वर्धमान महावीर स्वामी और जैन धर्म का इतिहास

Vardhman Mahavir Swami Aur Jain Dharm Ka Itihas

वर्धमान महावीर स्वामी और जैन धर्म का इतिहास (Vardhman Mahavir Swami Aur Jain Dharm Ka Itihas) History of Vardhman Mahavir Swami and Jainism : भारत के प्राचीन इतिहास में छठी शताब्दी ईसा पूर्व का काल भारतीय धर्म व संस्कृति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण काल था | हमें इस काल में लगभग 62 धार्मिक सम्प्रदायों की जानकारी मिलती है | इन सभी सम्प्रदायों में सर्वाधिक प्रभावशाली सम्प्रदाय (धर्म) जैन और बौद्ध थे | इनका उत्थान शक्तिशाली धार्मिक सुधार आंदोलनों के रूप में हुआ |

जैन और बौद्ध धर्म के उदय के कई कारण थें जैसे वर्णव्यवस्था की जटिलता, तनावपूर्ण व भेदभावपूर्ण सामाजिक जीवन, तत्कालीन धार्मिक जीवन के प्रति लोगों में बढ़ता असंतोष, नई धार्मिक विचारधारा का जन्म, नई अर्थव्यवस्था का प्रभाव आदि |

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वर्धमान महावीर स्वामी और जैन धर्म का इतिहास

महावीर स्वामी और जैन धर्म Mahavira Swami and Jainism | जैन धर्म के धर्मोपदेशक ‘तीर्थंकर’ या ‘जिन’ कहलाते है | ‘जैन’ शब्द की उत्पत्ति ‘जिन’ शब्द से हुई है | ‘जिन’ शब्द संस्कृत की ‘जि’ धातु से बना है, ‘जि’ अर्थ है – ‘जीतना’, इसप्रकार ‘जिन’ का अर्थ हुआ ‘विजेता’ या ‘जीतने वाला’ और जैन धर्म का अर्थ हुआ ‘विजेताओं का धर्म’ | जैन धर्म के अनुसार ‘जिन’ वे है जिन्होंने अपने निम्नकोटि के स्वाभाव या मनोवेगों पर विजय प्राप्त करके स्वयं को वश में कर लिया हो |

दूसरे शब्दों में ‘जिन’ वे है जिन्होंने समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है | जिन के अनुयायी जैन कहलाते है | तीर्थंकर का अर्थ है मोक्ष मार्ग के संस्थापक |

जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता है जिनके नाम इस प्रकार है – 1.ऋषभदेव (आदिनाथ), 2.अजितनाथ, 3.सम्भवनाथ, 4.अभिनन्दन, 5.सुमतिनाथ, 6.पद्मप्रभ, 7.सुपार्श्वनाथ, 8.चन्द्रप्रभ, 9.पुष्पदंत (सुविधि), 10.शीतलनाथ, 11.श्रेयांसनाथ, 12.वासुपूज्य, 13.विमलनाथ, 14.अनन्तनाथ, 15.धर्मनाथ, 16. शांतिनाथ, 17.कुन्थुनाथ, 18.अरहनाथ, 19.मल्लिनाथ (ये महिला तीर्थंकर थी), 20 मुनि सुब्रत, 21. नमिनाथ, 22.अरिष्टनेमि (नेमिनाथ), 23.पार्श्वनाथ और 24.वर्धमान (महावीर स्वामी |

इन सभी तीर्थंकरों में केवल तेइसवें और चौबीसवें तीर्थंकर की ही ऐतिहासिकता सिद्ध हो पाती है |

जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे | इनके पिता काशी (वाराणसी) के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अश्वसेन, माता रानी वामा देवी और पत्नी प्रभावती थी | ये तीस वर्ष की आयु में गृहस्थ जीवन त्यागकर सम्मेद पर्वत पर तपस्या करने चले गये थे |

