उत्तर वैदिक काल का राजनीतिक जीवन

Political Life Of The Later Vedic Period

उत्तर वैदिक काल का राजनीतिक जीवन (Political Life Of The Later Vedic Period) : उत्तर वैदिक काल (1000-600 ईसा पूर्व) का इतिहास प्रमुख रूप से उन वैदिक ग्रन्थों पर आधारित है, जो ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ईसा पूर्व) के बाद लिखे गये थें | उत्तर वैदिक कालीन ग्रंथो की रचना लगभग 1000-600 ईसा पूर्व में उत्तरी गंगा के मैदान में हुई थी | विद्यादूत के इस लेख में हम उत्तर वैदिक काल का राजनीतिक जीवन (Uttar Vaidik Kaal Ka Raajaneetik Jeevan) पर चर्चा करेंगें |

उत्तर वैदिक काल में जनसाधारण की राजनीतिक शक्ति कम होती गयी | अब सभा और समिति के अधिकार अत्यधिक सीमित हो गये | साथ ही इन दोनों (सभा-समिति) का रंग-ढंग भी परिवर्तित ही गया | इनमे जनसाधारण की अपेक्षा राजा, ब्राहमणों और सभ्यों (अमीरों) का दबदबा कायम हो गया | अथर्ववेद में सभा व समिति को ‘प्रजापति की दो पुत्रियाँ’ कहा गया है |

उत्तर वैदिक कालीन सभा में स्त्रियों के प्रवेश के द्वार बंद कर दिए ये | अथर्ववेद में एक स्थान पर सभा को नरिष्ठा कहा गया है, जिसका अर्थ है -सामूहिक वाद-विवाद | इस काल में विदथ का तो नामोनिशान ही मिट गया |

उत्तर-वैदिक काल में राजा का पद सामान्यतः आनुवंशिक बन गया था | अर्थात राजा का पद अब कबीले के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को न मिलकर राजा के पुत्र (सामान्यतः उसके ज्येष्ठ) को मिलने लगा |

अब राजा ईश्वर का प्रतिनिधि बन गया | जहाँ ऋग्वैदिक काल में बलि (राजस्व या कर) राजा को स्वेच्छा से भेंट के रूप में प्राप्त होती थी वही अब इस काल में उसे नियमित कर (राजस्व) का रूप प्रदान कर दिया गया | क्षत्रिय व ब्राह्मण वर्ग के लोग अधिकांशतः कर (राजस्व) से मुक्त रखे गये थे |

राजा पुरोहित, सेनापति, पटरानी आदि की सहायता से शासन करता था | उसकी सहायता हेतु कई अन्य राज्य अधिकारी थे, जैसे स्थपति (मुख्य न्यायाधिकारी), सूत (रथ चलाने वाला), तक्षण (बढ़ई), भागदुघ (कर समाहर्ता), संग्रहित्री (खजांची), ग्रामिणी आदि |

निम्न स्तर में प्रशासन व कानून का दायित्व ग्राम-सभाओं पर था, जिनका नियन्त्रण प्रमुख कुलों के मुखियों के हाथों में होता था | ये ग्राम-सभाएँ स्थानीय झगड़ों, वाद-विवादों आदि का निपटारा भी करती थी |

ऋग्वैदिक काल की भांति इस काल में भी राजा कोई स्थाई सेना नही रखता था | युद्ध के अवसर पर जन (कबीले) के योग्य व बहादुर व्यक्तियों से सेना का गठन कर लिया जाता था |

युद्ध विजय और राज्यों की आकार-वृद्धि से राजा के पास अत्यधिक शक्तियाँ आ गयी | ब्राहमणों ने विभिन्न जटिल कर्मकाण्डों के विधानों से राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बना दिया |

सम्भवतः ऐसा लगता है कि राजाओं  (क्षत्रियों) और ब्राहमणों ने अन्य वर्णों पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए एक प्रकार का समझौता कर लिया था जिसमे ब्राह्मणों ने जटिल कर्मकाण्डों के द्वारा राजा को ईश्वर के समकक्ष घोषित कर दिया बदले में उन्हें कबीले में सर्वश्रेष्ठ स्थान दे दिया गया |

कदाचित् इसी काल से ब्राह्मणों में हर चीज को बिना किसी श्रम के नि:शुल्क पाना अपने अधिकार में शामिल कर लिया गया | इसकी पराकाष्टा हमे कालान्तर में मनु स्मृति में मिलती है, जिसमे मनु अधिकारपूर्वक कहता है कि शूद्रों द्वारा एकत्र धन को ब्राह्मणों को निर्भयतापूर्वक छीन लेना चाहिए |

ब्राह्मणों ने कई अनुष्ठानों के द्वारा राजा की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ावा दिया | राजा दिव्य शक्ति प्राप्त करने हेतु राजसूय यज्ञ करता था |

