तूप इस बात का प्रमाण है कि नवीं शताब्दी में वहां महायान बौद्ध धर्म अत्यधिक लोकप्रिय हो चुका था | इसी तरह मलाया, बाली, बोर्नियों इत्यादि में भारतीय संस्कृति से संबंधित अनेक स्मारक मिलते हैं |

कुषाण, गुप्त और गुप्तोत्तर काल में बनी मूर्तियों से हमें तत्कालीन लोगों की धार्मिक आस्थाओं व मूर्तिकला के विभिन्न विकास का ज्ञान होता हैं | कुषाण काल में हम मूर्तिकला में विदेशी प्रभाव देखते है | कनिष्क के शासनकाल में गांधार शैली का विकास हुआ, जो बुद्ध के जीवन व कार्यों की सजीव व्याख्या करती है | कला की दृष्टि से गुप्तकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल माना जाता है | इस काल में मूर्तिकार मूर्तिकला के मर्मज्ञ थें | कुषाणकाल की मूर्तियों में शरीर के सौन्दर्य का जो रूप था उसके विपरीत इस काल की मूर्तियों में नग्नता नही दिखाई देती है | स्त्रियों की मूर्तियाँ परिधानयुक्त है | शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरुप की मूर्तियों का निर्माण सर्वप्रथम इसी काल में हुआ | यद्यपि गुप्तोत्तर में मूर्तिकला की उन्नति रूक सी गयी लेकिन फिर भी इस काल में अनेकों मूर्तियों का निर्माण हुआ था | इस काल के प्रमुख मूर्तिकला केंद्र सारनाथ, बाघ, एलोरा, वैशाली, एलीफेंटा, अजंता इत्यादि थें |

उत्खनन में बहुत बड़ी मात्रा में पत्थर, पकी मिट्टी और धातुओं की आकृतियाँ प्राप्त हुई है, जिनसे हमें उस काल की कलात्मक क्रियाकलापों की जानकारी मिलती है | विभिन्न बस्तियों के स्थलों के उत्खनन से जो अवशेष प्राप्त हुए है उनसे प्रागैतिहासिक व आद्य ऐतिहासिक काल पर बहुत प्रभाव पड़ा है |

हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की खुदाइयों से पांच सहस्र वर्ष पुरानी नगरीय सभ्यता (हड़प्पा सभ्यता) का पता चला | लोथल, दैमाबाद, राखीगढ़ी, कालीबंगन, रोपड़, आलमगीरपुर, इत्यादि स्थानों के उत्खननों से हड़प्पा सभ्यता का प्रसार गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश तक होने की जानकारी मिली है | इस सभ्यता से प्राप्त मुहरों ने यहाँ के लोगों के धार्मिक विश्वासों पर प्रकाश डाला है |

अतरंजीखेड़ा (उत्तर प्रदेश) आदि के उत्खनन से पता चलता है कि भारत में लोहे का प्रयोग ईसा पूर्व 1000 के लगभग आरम्भ हो गया था | पुरातत्त्वीय उत्खननों से वैशाली, तक्षशिला, कौशाम्बी, बोधगया, अयोध्या, काशी (राजघाट) इत्यादि बुद्धकालीन नगर प्रकाश में आये |

चित्रकला

भारतीय चित्रकला का इतिहास अत्यंत प्राचीन है | चित्रकला से हमें तत्कालीन जीवन की विभिन्न झलक देखने को मिलती है | इसके माध्यम पाषाणकालीन मानव अपनी अनुभूति, दैनिक अनुभव और मनोभाव को पाषाण खण्डों पर चित्रित किया करते थें | पुरातत्त्वीय खोजों से यह जानकारी प्राप्त होती है कि हमारे देश में शैल चित्रकला की परम्परा बारह हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन है |

समय के साथ भारत की विशाल भूमि पर अनेक स्थानीय और प्रांतीय चित्रकला शैलियों का उद्भव व विकास हुआ | प्रत्येक चित्रकला शैली की अपनी पृथक-पृथक विशेषताएं है | अजंता शैली चित्रकला की उत्तम अवस्था को दर्शाती है | इस शैली का विकास शुंग, कुषाण, गुप्त, वाकाटक और चालुक्य वंश के शासकों के काल में हुआ |

इस प्रकार हम ‘भारतीय साहित्य’, ‘विदेशी यात्रियों के विवरण’ और ‘पुरातत्त्व’ के सम्मिलित साक्ष्य के आधार पर भारत के प्राचीन इतिहास का पुनर्निर्माण कर सकते है |

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