उत्तर वैदिक काल की सामाजिक स्थिति

Uttar Vaidik Kaal Ki Samajik Sthiti in Hindi

उत्तर वैदिक काल की सामाजिक स्थिति (Uttar Vaidik Kaal Ki Samajik Sthiti/Social Status of the Later Vedic Period) : उत्तर वैदिक काल में समाज ऋग्वैदिक काल की भांति पितृसत्तात्मक ही रहा | इस काल में भी पिता की सम्पत्ति उत्तराधिकार में पुत्रों को मिलती थी | अगर कोई पुत्री इकलोती संतान होती थी तो पिता की सम्पत्ति की अधिकारी होती थी | अब परिवार के मुखिया (पिता) की शक्तियों और अधिकार में अत्यधिक वृद्धि हो गयी | पिता दण्डस्वरुप अपने पुत्र को उत्तराधिकार से वंचित कर सकता था | उत्तर वैदिक काल से पूर्व-पुरुषों की पूजा शुरू हो गयी थी |

ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों को जो उच्च स्थान प्राप्त था वों उत्तर वैदिक काल में समाप्त हो गया | यद्यपि कुछ स्त्रियों के शास्त्रार्थों में भाग लेने के उदाहरण मिलते है तथापि समाज में स्त्रियों का दर्जा गिर गया |

ऋग्वैदिक काल में ही समाज चार वर्णों में विभाजित हो गया था | इस काल में भी समाज स्थाई रूप से ब्राहमण, क्षत्रिय (राजन्य), वैश्य और शुद्र विभाजित रहा | अब वर्णव्यवस्था कर्म से हटकर जन्म पर आधारित हो गयी |

अर्थात अब किसी वर्ण का सदस्य अपनी इच्छानुसार किसी दूसरे वर्ण को नही अपना सकता था | इसके आलावा इन चारों वर्णों के अंतर्गत कई नई जातियाँ भी उत्पन्न होने लगी |

सामाजिक विभाजन में ब्राह्मणों ने खुद हो सर्वोच्च स्थान दिया हुआ था | जैसे-जैसे यज्ञ का अनुष्ठान जटिल और आडम्बरपूर्ण होता गया इनका सम्पादन करने वाले ब्राह्मणों का प्रभुत्व सभी वर्णों पर बढ़ता गया |

अब राजा भी युद्ध में आसानी से विजय प्राप्त करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा कराये गये अनुष्ठानों पर निर्भर रहने लगे, जिससे इनकी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति कई गुणा बढ़ गयी |

ब्राह्मण अपने यजमानों के लिए अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ करते थे और इसके बदले दक्षिणा में गाय, दासियाँ आदि प्राप्त करते थे | चूकिं वेद आदि धर्म-ग्रंथों के उच्चारण पर अत्यधिक बल दिया जाता था, क्योकिं इस प्रकार की गलती पर देवता कुपित हो सकता था और राजा या सम्पूर्ण जन को दण्ड दे सकता था, और ये काम केवल ब्राहमण ही कर सकते थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से ब्राहमणों का समाज में वर्चस्व कायम हो गया |

ब्राह्मण धार्मिक ज्ञान पर अपना एकाधिकार मानते थे | उन्होंने बहुत सारे अनुष्ठानों को जन्म दिया, जिनमे कुछ बहुत लम्बे तो कुछ जटिल थे और वे सामान्य जनमानस की समझ से परे थे | कुछ अनुष्ठान एक वर्ष से भी अधिक दिनों तक चलते थे |

यहाँ तक की उन अनुष्ठानों का आयोजन कराने वाला भी उनकी वास्तविकता से अनजान रहता था, और उन अनुष्ठानों को कराने से क्यों और क्या फल मिलेगा यह केवल ब्राह्मणों द्वारा बताई गयी बातों तक ही सीमित था |

शायद ही उस काल में राजा या किसी अनुष्ठानकर्ता ने इस बात पर गंभीरता से मनन किया हो कि यज्ञों में दी जाने वाली अंधाधुंध पशुबलि से अर्थव्यवस्था और समाज पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ रहा था |

इन अनावश्यक अनुष्ठानों के कारण के पीछे निसंदेह ब्राह्मणों की धन-लोलुपता की भावना रही होगी | जिसका पता इस बात से शायद आसानी से लग जायेगा कि राजसूय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को राजा दक्षिणास्वरुप दो लाख चालीस हजार गायें भेंट करता था |

कही-कही तो पुरोहित द्वारा राजा से दक्षिणास्वरुप राज्य का कुछ हिस्सा भी मांगने का वर्णन मिलता है | गायों के आलावा पुरोहितों को सोना, महगें वस्त्र आदि विलासिता की वस्तुएं तथा दासियाँ भी प्राप्त होती थी | दक्षिणा की पराकाष्ठा सम्भवतः शतपथ ब्राह्मण में देखने को मिलती है जिसमे वर्णन है कि राजा को अश्वमेध यज्ञ में पुरोहित को पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चारों दिशायें दे देनी है | 

वैश्य जोकि वास्तव में राजा के पूर्वकालीन परिजन थे अब पूर्णरूप से कृषि, पशुपालन और व्यापार में लगा दिए गये | कुछ शिल्प कार्य में भी संलग्न थे | ऐसा माना जाता है कि इस काल में राजा केवल वैश्य वर्ग से ही राजस्व वसूलता था | इस वर्ग के द्वारा चुकायें गये राजस्व से ही राजा और ब्राहमण विलासतापूर्ण जीवन जीते थे |

