मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

Maurya Samrajya Ke Patan Ke Karan

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण (Maurya Samrajya Ke Patan Ke Karan) : विद्यादूत की इतिहास केटेगरी में आज हम मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण (Reasons for the decline of the Maurya Empire in hindi) पर चर्चा करेंगें | चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा संस्थापित मौर्य साम्राज्य निरंतर युद्ध करके प्रबल और विशाल होता गया, जिसकी चरम परिणति कलिंग विजय थी | लेकिन मौर्य साम्राज्य के सबसे महान शासक अशोक की मृत्यु के पश्चात् आधी शताब्दी के अंदर ही मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया | 184 ई.पू. के लगभग अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ ही हत्या उसके ही सेनापति पुष्यमित्र द्वारा किये जाने से मौर्यों के विशाल साम्राज्य का अंत हो गया |

अल्प समय में विशाल मौर्य साम्राज्य के पतन का कोई एक स्पष्ट कारण नही हो सकता है, बल्कि विभिन्न कारणों ने इस दिशा में योगदान दिया |

लगभग 50 वर्षों के भीतर एक शक्तिशाली और बड़े साम्राज्य का अंत होना एक ऐसी घटना है कि इसके पतन के कारणों की जिज्ञासा इतिहासकारों में स्वाभाविक ही है |

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण (Maurya Samrajya Ke Patan Ke Karan)

विभिन्न इतिहासकारों ने मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए अपने-अपने विचार व्यक्त किये है, लेकिन ये विचार परस्पर-विरोधी है | मौर्य साम्राज्य के पतन के कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित है –

  1. अशोक की नीति और ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया
  2. मौर्य साम्राज्य का विभाजन
  3. अयोग्य और शक्तिहीन परवर्ती शासक
  4. अत्यधिक केन्द्रीभूत प्रशासन
  5. राष्ट्रीय एकता का अभाव
  6. प्रांतीय शासकों का दमनकारी शासन
  7. वित्तीय संकट

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मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण (Maurya Samrajya Ke Patan Ke Karan)

अब हम विस्तार से विशाल और सुदृढ़ मौर्य साम्राज्य के पतन के कुछ अत्यंत स्पष्ट और कुछ अन्य विवादास्पद कारणों की चर्चा करेंगे |

अशोक की नीति और ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया

कुछ विद्वानों ने अशोक की नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना है | इन विद्वानों के दो तर्क है | पहले तर्क के अनुसार पुष्यमित्र शुंग का विद्रोह अशोक की बौद्ध धर्म के प्रति पक्षपातपूर्ण नीति तथा उसके उत्तराधिकारियों की जैन धर्म के प्रति पक्षपातपूर्ण नीति के विरोध में ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया का परिणाम था | दूसरे तर्क के अनुसार अशोक की शांति व अहिंसा की नीति मौर्य साम्राज्य की शक्ति क्षीण करने के लिय उत्तरदायी थी |

महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने मौर्य साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण अशोक की धार्मिक नीति को बताया है | शास्त्री का मानना है कि अशोक की धार्मिक नीति बौद्धों के पक्ष में थी और यह ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों और उनकी सामाजिक श्रेष्ठता की स्थिति पर प्रहार करती थी | अतः अशोक की धार्मिक नीति के चलते ब्राह्मणों में प्रतिक्रिया हुई |

इसमे कोई संदेह नही है कि अशोक की धार्मिक नीति में सहिष्णुता थी और अशोक ने अपनी प्रजा से भिक्षुओं के साथ ब्राह्मणों का भी सम्मान देने को कहा | लेकिन अशोक ने पशु-पक्षियों के वध को निषिद्ध कर दिया और साथ ही उसने महिलाओं में प्रचलित कर्मकाण्डीय अनुष्ठानों का मजाक उड़ाया |

बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार और अशोक के यज्ञ विरोधी प्रवृत्ति ब्राह्मणों को अत्यधिक नुकसान उठाना पड़ा, क्योकि अनेक प्रकार के छोटे-बड़े यज्ञों में प्राप्त होने वाली दान-दक्षिणा पर ही उनका जीवन निर्भर था | ब्राह्मणों का मानना था कि वें देवताओं और मानव के बीच मध्यस्थ का कार्य करते थे और पशुबलि पर निषेध प्रत्यक्ष रूप से उनके ऊपर आघात था |

हरप्रसाद शास्त्री का मानना है कि धम्म-महामत्तों ने ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया था | स्वाभाविक रूप से अशोक की नीति से ब्राह्मणों की आर्थिक स्थिति खराब हुई | वास्तव में ब्राह्मण ऐसी नीति की चाह रख रहे थे जो वैदिक काल से उन्हें मिलने वाले विशेषाधिकारों को बनाये रखें और उनके तत्कालीन हितों की रक्षा कर सकें |

इसप्रकार अशोक की धार्मिक नीति भले ही अहिंसावादी और सहनशीलतापूर्ण हो, पर ब्राह्मणों में स्वार्थवश उसके प्रति विद्वेष की भावना जागृत होने लगी | अंततः ब्राह्मणों में प्रतिक्रिया हुई और इसकी चरमसीमा पुष्यमित्र शुंग के विद्रोह में दृष्टिगोचर होती है |

कुछ विद्वान यह भी तर्क देते है कि ब्राह्मण प्रमुख रूप से इसलिए भी नाराज थें क्योकि इस नीति की उद्घोषणा एक शूद्र राजा ने की थी | उल्लेखनीय है कि ब्राह्मण ग्रंथ मौर्यों को शूद्र या निम्न कुल से सम्बन्धित करते है |

महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार अशोक द्वारा ब्राह्मणों को, जोकि भूदेव या धरती के देवता माने जाते थें, मिथ्या देवताओं के रूप में उद्घाटित किया गया | यह स्पष्तः ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को नष्ट करना था |

हरप्रसाद शास्त्री ने अशोक के दो नियमों ‘व्यवहारसमता’ और ‘दंडसमता’ अर्थात् न्यायप्रणाली व दंडविधान में एकरूपता का भी वर्णन किया | उनके अनुसार अशोक के बनाये इन दो नियमों ने ब्राह्मणों की उन दण्ड सम्बन्धी विशेषाधिकारों का अंत कर दिया जो सामान्यतया उन्हें प्राप्त थी | अशोक के इन नियमों ने ब्राह्मणों की सामाजिक श्रेष्ठता की स्थिति पर कुठाराघात किया |

लेकिन हेमचन्द्र रायचौधुरी हरप्रसाद शास्त्री के मत का खंडन करते है | उनका कहना है कि बौद्ध धर्म को महत्व दिए जाने के बावजूद अशोक की नीतियाँ ब्राह्मणों की विरोधी नही थी | एक तो अशोक ने पशुबलि पर पूर्ण प्रतिबन्ध नही लगाया था और दूसरी तरफ स्वयं ब्राह्मणों ग्रंथो में भी यज्ञ आदि अवसरों पर पशुबलि के विरोध के स्वर सुनाई देते है |

रायचौधुरी मानते है कि धम्ममहामात्रों के दायित्व भी किसी भी रूप में ब्राह्मण-विरोधी नही थें, बल्कि वे तो ब्राह्मणों, भिक्षुओं इत्यादि सभी के कल्याण के लिए थें |

इसके अलावा पुष्यमित्र शुंग की राजक्रान्ति एक सेनापति की महत्वकांक्षा थी, न कि साम्राज्य के असंतुष्ट ब्राह्मणों के एक समुदाय का नेतृत्व | यह भी महत्वपूर्ण बात है कि एक ब्राह्मण सेनापति की नियुक्ति यह प्रमाणित करती है कि मौर्यों की नीति ब्राह्मण विरोधी नही थी |

