सुल्तान के रूप में इल्तुतमिश

Sultaan Ke Roop Mein Iltutamish

सुल्तान के रूप में इल्तुतमिश (Sultaan Ke Roop Mein Iltutamish) : इल्तुतमिश ने सिंहासनारोहण के बाद स्वयं को राजनीतिक दलदल मे पाया | उसे कांटों भरा ताज मिला था | दिल्ली के नव-स्थापित तुर्की साम्राज्य का अस्तित्व लगभग समाप्त हो चुका था | उसके अधिकार में केवल दिल्ली, बदायूं, अवध और बनारस से लेकर शिवालिक पर्वतमालाओं तक का क्षेत्र था | इस प्रकार इल्तुतमिश ने वास्तव में एक छोटे से तुर्की राज्य के शासक के रूप में कार्य करना शुरू किया

इल्तुतमिश के शासनकाल के तीन चरण

इल्तुतमिश के छब्बीस वर्ष के शासनकाल को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है | प्रथम चरण 1210-1220 तक, जब उसने अपने विरोधियों का दमन किया | दूसरा चरण 1221-1227 तक, जब उसने मंगोल समस्या का सामना किया और तीसरा चरण 1228-1236 तक, जब उसने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ करने में अपना समय लगाया |

इन तीनों ही चरणों में इल्तुतमिश ने सुल्तान के रूप में अपनी योग्यता का परिचय दिया | उसने अपने नव-स्थापित तुर्की राज्य को शक्तिशाली व संगठित किया और उस पर अपने वंश के अधिकार को सुरक्षित रखा | 

इल्तुतमिश की कठिनाइयां

इल्तुतमिश बड़ी ही विपरीत परिस्थितियों में सुल्तान बना था | वह चारो ओर प्रतिद्वंद्वियों और अनेकों समस्याओं से घिरा हुआ था | इल्तुतमिश की प्रमुख कठिनाइयाँ अथवा समस्याएं निम्नलिखित थी –

  1. विभाजित राज्य
  2. तुर्की कुलीनों से समस्या
  3. ताजुद्दीन याल्दौज
  4. नासिरुद्दीन कुबाचा
  5. मलिक अलाउद्दीन अलीमर्दान खिलजी
  6. राजपूत सरदारों से खतरा
  7. पश्चिमोत्तर सीमा की समस्या
  8. खोखरों से समस्या

विभाजित राज्य

इल्तुतमिश के सिंहासनारोहण तक दिल्ली का नव-स्थापित तुर्की साम्राज्य चार स्वतंत्र राज्यों में विभाजित हो चुका था | दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण में मुल्तान एवं उच तथा सिंध में समुद्र तट तक सिविस्तान नासिरुद्दीन कुबाचा के नियंत्रण में था, बंगाल के शासक अली मर्दान खां ने दिल्ली की अधीनता को अस्वीकार करते हुए सुल्तान अलाउद्दीन की उपाधि धारण करके स्वतंत्र शासक की भांति व्यवहार करने लगा, तथा लाहौर, जिस पर आराम शाह की मृत्यु के पश्चात इल्तुतमिश, याल्दौज तथा कुबाच तीनों की ही निगाहें टिकी हुई थी, परिस्थितियों के अनुसार एक-के नियंत्रण से निकलकर दूसरे के नियंत्रण में जाता रहा |

तुर्की कुलीनों से समस्या

सिंहासनारोहण के पश्चात इल्तुतमिश के सम्मुख तत्कालीन सबसे बड़ी समस्या मुइज्जी (मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गौरी के समय के) तथा कुतुबी (कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के) कुलीनों से थी | ये कुलीन अपने-आप को किसी भी दृष्टि से इल्तुतमिश से कम योग्य और कम शक्तिशाली नहीं मानते थे | मुइज्जी कुलीन की दृष्टि मे इल्तुतमिश उनके स्वामी के दास (ऐबक) का दास था | अनेक कुलीनों ने इल्तुतमिश को सुल्तान मानने से इंकार कर दिया | वे उसके स्थान पर प्राचीन राजवंश के किसी सदस्य को सुल्तान बनाना चाहते थे | उनकी निगाहें सिंहासन पर टिकी थी, इसलिए इल्तुतमिश को इन कुलीनों से लगातार खतरा बना हुआ था