उपरोक्त तीनों वर्ण उपनयन संस्कार के अधिकारी थे अर्थात वे वैदिक मन्त्रों के साथ जनेऊ धारण का अनुष्ठान कराने के अधिकारी थे |

उत्तर वैदिक काल में सबसे दयनीय स्थिति शूद्रों की बना दी गयी | इसी काल से ऊपर के तीन वर्णों और चौथे वर्ण शुद्र के मध्य एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी गयी | शूद्रों को हर प्रकार से सुविधाहीन कर दिया गया |

वैदिक ग्रन्थों ने इसे तीनों वर्णों का सेवक, उनकी इच्छानुसार जीवन जीने वाला और जब चाहे पीट दिया जाने वाला घोषित कर दिया | शुद्र का उपनयन संस्कार वर्जित हो गया | इनके यज्ञ करने और वैदिक ग्रंथों को पढ़ने पर पाबंदी लगा दी गयी |

इस काल में शूद्रों के अचल सम्पत्ति के स्वामित्व के अधिकारों को छीन लिया गया | लेकिन अभी भी कुछ यज्ञों में शूद्रों की भागीदारी को स्वीकृति प्रदान की गयी है |

उत्तर वैदिक काल में चारो वर्णों के लिए सम्बोधन के तरीके भी अलग-अलग देखने को मिलते है | ब्राह्मण को एहि अर्थात् आइये, क्षत्रिय के लिए आगहि (आओ), वैश्य के लिए आद्रव अर्थात् जल्दी आओ और शुद्र के लिए आधाव अर्थात् दौड़कर आओ कहकर सम्बोधित किये जाने का वर्णन मिलता है |

इन सब बुराईयों के बावजूद उत्तर वैदिक काल में अभी तक छुआछूत (अस्पृश्यता) की भावना नही पनपी थी | शुद्र शिल्प-कार्य में भी संलग्न थे | शिल्पियों में रथकार विशेष स्थान मिला हुआ था | उसे यज्ञोपवीत पहनने की स्वतंत्रता मिली हुई थी |

उत्तरवैदिक काल की एक महत्वपूर्ण घटना थी गोत्र-प्रथा की स्थापना | गोत्र शब्द शाब्दिक अर्थ होता है – गोष्ठ | गोत्र (गोष्ठ) वह स्थान कहलाता था जहाँ सम्पूर्ण कुल का गोधन पाला जाता था |

कालान्तर में गोत्र का अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न हुए सदस्यों का एक समुदाय हो गया | चूकिं एक गोत्र किसी एक पुरुष विशेष से उत्पन्न हुआ माना जाता था अतः एक ही गोत्र के लोगों के मध्य विवाह निषिद्ध हो गया | 

उत्तर वैदिक काल में अन्तर्वर्णीय विवाह, बहुविवाह, विधवा विवाह प्रचलित थें | नियोग प्रथा और दहेज प्रथा भी प्रचलित थी | लेकिन इस काल में बाल विवाह और पर्दा प्रथा का वर्णन नही मिलता है |

यद्यपि उत्तर वैदिल काल में सती प्रथा प्रचलित नही थी, फिर भी इस काल में सती प्रथा का प्रचलन सांकेतिक रूप में मिलता है | अथर्ववेद में उल्लेख मिलता है कि विधवा स्त्री अपने मृत पति के शव के पास लेटती थी और उसके बाद सम्बन्धी उसे घर जाने को कहते थें |

ऋग्वैदिक काल की भांति स्त्रियों को पर्याप्त शिक्षा प्राप्त हो रही थी | वें धार्मिक समारोहों और उत्सवों में हिस्सा लेती थी |

लेकिन फिर भी उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा ऋग्वैदिक काल की तुलना में गिरती जा रही थी | अब उनकी सामाजिक व धार्मिक प्रतिष्ठा पूर्व की भांति नही रह गयी थी | अथर्ववेद में में कन्या के जन्म की निंदा का उल्लेख मिलता है | ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को समस्त दुःखों का स्रोत और उसे ‘कृपण’ बताया गया है |

उत्तर वैदिक कालीन समाज के लोगों का शेष जीवन अर्थात् खान-पान, रहन-सहन, वस्त्र-आभूषण, मनोरंजन इत्यादी ऋग्वैदिक काल की ही भांति था |

उत्तर वैदिक काल की सामाजिक स्थिति महत्वपूर्ण तथ्य (Social Status of the Later Vedic Period Important Facts)

  1. उत्तर वैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था का आधार कर्म की जगह जाति पर आधारित हो गया था |
  2. ऐतरेय ब्राह्मण में सर्वप्रथम चारो वर्णों के कर्मों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है |
  3. इस काल में अस्पृश्यता (छुआछूत) की भावना का उदय नही हुआ था |
  4. वैश्य को अन्यस्यवलिकृत अर्थात् दूसरे को कर देने वाला कहा गया |
  5. शुद्र को अन्यस्यप्रेस्य अर्थात् तीनों वर्णों का सेवक कहा गया |
  6. शतपथ ब्राह्मण में चारो वर्णों की अन्त्येष्टि हेतु चार प्रकार के टीलों का वर्णन मिलता है |
  7. शतपथ ब्राह्मण सोमयज्ञ में शुद्र वर्ण को स्थान देता है |
  8. मैत्रायणी संहिता में स्त्री की तुलना द्युत और मदिरा से की गयी है |