वाजपेय यज्ञ में रथदौड़ का आयोजन होता था जिसमे राजा का रथ अन्य सभी प्रतिस्पर्धीओं से आगे निकलता था | वास्तव में राजा को जिताया जाता था |

अश्वमेध यज्ञ में राजा का छोड़ा गया घोड़ा जिन-जिन क्षेत्रों से बिना किसी विरोध के गुजरता था, उन क्षेत्रों पर राजा का एकछत्र शासन माना जाता था |

अगर कोई विरोध स्वरुप घोड़े को पकड़ लेता था तो राजा को उस पर अपनी प्रभुत्व जमाने के लिए युद्ध करना पड़ता था |

जहाँ ऋग्वैदिक काल में बलि (कर या चढ़ावा) राजा को प्रजा द्वारा स्वेच्छा से प्राप्त होती थी वही अब यह अनिवार्य बन गयी | प्रजा से राजा के लिए कर का संग्रह करने के लिए संग्रहीतृ नामक अधिकारी नियुक्त किया जाता था | कर अन्न और पशु दोनों के रूप में वसूल किया जाता था | सम्भवतः आय का सोलहवां भाग कर के रूप में वसूला जाता था |

उत्तर वैदिक काल का राजनीतिक जीवन से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्य

उत्तर वैदिक काल का राजनीतिक जीवन (Political Life Of The Later Vedic Period) से सम्बन्धित महत्वपूर्ण व स्मरणीय तथ्य निम्नलिखित है –

  1. उत्तर वैदिक काल में यज्ञ का अनुष्ठान ऋग्वैदिक काल की तुलना में अत्यधिक बढ़ गया था |
  2. इस काल में ब्राह्मणों की शक्ति में असीम वृद्धि हुई |
  3. सभा और समिति की शक्तियाँ सीमित हो गयी और इनका स्वरुप भी परिवर्तित हो गया | अब इन दोनों संस्थाओं में राजाओं एवं अभिजात्य वर्गों का आधिपत्य बढ़ गया |
  4. सभा में स्त्रियों के प्रवेश पर रोक लगा दी गयी थी |
  5. ऋग्वेद कालीन विदथ का अस्तित्व अब खत्म हो चुका था |
  6. राज्यों के आकार में वृद्धि हुई और सत्ता जनजातीय से प्रादेशिक होने लगी थी |
  7. उत्तर वैदिक काल में ही राष्ट्र शब्द पहले पहल मिलने लगा | राष्ट्र का अर्थ प्रदेश अथवा क्षेत्र होता है |
  8. सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में रजा की उत्पत्ति का सिद्धांत मिलता है |
  9. ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार पूर्व दिशा के शासक सम्राट, पश्चिम के स्वराट्, उत्तर के विराट् और दक्षिण के भोज की उपाधि धारण करते थें | जबकि मध्य देश के शासक राजा कहलाते थें |
  10. राजा का पद अब आनुवांशिक बन गया था और यह पद सामान्यतः राजा के ज्येष्ठ पुत्र को प्राप्त होता था |
  11. इस काल में बलि (चढ़ावा) को राजा ने अपना अधिकार बना लिया था |
  12. अब कर और नजराना के संग्रह व संचालन के लिए संग्रहीतृ नामक अधिकारी की नियुक्ति की गयी |
  13. कर्मकाण्ड के विधानों ने राजा के पद को सर्वश्रेष्ठ और अत्यधिक प्रभावशाली बना दिया था |
  14. राजा देवता का प्रतीक समझा जाने लगा | अथर्ववेद में राजा परीक्षित का वर्णन ‘मृत्युलोक का देवता’ के रूप में किया गया है |
  15. विशाल यज्ञों का अनुष्ठान करके राजा अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते थें |
  16. गोपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा को राजसूय यज्ञ, सम्राट को वाजपेय यज्ञ, स्वराट् को अश्वमेध यज्ञ, विराट् को पुरुषमेध यज्ञ और सर्वराट को सर्वमेध यज्ञ करना चाहिए |
  17. राजसूय यज्ञ के द्वारा राजा दिव्य शक्ति प्राप्त करने का दावा करता था |
  18. निम्न स्तर में कानून-प्रशासन का भार ग्राम-सभाओं पर था, जिन पर प्रमुख कुलों के मुखियां अपना नियन्त्रण रखते थें |
  19. ग्राम-सभाएँ स्थानीय झगड़ों, वाद-विवादों आदि का फैसला भी करती थी |
  20. उत्तर वैदिक काल में भी, ऋग्वैदिक काल की भांति राजा के पास कोई स्थायी सेना नही थी |
  21. पालागल राजकीय आदेशों और संदेशों को पहुँचाने का काम करता था |
  22. अक्षवाप नामक अधिकारी आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता था |
  23. गोविकर्तन नामक आधिकारी जंगल विभाग का प्रमुख होता था |