कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास

History of Qutubuddin Aibak

कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास (History of Qutubuddin Aibak in Hindi) : कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास भाग-तीन | यह लेख इतिहास विशेषज्ञ डॉ. के. के. भारती द्वारा लिखा गया है | कुतुबुद्दीन ऐबक के इतिहास पर दो लेख – कुतुबुद्दीन ऐबक का आरंभिक इतिहास और कुतुबुद्दीन ऐबक का सिंहासनारोहण – पहले ही प्रस्तुत किये जा चुके है | सिंहासनारोहण के साथ ही कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में पहले स्वतंत्र तुर्की राज्य की नीव रखी | उसने अपने चार वर्ष के शासनकाल में कोई नई विजय नही की | बल्कि उसने अपना पूरा ध्यान अपने अधिकृत क्षेत्रों की सेना को सुदृढ़ करने में लगाया क्योकि उसका शासन प्रबंध पूर्णतया सैनिक था और शक्तिशाली सेना पर ही निर्भर था |

कुतुबुद्दीन ऐबक का मुख्य उद्देश्य भारत में अपने अवयस्क तुर्की राज्य की अलग पहचान स्थापित करना था | इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसने स्वयं को मध्य-एशियाई राजनीति से अलग रहा | जिससे दिल्ली सल्तनत को भारत से बाहर के किसी देश का सहारा लिए बिना अपने दम पर अपने तरीके से अपना विकास करने का मौका मिल सका |

शासक के रूप में कुतुबुद्दीन ऐबक की कठिनाइयाँ

अपने सिंहासनारोहण के समय कुतुबुद्दीन ऐबक कई कठिनाईयों से घिरा हुआ था | मुख्य रूप से ये कठिनाइयाँ निम्नलिखित थी –

1 – मुहम्मद गोरी के कई ऐसे दास थे, जो सम्मानित पदों पर थें तथा अत्यधिक महत्वकांक्षी थें | उनकी महत्वाकांक्षाओं के कारण नव-स्थापित तुर्की राज्य के छिन्न-भिन्न होने की आशंका थी | इन व्यक्तियों में याल्दौज, कुबाचा और अलीमर्दान प्रमुख थें |

2 – ख्वारिज्म के शाह ने मध्य-एशिया में एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था, जिसकी दक्षिणी-पूर्वी सीमा भारतीय प्रदेशों को छूती थी | इसीलिए ऐबक को उससे भी खतरा था |

3 – सिन्धु और झेलम नदियों के मध्यवर्ती क्षेत्र में निवास करने वाले लड़ाकू खोकर भी उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर खतरा पैदा किये हुए थें |

4 – ऐबक को वे हिन्दू शासक भी चुनौती दे रहे थे, जिनका मुहम्मद गौरी के समय दमन किया गया था, लेकिन गौरी की मृत्यु का लाभ उठाकर वें दुबारा अपनी खोई हुई स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थें |

5 – लाहौर गजनी साम्राज्य का अंग माना जाता था, इसलिए ऐबक जल्द से जल्द अपनी राजधानी को गजनी के प्रभुत्व से मुक्त कराना चाहता था |

6 – चूँकि कुतुबुद्दीन ऐबक को अभी तक दासता से मुक्ति नही मिली थी, इसलिए क़ानूनी रूप से अभी ऐबक की स्थिति इस्लामी जगत में स्वतंत्र और प्रभुसंपन्न सुल्तान नही थी |

7 – इख्तियारउद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी की हत्या के बाद बिहार और बंगाल में विद्रोह शुरू हो गये | जिससे बंगाल और बिहार का दिल्ली से सम्बन्ध टूटने का भय हो गया |

कठिनाइयों पर विजय

कुतुबुद्दीन ऐबक ने बड़ी योग्यता, साहस और धैर्य के साथ अपनी कठिनाइयों पर निम्न प्रकार से विजय प्राप्त की |

याल्दौज का दमन

कुतुबुद्दीन ऐबक को सबसे बड़ा खतरा मध्य-एशिया की ओर से था | मुहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद याल्दौज ने गजनी पर अधिकार कर लिया था | याल्दौज दिल्ली पर भी अपना अधिकार जता रहा था |

दूसरी ओर पूरे ईरान और मध्य एशिया पर अधिकार के बाद ख्वारिज्म के शाह भी दिल्ली ओर गजनी पर अधिकार करने को उत्सुक था | याल्दौज ख्वारिज्म के शाह का मुकाबला नही कर सकता था |

