बुद्ध की कहानी 4 : महाप्रजापति गौतमी की दीक्षा

बुद्ध की कहानी 4 : महाप्रजापति गौतमी की दीक्षा | वैशाली में ही भगवान् ने पहली बार स्त्रियों को भी अपने संघ में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की थी और प्रथम भिक्षुणी-संघ स्थापित किया | संघ में प्रवेश पाने वाली पहली स्त्री उनकी विमाता महाप्रजापति गौतमी थी, जो राजा शुद्धोदन की मृत्यु के पश्चात् कपिलवस्तु से चलकर वहां पहुंची थीं |

बोधिसत्त्व पहले तो स्त्रियों को संघ में लेने के विरोधी थें, लेकिन महाप्रजापति गौतमी के अनुनयविनय करने और अपने प्रिय शिष्य आनंद के आग्रह पर उन्होंने इसकी अनुमति दे दी थी | दरअसल, भगवान् बुद्ध के व्यक्तिगत जीवन में महाप्रजापति गौतमी की अतिमहत्वपूर्ण भूमिका रही थी, उनकी प्रारंभिक शिक्षा भी उन्ही के देखरेख में हुई थी साथ ही माँ का प्यार भी उन्ही से मिला था |

ऐसा वर्णन मिलता है कि जब बोधिसत्त्व कपिलवस्तु न्योग्रोधाराम में विहार कर रहे थे तब महाप्रजापति गौतमी वहां आई और भगवान् को वन्दना कर कहा “भन्ते ! अच्छा हो (यदि) मातृग्राम (स्त्रियाँ) भी भगवान् के दिखाये धर्म-विनय (धर्म) में घर से बेघर हो प्रब्रज्या पावें |”  

महाप्रजापति ने तथागत से बार-बार आग्रह किया था कि वे उन्हें और अन्य स्त्रियों को “घर से निकलकर बेघर जीवन में आने दें |” लेकिन बोधिसत्त्व ने मना कर दिया था | ऐसा नही है कि बोधिसत्त्व के मन में संघ में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर स्थान देने के सम्बन्ध में कोई पूर्वाग्रह था, बल्कि वास्तव में वे भिक्षुओं के नैतिक अनुशासन को लेकर चिंतित थें |

इसके बाद तथागत जब वैशाली में महावन की कूटागार-शाला में विहार कर रहे थें, तब महाप्रजापति गौतमी ने अपने सिर के बाल काट कर काषाय वस्त्र पहन कर अपने साथ कुछ शाक्य स्त्रियों को लेकर संन्यासिन के वस्त्रों में उनसे मिलने वैशाली में महावन की कूटागार-शाला पहुंच गयी | महाप्रजापति फूले-पैरों, धूल-भरे शरीर से, दुःखी, अश्रु-मुखी द्वार-कोष्टक (बड़ा द्वार, जिसपर कोठा होता था) के बाहर जा खड़ी हुईं |

उन्हें देखकर आयुष्मान् आनंद महाप्रजापति को वहां खड़ा देखकर पूछा “गौतमी ! तुम दुखी व विलाप करती हुई द्वार के बाहर क्यों खड़ी हो ? तुम्हारे पांवों में सूजन क्यों है ? वे धूल से सने क्‍यों हैं ?”

महाप्रजापति ने कहा, “भन्ते ! आनन्द ! तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में स्त्रियों की घर छोड़ बे-घर प्रब्रज्या की भगवान् अनुज्ञा नहीं देते |”

“गौतमी ! तू यहीं रह, बुद्ध-धम्म में स्त्रियों की प्रब्रज्या के लिये मैं भगवान् से प्रार्थना करता हूँ |”

तब आयुष्मान् आनन्द भगवान्‌ के पास गये | भगवान् को अभिवादनकर एक ओर बैठ, भगवान् से बोले –

“भन्ते ! महाप्रजापति गौतमी फूले-पैरों धूल-भरे शरीर से दुःखी अश्रु-मुखी रोती हुई द्वार-कोष्ठक के बाहर खड़ी है (कि) तथागत बुद्ध-धम्म में स्त्रियों की प्रब्रज्या की अनुज्ञा नही देते | भन्ते अच्छा हो स्त्रियों को बुद्ध-धम्म में प्रब्रज्या मिले |”

“नहीं आनन्द ! मत तुझे रुचे – तथागत के बतलाये धम्म में स्त्रियों की घर से बे-घर हो प्रब्रज्या |”

आयुष्मान् आनन्द के तीन बार अनुरोध करने पर भी जब तथागत नही माने तब आनन्द ने सोचा, “भगवान तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में स्त्रियों की घर से बेघर प्रब्रज्या की अनुज्ञा नहीं देते, क्‍यों न मैं दूसरी तरह से प्रब्रज्या की अनुज्ञा मांगू |”

तब आयुष्मान् आनन्द ने महाप्रजापति गौतमी का पक्ष लेकर भगवान् से तर्क किया और कहा कि क्या स्त्रियों को निर्वाण का अधिकार नहीं है ? तथागत को स्वीकार करना पड़ा कि है | फिर आनन्द ने कहा कि क्या उनकी विमाता ही, जिन्होंने तथागत का बड़े प्यार से लालन-पालन किया, इस उच्चपद से वंचित रह जायेंगी |

इस तर्क के आगे तथागत मौन हो गये और उन्हें अनिच्छा से इसकी अनुमति देनी पड़ी, बशर्ते वे कुछ कड़ी शर्तों और अनुशासन का पालन करें |

एक समय भगवान्‌ वैशाली में महावन की कूटागार-शाला में विहार कर रहे थे | तब महाप्रजापती गौतमी वहां आई | तथागत को अभिवादन कर, एक ओर बैठ गई और बोली,

“भन्‍ते ! अच्छा हो (यदि) भगवान् संक्षेप में धर्म का उपदेश करें, जिसे भगवान् से सुनकर, एकाकी-उपकृष्ट, प्रमाद-रहित हो (मैं) आत्म-संयमकर विहार करूँ |”

“गौमती ! जिन धर्मों को तू जाने कि, वह (धर्म) स-राग के लिए है, विराग हेतु नहीं | संयोग के लिये हैं, वि-संयोग (वियोग) हेतु नहीं | जमा करने के लिये हैं, विनाश हेतु नहीं | इच्छाओं को बढ़ाने हेतु हैं, इच्छाओं को अल्प करने हेतु नहीं | असंतोष के लिये हैं, संतोष हेतु नहीं | भीड़ के लिये हैं, एकान्त के लिये नहीं | अनुद्योगिता के लिये हैं, उद्योगिता हेतु नही | दुर्भरता (कठिनाई) हेतु है, सुभरता (आसानी) के लिए नहीं | तो तू गौतमी ! सोलहों आने जान, कि न वह धर्म है, न विनय है, न शास्ता (बुद्ध) का शासन (उपदेश) है |”

“और गौतमी ! जिन धर्मों को तू जाने, कि वह विराग हेतु है, सराग हेतु नहीं | वियोग हेतु है, ….. | उद्योग हेतु है, ….. | विनाश हेतु है, ….. | इच्छाओं को अल्प करने हेतु है, ….| संतोष हेतु है, ….. | एकांत हेतु है, …. | उद्योग हेतु है, …..| सुभरता हेतु है, …..| तो तू गौतमी ! सोलहों आने जान, कि यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का शासन है |”