ताजुद्दीन याल्दौज

ऐबक का सासुर ताजुद्दीन याल्दौज, जो गजनी पर अधिकार किए हुए था, अभी भी गौरी के भारतीय प्रदेशों पर प्रभुता का अपना पुराना दावा कर रहा था | वह इल्तुतमिश के सर्वाधिक कट्टर विरोधियों में से एक था तथा इल्तुतमिश को गजनी के एक सूबेदार के रूप में ही भारत के तुर्की राज्य का शासन संभालते हुए देखना चाहता था |

नासिरुद्दीन कुबाचा

इल्तुतमिश का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी सिन्ध और मुल्तान का सूबेदार नासिरुद्दीन कुबाचा था | वह गौरी का योग्य दास अधिकारी था तथा स्वर्गीय सुल्तान ऐबक का सगा बहनोई था | इसलिए उसकी स्थिति किसी भी रूप इल्तुतमिश से कमजोर नहीं थी तथा स्वयं को ऐबक का उत्तराधिकारी मानता था | इल्तुतमिश की कठिनाइयों का लाभ उठाकर उसने भटिंडा, कुहराम, सरसुती तथा लाहौर को भी अपने अधिकार में कर लिया था, तथा पंजाब पर भी अपना आधिपत्य जमाना चाहता था |

मलिक अलाउद्दीन अलीमर्दान खिलजी

इख्तियारउद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी का हत्यारा अलीमर्दान ऐबक की मदद से पुनः बंगाल का सूबेदार नियुक्त हुआ था, तथा उसने ऐबक से वादा किया था कि वह ऐबक के अधीन रहते हुए उसे वार्षिक-कर देता रहेगा | लेकिन ऐबक की मृत्यु के पश्चात उसने दिल्ली के प्रति स्वामीभक्ति त्याग दी तथा सुल्तान अलाउद्दीन की उपाधि धारण करके बंगाल तथा बिहार का स्वतंत्र शासक बन गया |

राजपूत सरदारों से खतरा

ऐबक के शासनकाल में जिन राजपूत सरदारों ने दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली थी, उन्होंने इल्तुतमिश की कठिनाइयों का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी | इस प्रकार कालिंजर, ग्वालियर, जालौर, रणथम्भौर, अजमेर, दोआब आदि ने अपने आप को तुर्की पराधीनता से आजाद घोषित कर दिया था | इन राजपूत राज्यों की स्वतंत्रता दिल्ली सल्तनत की अखंडता के लिए एक गंभीर खतरा बन गई थी |

पश्चिमोत्तर सीमा की समस्या

पश्चिम-उत्तर सीमा की रक्षा करना भी इल्तुतमिश के लिए एक कठिन समस्या थी | मंगोलों ने ख्वारिज्म के अंतिम शाह जलालुद्दीन मंगबर्नी कोपरास्त कर दिया था | जलालुद्दीन मंगबर्नी चंगेज खां के चंगुल से भागकर सिंधु नदी के किनारे पहुंचा | उसने शक्तिशाली खोखर सामंत से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया तथा खोखरों की मदद से कुछ भारतीय प्रदेशों पर अधिकार भी कर लिया | उसका पीछा करते हुए मंगोल नेता चंगेज खां भी सिन्धु तट पर आ पहुंचा, जिसने दिल्ली सल्तनत के सम्मुख एक गंभीर समस्या उत्पन्न हो गयी | इसके अलावा मंगोलों से भयभीत मध्य-एशिया के बहुत से लोग भागकर उत्तर-पश्चिमी सीमा से भारत में प्रवेश कर रहे थे, जो नव-स्थापित दिल्ली सल्तनत के लिए एक समस्या बन सकते थे | इस प्रकार पश्चिम-उत्तर सीमा से भी दिल्ली को गंभीर खतरा बना हुआ था |

खोखरों से समस्या

खोखर नामक हिन्दू जाति झेलम और सिंधु नदियों के बीच निवास करती थी | यह बहादुर और खूंखार जाति थी तथा आरंभ से ही तुर्कों की शत्रु थी | खोखर जाति की शत्रुता के कारण पश्चिम-उत्तर सीमा की सुरक्षा की समस्या और कठिन हो गई थी, क्योंकि ख्वारिज्म के शाह मंगबर्नी ने खोखरों से वैवाहिक संबंध स्थापित करके दिल्ली के अधीन कुछ क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमा लिया था |