हेमचन्द्र रायचौधुरी के अनुसार अशोक की शांति और अहिंसा की नीति मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए उतरदायी थी | रायचौधुरी का मानना है कि अशोक ने अपनी शांति व अहिंसा की नीति को इतने उत्साह एवं दृढ़ता के साथ अपनाया कि सैनिक दृष्टिकोण से राष्ट्र एकदम दुर्बल हो गया |

कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने युद्ध-विजय की नीति को त्यागकर धम्म-विजय की नीति को अपनाया | उसने अपने पुत्रों को युद्ध, हिंसा और रक्तपात से दूर रहने का उपदेश दिया | परिणामस्वरूप अशोक के उत्तराधिकारी भेरि-घोष की तुलना में धम्म-घोष से अधिक परिचित थें | जिससे परवर्ती मौर्य शासकों का सेना से प्रत्यक्ष सम्पर्क कम हो गया |

इन शासकों का सेना प्रत्यक्ष सम्पर्क इतना कम था कि पुष्यमित्र शुंग ने बृहद्रथ की हत्या उसकी सेना के ही समक्ष ही कर दी थी | वास्तव में अशोक की शांति व अहिंसा की नीति न केवल सैनिक अवनति का कारण बनी बल्कि इसने सम्राट की नियन्त्रण शक्ति को भी क्षीण कर दिया |

नीलकंठ शास्त्री हेमचन्द्र रायचौधुरी के मत का खंडन करते है | शास्त्री का मानना है कि अशोक की शांति व अहिंसा की नीति में कट्टरता का अभाव था | अशोक ने युद्ध-त्याग और शांतिप्रियता की नीति का पालन एक सीमा तक ही किया और हमें कोई ऐसा प्रमाण नही मिलता है कि उसने अपनी सेना को भंग कर दिया था |

तेरहवें शिलालेख में आटविक जातियों को दी गयी चेतावनी इस बात की पुष्टि करती है कि अशोक आवश्यकता पड़ने पर उचित दण्ड देने का समर्थ रखता था | वास्तव में आटविक राज्यों को एक शक्तिशाली सम्राट की चेतावनी थी, जिसके पास पर्याप्त सेनशक्ति मौजूद थी | विजित कलिंग को स्वतंत्र न करना भी इस बात की पुष्टि करता है कि अशोक की नीति व्यावहारिक थी न की कट्टर |

मौर्य साम्राज्य का विभाजन

विशाल और शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण मौर्य साम्राज्य का दो भागों में विभाजन माना जाता है | इसके अनुसार पूर्वी प्रदेश पर दशरथ और पश्चिमी प्रदेश पर कुनाल का अधिकार था |

अगर इस विशाल साम्राज्य का विभाजन न हुआ होता, तो कुछ समय तक उत्तर-पश्चिम में यूनानी आक्रमणों को टाला जा सकता था और मौर्यों को कुछ सीमा तक अपनी पिछली शक्ति को दुबारा स्थापित करने का अवसर प्राप्त प्राप्त हो जाता | मौर्य साम्राज्य के विभाजन ने प्रशासनिक व्यवस्था को भी विघटित कर दिया |

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अयोग्य और शक्तिहीन परवर्ती शासक

अशोक के अयोग्य और शक्तिहीन उत्तराधिकारियों के कारण मौर्य साम्राज्य पूरी तरह से विघटित हो गया | अशोक के शासनकाल के पश्चात् ही विशाल मौर्य साम्राज्य पर अंधकार के काले बदल छा गये |

अयोग्य तथा निर्वत उत्तराधिकारी मौर्य साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण परवर्ती मौर्य शासकों में शासन के संगठन और संचालन की योग्यता का अभाव था |

