ऋग्वेदकाल में वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक वर्गीकरण

Rigveda kaal mein varn vyavastha

ऋग्वेदकाल में वर्ण-व्यवस्था (Rigveda kaal mein varn vyavastha/Varna System in Rigveda Period) और सामाजिक-वर्गीकरण : ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग रंग के अर्थ में हुआ था | ऐसा माना जाता है कि विदेशी आर्य गौरे रंग (वर्ण) के थे और भारत के मूल निवासी काले रंग के थे | कुछ विद्वानों का मानना है कि रंगभेददर्शी पश्चिमी लेखकों ने रंग की धारणा को कुछ ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया है |

डा. अम्बेडकर मानते थे कि यूरोपीय लेखकों के विचार रंगभेद पर आधारित पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे, इसलिए उन्होंने जाति-प्रथा पर विचार करते समय रंग की भूमिका पर जरूरत से ज्यादा बल दिया |

इस बात पर पाठकों को ध्यान देना आवश्यक कि इस काल में हमे वर्ण-व्यवस्था देखने को मिलती है न कि जाति-प्रथा, जैसाकि बाद के कालों में देखने को मिलती है | जाति का शाब्दिक अर्थ जन्म होता है | इसकी सदस्यता जन्म पर आधारित होती थी |

सामान्तया कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता, गुण, उच्च शिक्षा, सम्पत्ति, अथवा व्यवसाय-परिवर्तन के द्वारा अपनी जाति नही बदल सकता था | एक बार व्यक्ति जिस जाति में जन्म ले लेता है वह जीवनपर्यन्त उसी का सदस्य बना रहता था | जाति के सामने व्यक्ति के सभी गुण गौण होते थे |

ऋग्वैदिक आर्यों का कबायली समाज प्रारम्भ में तीन वर्गो में विभाजित हुआ | प्रथम योद्धा, द्वितीय पुरोहित और तृतीय सर्वसाधारण (प्रजा) |

प्रारम्भ में कबीले में समाजिक समानता का भाव था | लेकिन कालान्तर में युद्ध द्वारा विजित वस्तुओं में योद्धा और पुरोहित बड़ा हिस्सा लेने लगे और स्वाभविक रूप से वे दोनों सर्वसाधारण को वंचित करते हुए शक्तिशाली और सम्पन्न होते गये |

इस प्रकार ऋग्वैदिक समाज में असमानता बढ़ने लगी और सर्वसाधारण कबायली लोग अन्य दोनों वर्गो के आगे कमजोर होते गये |

आगे चलकर ऋग्वैदिक समाज चार वर्णों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में विभक्त हो गया |

चौथा वर्ग शुद्र ऋग्वैदिक काल के अंत में अस्तित्व में आया क्योकि इसका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मंडल में मिलता है, जो ऋग्वेद में सबसे बाद में जोड़ा गया था |

ऋग्वेद के दसवें मंडल के ‘पुरुष-सूक्त’ में चारों वर्णों की उत्पत्ति के विषय में उल्लेख है कि जब देवताओं ने ‘आदि पुरुष’ की बलि दी तो उसके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य और पैरों से शुद्र उत्पन्न हुए |

इस काल में समाज का यह वर्गीकरण जन्म पर आधारित नही था बल्कि लोगों के व्यवसाय (कार्य) पर आधारित था |

पुरोहितों व शिक्षकों को ब्राह्मण, शासकों व प्रशासकों को क्षत्रिय, वणिकों, साहूकारों व कृषकों को वैश्य और दासों, शिल्पियों और कारीगरों को शुद्र कहा जाता था |

इन व्यवसायों या कार्यों को अपनाने पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नही था | कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता, इच्छा और आवश्यकता के अनुसार कोई भी व्यवसाय अपना सकता था या बदल सकता था |

यहाँ तक की एक ही परिवार के सदस्य इच्छानुसार अलग-अलग व्यवसाय में संलग्न थे और अलग-अलग वर्ण में शामिल थे |

इसका सबसे सुन्दर उदाहरण ऋग्वेद के एक सूक्त में मिलता है जिसमे किसी परिवार का एक सदस्य कहता है – “मैं कवि हूँ, मेरे पिता वैद्य हैं, मेरी माता चक्की चलाने वाली है, भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम एक साथ रहते है, जैसे पशु (अपने बाड़े में) रहते हैं |”

अन्तर्जातीय विवाह पर अभी तक कोई रोक नही लगी थी | कोई भी वर्ण आपस में विवाह कर सकता था | सहभोज और व्यवसाय-परिवर्तन पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध नही था | छुआछूत का कोई उदहारण नही मिलता | शूद्र द्वारा बनाये गये भोजन को ग्रहण करने से अन्य तीन वर्ण परहेज नही करते थे |