गजनी में ख्वारिज्म के शाह के अनेक समर्थक थें | गजनी के नागरिक अपनी स्वामीभक्ति की अस्थिरता के लिए कुख्यात थें | दरबार में ख्वारिज्म शाह के समर्थकों के दबाव के कारण 1208 में याल्दौज को गजनी छोड़नी पड़ी और उसने पंजाब पर आक्रमण किया |

कुतुबुद्दीन ऐबक ने सफलतापूर्वक उसका मुकाबला किया तथा उसे पंजाब में टिकने न दिया | उधर गजनी का सिंहासन रिक्त था तथा गजनी की जनता को भी अकस्मात् ऐबक के लिए स्नेह हो गया |

गजनी-वासी नही चाहते थे कि गजनी पर ख्वारिज्म के शाह का अधिकार हो जाये, इसलिए उन्होंने राज्य की बागडोर सँभालने के लिए ऐबक को आमंत्रित किया |

ऐबक ने भी अवसर का लाभ उठाते हुए गजनी पंहुचकर सिंहासन प्राप्त कर लिया | दुर्भाग्य से ऐबक गजनी में भोग-विलास में लिप्त हो गया तथा वहां की जनता के प्रति उदासीन हो गया | 

गजनी की जनता को ऐबक के शासन की तुलना में याल्दौज का शासन अत्यधिक अच्छा लगा | इसलिए उन्होंने याल्दौज को पुनः गजनी आमंत्रित किया तथा ऐबक के खिलाफ विद्रोह कर दिया |

केवल चालीस दिनों तक गजनी पर शासन करने के पश्चात् कुतुबुद्दीन ऐबक लाहौर वापस आ गया और याल्दौज पुनः गजनी का शासक बन गया |

यद्यपि ऐबक का यह अभियान असफल रहा, परन्तु इसके दो लाभ हुए |

पहला, याल्दौज को ऐबक की शक्ति का अहसास हो गया तथा उसने दोबारा ऐबक को कभी भी परेशान नही किया | परिणामस्वरूप कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली को मध्य-एशिया की राजनीति से अलग कर लिया |

दूसरा, ऐबक को गजनी में दासता से मुक्ति मिल गयी | उसे गजनी में गौरी के भतीजे तथा उतराधिकारी गियासुद्दीन महमूद (यह याल्दौज के भय के कारण फिरोजकोह में रह रहा था) ने दास्य-मुक्ति का पत्र तथा सुल्तान की उपाधि प्रदान की |

इस प्रकार अब कुतुबुद्दीन ऐबक क़ानूनी रूप से सुल्तान कहलाने का अधिकारी हो गया |

बंगाल पर ऐबक की प्रभुसत्ता

अलीमर्दान खां इख्तियारउद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी की हत्या करके लखनौती में स्वतंत्र शासक बन बैठा | किन्तु स्थानीय खिलजी सरदारों को वह पसंद न था | उन्होंने उसे बंदी बना लिया और मुहम्मद शेरा को इस शर्त पर शासक बनाया कि वह दिल्ली की अधीनता स्वीकार न करेगा |

इधर अलीमर्दान कैद से भागकर ऐबक की शरण में पहुंच गया तथा अपनी निर्दोषता सिद्ध करके उसने ऐबक की सहानुभूति प्राप्त कर ली | कुतुबुद्दीन ऐबक के प्रतिनिधि कैमाज रूमी ने बड़ी कठिनाई के बाद खिलजियों पर काबू पा लिया तथा अलीमर्दान खां पुनः बंगाल का सूबेदार नियुक्त हो गया |

अलीमर्दान ने वायदा किया कि वह ऐबक के अधीन रहते हुए उसे वार्षिक कर भेजता रहेगा | एस प्रकार बंगाल तथा बिहार दिल्ली सल्तनत की प्रभुसत्ता में आ गये |

हिन्दू विद्रोही शासको से संघर्ष

ऐबक के सिंहासनारोहण के तत्काल बाद चन्देल शासक त्रिलोक्यवर्मन ने कालिंजर पर पुनः अधिकार कर लिया | उसने ‘कालंजराधिपति’ की उपाधि धारण की | उसने तुर्कों को अपने राज्य से बाहर खदेड़ कर उनका दक्षिण की ओर बढ़ना दुष्कर कर दिया |

परिहारों ने ग्वालियर से तुर्कों को भगाकर पुनः अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया | जयचंद के उतराधिकारी हरीशचंद्र के नेतृत्व में गहड़वाल पुनः शक्तिशाली हो गये | उन्होंने तुर्कों से फर्रुखाबाद और बदायूं के प्रदेश छीन लिए |