अशोक के उत्तराधिकारी वंशानुगत विशाल साम्राज्य की एकता बनाये रखने में असमर्थ रहें | साहित्यिक स्रोतों से पता चलता है कि अशोक के उत्तराधिकारियों ने मौर्य साम्राज्य का विभाजन भी कर लिया |

कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर में जालौक ने स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की थी | वही तिब्बती इतिहासकार तारानाथ से ज्ञात होता है कि वीरसेन ने गांधार प्रदेश में अपने स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली थी | कालीदास के मालविकाग्निमित्र के विवरण से पता चलता है कि विदर्भ भी एक स्वतन्त्र राज्य बन गया था |

अशोक के अयोग्य व निर्बल उत्तराधिकारियों की शक्तिहीनता का इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि मौर्य साम्राज्य के पूर्वी भाग में अधिकाधिक छह शासक मात्र बावन वर्षों तक ही शासन कर सके | इससे विघटन प्रक्रिया की गति में और बृद्धि हुई तथा साम्राज्य की सुरक्षा को भारी झटका लगा |

अत्यधिक केन्द्रीभूत प्रशासन

मौर्य राजा समस्त प्रकार की सत्ता का स्रोत और उसका केंद्र-बिंदु था | वह प्रशासन, कानून और न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था | मौर्य प्रशासन में सभी प्रमुख कार्यों पर उसका प्रत्यक्ष नियंत्रण रहता था |

प्रशासन के प्रमुख अधिकारी उसके व्यक्तिगत कर्मचारी होते थे तथा इन सभी अधिकारियों भक्ति भावना अपने राजा के प्रति होती थी न कि राष्ट्र या राज्य के प्रति |

राजा के अत्यधिक शक्तिशाली होने के कारण प्रशासन में जनमत का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं का लगभग अभाव-सा था | राजा की सुरक्षा और विरोधियों पर नजर रखने के लिए पुरे साम्राज्य में गुप्तचरों का जाल-सा बिछा हुआ था |

इन परिस्थितियों में राज्य के अधिकारियों के साथ साथ आम प्रजा की भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता खो चुकी थी और जनसाधरण पर नियन्त्रण बना रहता था |

ऐसी नियंत्रित व्यवस्था में शासन की सफलता पूर्णतया राजा की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करती थी | अशोक के निर्बल उत्तराधिकारियों के अंतर्गत शासन तंत्र पर केन्द्रीय नियन्त्रण स्थिर नही रह सका और परिणामस्वरूप स्वाभाविक रूप से प्रशासनिक व्यवस्था भी कमजोर हो गयी |

मौर्य साम्राज्य के विभाजन ने इस केन्द्रीभूत शासन व्यवस्था को और धक्का लगा और प्रांत साम्राज्य से पृथक होने लगे | ये सब परिस्थितियाँ साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी बनी |

राष्ट्रीय एकता का अभाव

जैसा कि ऊपर चर्चा की जा चुकी है कि प्रशासन का स्वरुप अत्यधिक केंद्रीकृत था और सभी महत्वपूर्ण शक्तियाँ सम्राट के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में थी |

शासन में अधिकारी सम्राट के प्रति उत्तरदायी थें न कि राज्य के प्रति | इस प्रकार मौर्यकाल में राज्य या राष्ट्र का सरकार के ऊपर अस्तित्व नहीं था |

मौर्यकालीन भारत में राष्ट्र का सिद्धांत विद्यमान नही था | राष्ट्र के निर्माण हेतु आवश्यक तत्व – जैसे समान प्रथाएं-रीतिरिवाज, समान भाषा और समान ऐतिहासिक परम्परा – सम्पूर्ण मौर्य साम्राज्य में नहीं थीं | यह भी नही माना जा सकता कि मौर्य अधिकार क्षेत्र में एक स्तर की भौतिक संस्कृति विद्यमान थी | भौतिक दृष्टि से साम्राज्य के सभी भाग असमान रूप से विकसित थे |

