1857 के विद्रोह का स्वरुप और विशेषता

1857 ke vidroh ka swaroop

1857 के विद्रोह का स्वरुप और विशेषता (1857 ke vidroh ka swaroop) Nature of Revolt of 1857 : प्लासी के युद्ध (1757) के सौ वर्ष वर्ष बाद हुए 1857 का विद्रोह भारत में ब्रिटिश शासन के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी | इस अद्वितीय घटना ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला कर रख दी | 1857 के विद्रोह के फलस्वरूप भारत में ब्रिटिश शासन प्रणाली के स्वरुप में अनेक मौलिक और महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिसके साथ ही भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन खत्म हो गया और भारत का शासन प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश क्राउन के अधीन आ गया |

1857 का विद्रोह भारत में ब्रिटिश राज के इतिहास में प्रथम व्यापक व सशस्त्र विद्रोह था, जिसमे भारत से ब्रिटिश शासन को पूर्णतः खत्म करने का एक बहुत कुछ संयुक्त एवं सशक्त प्रयास किया गया था |

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वर्ष 1909 में लन्दन में वीर सावरकर की पुस्तक “फर्स्ट बार ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस” के प्रकाशन से लेकर वर्तमान समय तक 1857 के महान विद्रोह के स्वरूप व विशेषताओ के बारे विभिन्न विद्वानों में पर्याप्त मतभेद बना हुआ है |

क्या यह विद्रोह एक स्वतंत्रता संग्राम था, एक असफल राष्ट्रीय क्रांति थी या मात्र एक सैनिक विद्रोह था, इस विषय पर इतिहासकारों में विवाद है | कुछ इतिहासकार इसे केवल मुसलमानों का विद्रोह मानते है जबकि कुछ का मानना है कि यह हिन्दुओं के पिछड़ेपन व अंधविश्वासों का परिणाम था |

विद्वानों के मध्य यह मतभेद मुख्य रूप से निम्न तीन विचारों पर केन्द्रित है –

प्रथम, क्या 1857 का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह था ?

द्वितीय, क्या यह विद्रोह एक राष्ट्रीय संघर्ष अथवा स्वतंत्रता संग्राम था ?

तृतीय, क्या यह विद्रोह सामंती असंतोष व प्रतिक्रिया का प्रदर्शन-मात्र था ?

1857 के विद्रोह के स्वरुप के सम्बन्ध में मतभेद का मुख्य केंद्र बिंदु सैनिक विद्रोह है |

उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश इतिहासकारों ने 1857 के विद्रोह की व्याख्या ‘सैनिक विद्रोह’ के आधार पर की | चार्ल्स रेक्स ने वर्ष 1858 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘नोट्स ऑन द रिवोल्ट इन द नार्थ-वैस्टर्न प्रोविंसिस ऑफ़ इंडिया’ में 1857 के विद्रोह को एक सैनिक विद्रोह कहा जिसने कुछ क्षेत्रों में जन-विद्रोह का रूप धारण कर लिया था |

हरीश चंद्र मुखर्जी, किशोरी चन्द्र मित्र, शम्भु चन्द्र मुखोपाध्याय और सर सैयद अहमद खां ने भी 1857 के विद्रोह को एक सैनिक विद्रोह ही माना |

सर जॉन सीले और लारेंस के अनुसार ” यह विद्रोह पूर्णरूप से देशभक्ति से रहित, स्वार्थपूर्ण सैनिक विद्रोह था, जिसे न तो देशज नेतृत्व तथा न ही कोई जन-समर्थन प्राप्त था |” लेकिन सर जॉन सीले व लारेंस का यह तर्क पूर्वाग्रह से ग्रसित है | उनकी विचारधारा इस पूर्वाग्रह पर आधारित है कि 1857 का विद्रोह अपनी सेवा-शर्तों को लेकर असंतुष्ट सैनिकों द्वारा शुरू किया गया था |

वास्तव में भले ही इस विद्रोह का प्रस्फुटन एक सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था, पर इस विद्रोह की कमान असैनिक लोगों के हाथों में थी |

इस प्रकार 1857 के विद्रोह का कारण मुख्य रूप से सैनिक असंतोष नही था बल्कि यह इसके अनेक कारणों में से एक कारण था |

जॉन ब्रूस नॉर्टन ने अपनी पुस्तक ‘टॉपिक्स फॉर इंडियन स्टेट्समैन’ में बताया है कि यह विद्रोह मात्र सैनिकों का विद्रोह नही, बल्कि जन-विद्रोह था | नॉर्टन के मत का समर्थन केयी, डफ, मालेसन और चार्ल्स बॉल आदि अंग्रेजी लेखकों ने भी किया है |

ब्रिटिश कंजरवेटिव पार्टी के सांसद बैंजमिन डिजरेली ने ब्रिटिश संसद में 1857 के विद्रोह को एक राष्ट्रीय विद्रोह कहा था | उसके अनुसार “साम्राज्यों का ह्रास व पतन चर्बीयुक्त कारतूसों की वजह से नही होता है | इस प्रकार के परिणाम पर्याप्त कारणों के संचित हो जाने के कारण होते है | इसलिए यह एक राष्ट्रीय विद्रोह है |”

कुछ यूरोपीय इतिहासकार 1857 के विद्रोह को एक ‘उग्र धार्मिक संग्राम’ की संज्ञा देते है |