अनेक छोटे-छोटे राज्यों ने सुल्तान को वार्षिक कर देना बंद कर दिया था | ऐबक ने इन विद्रोही हिन्दू राजाओं का दमन करने का प्रयास किया | किन्तु याल्दौज की ओर से सल्तनत को खतरा होने के कारण इसमे सफल न हो सका |

यद्यपि उसने बदायूं पर अधिकार करके अपने एक योग्य दास इल्तुतमिश को वहां का शासक नियुक्त किया | अन्य छोटे राजाओं का दमन करके उसने कर वसूल किया, परन्तु वह कालिंजर और ग्वालियर को पुनः सल्तनत में नही मिला पाया |

वैवाहिक संबंध की नीति

कुतुबुद्दीन ऐबक एक राजनीतिक सूझबूझ वाला व्यक्ति था | उसने सिंहासन पर बैठने से पूर्व ही अपने स्वामी के अन्य प्रतिष्ठित तुर्की कुलीनों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करके अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ कर लिया |

मुहम्मद गौरी के आदेश पर याल्दौज (मु. गौरी के समस्त दास अधिकारियों का अध्यक्ष) ने अपनी पुत्री का विवाह ऐबक से करा दिया |

ऐबक ने अपने स्वामी के एक योग्य दास अधिकारी नसीरूद्दीन कुबाचा से अपनी दो बहनों का विवाह (एक के बाद दूसरी) किया | उसने अपनी पुत्री का विवाह अपने एक योग्य तुर्की दास अधिकारी इल्तुतमिश के साथ किया |

इन वैवाहिक सम्बन्धों से उसका राजनीतिक कद ऊँचा हुआ तथा उसकी राजनीतिक स्थिति उसके स्वामी के अन्य दास अधिकारियों की तुलना में अधिक सुदृढ़ को गयी |

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु कैसे हुई ? केवल चार वर्षों से कुछ अधिक समय तक शासन करने के पश्चात् लाहौर में नवम्बर 1210 में चौगान (आधुनिक पोलो) खेलते समय घोड़े से गिरकर कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हो गयी | उसे लाहौर में ही दफना दिया गया |

कुतुबुद्दीन ऐबक के निर्माण कार्य

कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा कराए गये निर्माण कार्य निम्नलिखित है –

  1. कुतुबमीनार
  2. कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद
  3. अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद

कुतुबमीनार

कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा कराया गया सबसे महत्वपूर्ण निर्माण कुतुबमीनार (1199-1235) थी | सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1199 में कुतुबमीनार का निर्माण आरम्भ किया था | लेकिन निर्माण कार्य के बीच में ही कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हो जाने के कारण कुतुबमीनार को इल्तुतमिश ने पूर्ण कराया |

विश्व-प्रसिद्ध कुतुबमीनार का निर्माण मुअज्जिन के आजान देने के लिए किया था, जो उस पर चढ़कर नमाज के लिए आजान देता था |

फिरोज तुगलक के समय कुतुबमीनार की चौथी मंजिल क्षतिग्रस्त हो गयी थी | फिरोज तुगलक ने उसकी मरम्मत करायी तथा साथ ही इस पर एक मंजिल और बनवा दी | इस प्रकार वर्तमान में यह पंचमंजिली मीनार है |

कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद

कुतुबुद्दीन ऐबक ने दो मस्जिदों का भी निर्माण करवाया था – दिल्ली में कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद तथा अजमेर में अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद |

कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद, जो भारत में पहली तुर्की मस्जिद थी, का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने तराइन के द्वितीय युद्ध (1192) में पृथ्वीराज चौहान पर विजय पाने की स्मृति में करवाया था |

कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद मूलतः एक जैन मन्दिर था, जिसे वैष्णव मन्दिर के रूप में बदल दिया गया था | कालान्तर में कुब्बत-उल-इस्लाम मस्जिद के क्षेत्रफल को इल्तुतमिश और अलाउद्दीन खिलजी ने विस्तृत किया |

अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद

इसी प्रकार अढ़ाई दिन का झोपड़ा मस्जिद का निर्माण एक संस्कृत महाविद्यालय के भग्नावशेषों पर किया गया था |