मौर्यकालीन भारत में राजनीतिक दृष्टि से भी भारतीय एकता का विचार विद्वान नही था | यह इस बात से स्पष्ट है कि यूनानियों, घृणित म्लेच्छों का प्रतिरोध भी संगठित रूप से नही किया गया था |

इन विदेशियों का मुकाबला उन स्थानीय राजाओं द्वारा किया गया जो अपने अधिकार में आये नये-नये प्रदेश गँवाना नही चाहते थें | जैसे कि जब पोरस सिकन्दर से मुकाबला कर रहा था अथवा जब सुभागसेन अंतियोकस को कर दे तो पश्चिमोत्तर भारत के पृथक पड़ गये शासकों के रूप में ऐसा कर रहे थे |

भारत के केन्द्रिय भाग के राजाओं, विशेषकर पाटलिपुत्र, से उन्हें कोई समर्थन नही मिला था | यहाँ तक कि पोरस, जिसकी शत्रु होने के बावजूद यूनानियों तक ने प्रशंसा की थी, का भारतीय स्रोतों में वर्णन तक नहीं हुआ है | क्योकि मौर्य साम्राज्य की प्रजा में कोई मूलभूत राष्ट्रीय एकता नहीं थी, इसलिए राजनीतिक विघटन लगभग निश्चित ही था |

प्रांतीय शासकों का दमनकारी शासन

मौर्य साम्राज्य के पतन का एक बड़ा कारण प्रांतीय शासकों का दमनकारी शासन था | हेमचंद्र रायचौधुरी के अनुसार मौर्य साम्राज्य के दूरस्थ प्रान्तों के शासक अत्याचारी थें | बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला से दुष्ट अमात्यों (उच्चाधिकारीयों) के कुशासन की कड़ी शिकायतें मिली थी |

दिव्यावदान से पता चलता है कि बिन्दुसार और अशोक के समय तक्षशिला में विद्रोह हुआ था | दोनों बार तक्षशिला के नागरिकों ने राजकुमार अशोक और कुणाल से दुष्टामात्यों के बिरुद्ध शिकायतें की थी |

बिन्दुसार ने जब वहां अशोक की नियुक्ति की तब तक्षशिला के नागरिकों की शिकायतें दूर हुई थी | दिव्यावदान में उल्लिखित अमात्यों की दुष्टता की पुष्टि अशोक का कलिंग अभिलेख भी करता है |

कलिंग अभिलेख से पता चलता है कि प्रांतों में हो रहे अत्याचारों से अशोक बहुत चिंतित था और वह महामात्रों को आदेश दिया कि अकारण किसी भी नागरिक को वें न सताएं |

इसी उद्देश्य से अशोक ने तोसली, उज्जैन व तक्षशिला के उच्चाधिकारियों के स्थानान्तरण की परम्परा शुरू की थी | अशोक ने खुद 256 रातें धम्मयात्रा पर बिताई थी ताकि इस क्रम से प्रांतीय प्रशासन पर नियन्त्रण रखा जा सके |

निसन्देह अशोक ने प्रांतीय उच्चाच्धिकारियों पर अंकुश बनाये रखा, लेकिन उसके उत्तराधिकारी यह कार्य समुचित तरह से नही कर पाए | अशोक की मृत्यु के पश्चात् उच्च अधिकारी प्रजा पर अत्याचार करने लगे, जिससे दूरस्थ प्रान्त अवसर पाते ही स्वतंत्र हो गये | कलिंग और उत्तरापथ और सम्भवता दक्षिणापथ ने सर्वप्रथम मौर्य साम्राज्य का जुआ उतार फेंका |

वित्तीय संकट

मौर्य साम्राज्य पर आये वित्तीय संकट ने भी इसके पतन में योगदान दिया | विशाल मौर्य साम्राज्य की सेना और प्रशासन पर होने वाले भारी खर्च ने साम्राज्य के सामने वित्तीय संकट आ खड़ा हुआ |