अपने कठोर तप द्वारा इन्होने “कैवल्य” (“केवल” या परम-ज्ञान) प्राप्त करके जीवनपर्यन्त जनमानस को धर्मोपदेश देते रहे | इनके अनुयायी ‘निर्ग्रन्थ’ कहलाते थे |[बाद में महावीर स्वामी द्वारा स्थापित संघ के सदस्यों को निर्ग्रन्थ कहा गया |] ‘चातुर्याम’ (चार याम अर्थात् उपाय) इनकी शिक्षाओं के चार प्रमुख अंग माने जाते है |

चातुर्याम में अहिंसा (जीव हिंसा न करना), सत्य (असत्य न बोलना), अस्तेय (चोरी न करना) व अपरिग्रह (सम्पत्ति अर्जित न करना) की शिक्षायें आती है |[बाद में महावीर स्वामी ने इसमे ‘ब्रह्मचर्य’ जोड़ दिया और इन्हे पंचमहाव्रत कहा गया |] 

चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म 540 ई.पू. में वैशाली के पास कुण्डग्राम में हुआ था | (कुछ विद्वान महावीर स्वामी की जन्म तिथि 599 ई.पू. और मृत्यु तिथि 527 ई.पू. मानते है |)

इनके बचपन का नाम वर्द्धमान था | इनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृ नामक क्षत्रियकुल के प्रधान और माता त्रिशला, बिम्बिसार के ससुर लिच्छवी राजा चेटक की बहन थी |

इनकी पत्नी का नाम यशोदा था और पुत्री अणोज्जा (प्रियदर्शना) का विवाह जामालि से हुआ था | महावीर स्वामी के ज्ञातृ कुल में उत्पन्न होने के कारण बौद्ध निकाय में इन्हे ‘निगण्ठ नातपुत्त’ (निर्ग्रन्थ ज्ञातृ-पुत्र) कहा गया है |

जामालि प्रारम्भ में महावीर स्वामी का शिष्य बना लेकिन मतभेद के कारण उसने ही उनके खिलाफ पहला विद्रोह किया था तथा स्वयं को ‘जिन’ घोषित कर दिया था | एक अन्य विद्रोह उनके शिष्य मंखलिपुत्र गोशाल ने किया था तथा इनसे अलग होकर उसने आजीवक धर्म की स्थापना करके स्वयं को ‘जिन’ घोषित कर दिया था |

इन्होनें तीस वर्ष तक सुखी गृहस्थ जीवन बिताया तथा माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् बड़े भाई नन्दिवर्द्धन से आज्ञा लेकर यती (संन्यासी) हो गये | बारह वर्ष की अत्यन्त कठोर तपस्या के बाद बयालीस वर्ष की आयु में जृम्भिकग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे एक शाल वृक्ष के नीचे “कैवल्य” (“केवल” या मोक्ष या परम-ज्ञान) की प्राप्ति हुई |

कैवल्य प्राप्ति के बाद वे ‘महावीर’ (The Great Spiritual Hero) ‘केवलिन’, ‘जिन’ (विजेता, जिसने अपनी इन्द्रियों को विजित कर लिया हो), ‘अर्हत’ (योग्य) और ‘निर्ग्रन्थ’ (बन्धन-रहित) कहलाये |

कहा जाता है कि अपनी बारह वर्ष की घोर तपस्या के दौरान उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नही बदले और कैवल्य-प्राप्ति के बाद उन्होंने वस्त्र का पूर्ण त्याग कर दिया |

पार्श्वनाथ ने अपने अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगों को वस्त्र से ढकने की अनुमति दी थी, परन्तु महावीर स्वामी ने अपने अनुयायियों को वस्त्र के पूर्णतः त्याग का आदेश दिया था |

महावीर स्वामी के अनुयायी ‘जैन’ कहलाते है | कैवल्य-प्राप्ति के पश्चात् महावीर स्वामी जीवनपर्यन्त अपने सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करते रहे | उनका निर्वाण (मृत्यु) 468 ई.पू. में बहत्तर वर्ष की आयु में राजगीर के समीप पावापुरी में हुआ था |

वर्तमान में जैन धर्म और दर्शन का जो रूप विद्यमान है, उसके प्रवर्तन का प्रमुख श्रेय महावीर स्वामी को ही है | जैन धर्म मुख्यतः महावीर स्वामी के उपदेशों पर ही आधारित है |

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