इसके अलावा कुतुबुद्दीन ऐबक ने किला-ए-राज पिथौरा (पृथ्वीराज चौहान का दुर्ग) के चारो ओर भवनों का निर्माण करवाया, जो मुस्लिम शासकों द्वारा निर्मित दिल्ली के तथाकथित “सात नगरों” में पहला नगर था |

कुतुबुद्दीन ऐबक का मूल्यांकन

कुतुबुद्दीन ऐबक मोहम्मद गौरी का सबसे योग्य दास था | अपनी असाधारण योग्यता के बल पर वह एक साधारण गुलाम से सुल्तान के पद पर जा पहुंचा तथा उसने उत्तरी भारत में पहले तुर्की राज्य की नींव रखी |

ऐबक अपने स्वामी मोहम्मद गौरी के प्रति सदैव वफादार रहा | मोहम्मद गौरी की भारत विजय मे वह उसका सबसे बड़ा सहायक था | उसने उत्तर भारत में अपने स्वामी द्वारा जीते गए क्षेत्रों का विस्तार करने में विशेष रुप से तराइन के दूसरे युद्ध (1192) के बाद मुख्य भूमिका निभाई |

इतिहासकार हबीबुल्ला के अनुसार “इस बात पर अधिक बल देने की कोई आवश्यकता नहीं है कि भारत में मुइज्जुद्दीन को अधिकांश सफलता ऐबक के अथक परिश्रम और निष्ठापूर्ण सेवा के कारण प्राप्त हुई थी, क्योंकि मुइज्जुद्दीन केवल प्रेरणा देता था, जबकि विस्तृत नियोजन के लिए ऐबक उत्तरदायी था और दिल्ली राज्य के सूत्रपात का श्रेय ऐबक ही को है |”

ऐबक में व्यवहारिक बुद्धि के साथ-साथ राजनीतिक कूटनीतिज्ञता की भी कमी न थी | गजनी से संबंध तोड़कर ऐबक ने दिल्ली सल्तनत को मध्य-एशियाई राजनीति के झमेलो में पड़ने से बचा लिया |

वह एक सशक्त और सुयोग्य सेनानायक था | जहां उसमें तुर्क की निर्भीकता थी वहीं ईरान की सुसंस्कृत रूचि और उदारता भी थी | योग्य सैनिक होने के साथ-साथ वह विद्वान तथा साहित्य प्रेमी भी था |

वह विद्वानों का आश्रयदाता था | उसने हसन निजामी और फखे मुदब्बिर को संरक्षण प्रदान किया था और इन दोनों ने अपनी कृतियां उसे समर्पित की थी | समकालीन इतिहासकार उसकी उदारता दानशीलता और न्याय की अत्यधिक प्रशंसा करते हैं |

मिनहाज लिखता है “सुल्तान कुतुबुद्दीन दूसरा हातिम था और बड़ा वीर तथा उदार शासक था | सर्वशक्तिमान ईश्वर ने उसको ऐसा साहस और उदारता प्रदान किया था कि उसके इस समय में उसकी समानता करने वाला पूर्व से पश्चिम तक कोई नहीं था | जब सर्वशक्तिमान ईश्वर अपनी महानता का उदाहरण देना चाहता है तो वह अपने किसी दास को हिम्मत और उदारता प्रदान करता है, तब शत्रु और मित्र उसकी वीरता और उदारता से प्रभावित हो जाते हैं | यह सुल्तान भी वीर और उदार था | भारत के सब प्रदेश उसके मित्रों से पूर्ण थे और शत्रुओं से रिक्त थे |”

लेकिन मिनहाज आगे लिखता है कि जिस प्रकार उसकी उदारता निरंतर चला करती थी उसी प्रकार उसका हत्याकार्य भी कभी बंद नहीं होता था |

निर्धन और जरूरतमंदों की बड़ी उदारता से लाखों में दान देने के कारण ऐबक लाखबख्श (लाखों का दाता) तथा पीलबख्श (हाथियों का दाता) के नाम से प्रसिद्ध था | निष्पक्ष भाव से लोगों का न्याय करने के कारण वह न्यायपूर्ण राजा के रूप में विख्यात था |

हसन निजामी के अनुसार ऐबक ने ऐसी निष्पक्षता से शासन किया कि भेड़ और भेड़िया एक ही तालाब में पानी पीते थे | 

इस प्रकार कुतुबुद्दीन ऐबक अपने उदार चरित्र व बौद्धिक विशेषता के लिए विख्यात था | सभी समकालीन व परवर्ती इतिहासकारों ने उसकी उदारता, स्वामिभक्ति, साहस व न्याय की प्रशंसा करते है |