मौर्यकालीन सिक्कों में मिलावट से पता चलता है कि मौर्य अर्थव्यवस्था पर दबाव था | उल्लेखनीय है कि प्राचीन भारत में मौर्यों के पास सबसे विशाल सेना थी और साथ ही सबसे विशाल प्रशासन तंत्र भी मौर्य साम्राज्य का ही था |

इतनी विशाल सेना और प्रशासन तंत्र को बनाये रखने के लिए आर्थिक व्यवस्था पर दबाव बना हुआ था | इसके लिए कर में वृद्धि के लिए अनावश्यक उपाय अपनाये गये |

जैसा कि अर्थशास्त्र में वर्णित है कि अभिनेताओं, वेश्याओं और ऐसे अन्य व्यवसायों से कर वसूला जाता था | प्रजा पर तरह-तरह के कर थोपने के बावजूद इतने विशाल साम्राज्य के ऊपरी ढांचे को बनाये रखना अत्यंत ही मुश्किल था |

ऐसा भी माना जाता है कि अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं को उदार ढंग से दान देकर अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया था | अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बौद्ध मठों और भिक्षुओं को प्रचुर धनराशि दान में दी |

हमें बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान में अशोक के दान की कहानियाँ मिलती है, जिसकी पुष्टि अन्य बौद्ध अनुश्रुतियां भी करती है | यहाँ तक कि अंतिम अवस्था में मौर्यों को अपना खर्चा निकालने के लिए स्वर्ण देवप्रतिमाओं को भी गलाना पड़ा | राजकोष खाली होने पर परवर्ती मौर्य शासकों ने तरह-तरह के उपायों द्वारा प्रजा से कर वसूल किये, जिसके परिणाम अत्यंत घातक सिद्ध हुए |

निष्कर्ष

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए विभिन्न विद्वानों की राय अलग-अलग है और कुछ के विचार तो परस्पर विरोधाभासी है |

एक सामान्य दृष्टिकोण से मौर्य साम्राज्य के पतन का सबसे उपयुक्त कारण योग्य उत्तराधिकारियों का अभाव प्रतीत होता है | वंशानुगत शासन के सुचारू रूप से संचालन के लिए योग्य उत्तराधिकारियों की श्रृंखला का बना रहना अति आवश्यक होता है |

अशोक के बाद योग्य उत्तराधिकारियों का नितांत अभाव रहा | प्रथम तीन मौर्य सम्राटों ने राजनीतिक और प्रशासनिक संगठन की योजना इस प्रकार तैयार की थी जिसमे केंद्र से कठोर नियन्त्रण अनिवार्य था | यहाँ से सम्पूर्ण साम्राज्य के शासनतन्त्र में शक्ति प्रसारित होती थी |

लेकिन परवर्ती मौर्य शासक साम्राज्य के अस्तित्व की आवश्यकताओं के अनुरूप नीतियाँ अपनाने में असमर्थ रहें | परवर्ती मौर्य शासकों के शासनकाल में प्रांतीय सरकारों पर नियन्त्रण कमजोर होने से वें अत्याचारी बन गयी, जिससे जन-असंतोष का विस्तार हुआ |

केन्द्रीय शक्ति के कमजोर होने पर यवन, कंबोज, आटविक आदि अर्द्धस्वतंत्र राज्यों पर नियंत्रण बनाये रखना मुश्किल हो गया |

इन सब कारणों से मौर्य साम्राज्य का आकार संकुचित होता गया और परवर्ती मौर्य शासकों का अपनी सेना और प्रजा पर नियन्त्रण रखना कठिन हो गया |

यही कारण है कि अंतिम मौर्य राजा बृहद्रथ को सिंहासन से हटाने के लिए किसी क्रांति की आवश्यकता नही पड़ी और सेना का निरीक्षण करते समय उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा ही उसकी हत्या कर दी गयी |

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