एल.ई.आर. रीस का मानना है कि 1857 का विद्रोह “धर्मांधों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध” था | वही टी.आर. होम्स ने इसे और विस्तृत कर कहा कि यह “सभ्यता और बर्बरता के बीच संघर्ष” था | मेडले इसे “प्रजातियों का संग्राम” कहते है |

टेलबोएस व्हीलर ने इस विद्रोह को “एशियाई स्वभाव का परिचायक” कहा | आउट्रम और ट्रेलर ने आरोप लगाया है कि 1857 का विद्रोह ‘’हिन्दुओं के असंतोष का लाभ उठाकर मुसलमानों द्वारा रचा गया षड्यंत्र” है |

कम्पनी के तत्कालीन राजनीति व गुप्त विभाग के सचिव सर जे. केयी ने इस विद्रोह को श्वेतों के विरुद्ध काले लोगों का संघर्ष बताया |

वास्तव में ये सभी निष्कर्ष तथ्यों पर आधारित न होकर भावनात्मक और प्रजातीय श्रेष्ठता पर आधारित है | इन्हे ब्रिटिश जनमत का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास मात्र माना जा सकता है |

राष्ट्रवादी इतिहासकारों के एक वर्ग ने 1857 के विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम या राष्ट्रवादी संघर्ष माना है |

सर्वप्रथम विनायक दामोदर सावरकर ने इस विद्रोह को “सुनियोजित राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम” कहा | पट्टाभि सीतारमैया ने भी इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना है |

जवाहरलाल नेहरु लिखते है कि 1857 का विद्रोह मात्र विद्रोह नही था, यद्यपि यह सैनिक विद्रोह के रूप में विस्फोटित हुआ था, क्योकि यह विद्रोह जल्द ही जन-विद्रोह के रूप में परिवर्तित हो गया था |

सुरेन्द्रनाथ सेन इस पर अपना मत व्यक्त करते है कि “जो कुछ धर्म हेतु लड़ाई के रूप में प्रारम्भ हुआ था, वह स्वतंत्रता संग्राम के रूप में समाप्त हुआ, क्योकि इस बात में कोई संदेह नही कि विद्रोही विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थें तथा वे दुबारा पुरातन शासन व्यवस्था स्थापित करने के इच्छुक थें, जिसका प्रतिनिधित्व दिल्ली का बादशाह करता था |”

लेकिन आर. सी. मजूमदार इस पर अपनी असहमति व्यक्त करते हुए लिखते है कि “तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय संग्राम न तो पहला था, न ही राष्ट्रीय और न ही स्वतंत्रता संग्राम था |”

अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक ‘द ग्रेट रिवेलियन’ में इस विद्रोह को राष्ट्रीय विद्रोह सिद्ध करने का प्रयास किया है |

1857 के विद्रोह को निश्चित रूप से स्वतंत्रता संग्राम नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यह विद्रोह से भारत का एक बहुत बड़ा क्षेत्र अछूता था और भारतीय जनता का एक बड़ा वर्ग इस विद्रोह में शामिल नही हुआ था |

इसके अलावा 1857 के विद्रोह के विभिन्न नेताओं के उद्देश्य भी एक समान नहीं थें बल्कि वें व्यक्तिगत हित के लिए अधिक लड़ रहे थें | हमें यह भी मालूम है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश में ‘राष्ट्रवाद’ व ‘स्वतंत्रता’ के बीज प्रस्फुटित नहीं हुए थें |

तत्कालीन यूरोपीय विद्वानों ने 1857 के विद्रोह को मुसलमानों का कार्य बताया | जी.बी. मालेसन और टेलर ने तर्क दिया है कि यह विद्रोह दो समुदायों – हिन्दुओं व मुसलमानों – का संयुक्त प्रयत्न था |

पर्सिवल स्पीयर ने 1857 के विद्रोह को प्राचीन पुरातनवादी भारत का अंतिम प्रयत्न माना है | इनके अनुसार यह पुराने रजवाड़ो द्वारा पूर्व स्थापित जमीदार परिवारों का प्रयास-मात्र था |  

डॉ एस.बी. चौधरी का कहना है कि विभिन्न स्थाओं पर पहले जनता ने विद्रोह किया और उसके पश्चात सेना ने |

इस प्रकार उपर्युक्त मतों के आधार पर यह निश्चित है कि 1857 के विद्रोह के स्वरूप को स्पष्ट रूप से व्यक्त करना कठिन कार्य है | इसमे कोई शंका नही कि यह विद्रोह साम्राज्यवाद विरोधी एवं राष्ट्रवादी विद्रोह था, क्योंकि हिन्दुओं व मुसलमानों ने कंधे-से-कंधा मिलाकर समान रूप से हिस्सा लिया और इन्हे सामान्य जनता की सहानुभूति प्राप्त थी | इसीलिए 1857 के विद्रोह को मात्र सैनिक विद्रोह अथवा सामंतवादी प्रतिक्रिया या मुस्लिम षडयंत्र कहना पूर्णतया अनुचित है | इन सबके बावजूद यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि 1857 के विद्रोह में राष्ट्रीयता व राष्ट्रत्व की संकल्पना बिल्कुल नहीं थी |

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