बुद्ध की कहानी 5 : अनाथपिण्डक का दान

बुद्ध की कहानी 5 : अनाथपिण्डक का दान | बौद्ध धर्म का सर्वाधिक प्रचार कोशल राज्य में हुआ, जहाँ बुद्ध इक्कीस वास किये थें | यहाँ का एक अत्यधिक धनी व्यापारी सुदत्त था, जिसका व्यापार उस समय के सम्पूर्ण भारत में फैला हुआ था | अपनी दानशीलता के लिए वह बहुत प्रसिद्ध था | बेसहाराओं के लिए उसका भण्डार सदैव खुला रहता था, इसीलिए वह ‘अनाथपिण्डक’ अर्थात् ‘अनाथों को भोजन देने वाला’ नाम से विख्यात हो गया था | सम्भवतः वह बोधिसत्त्व की समान आयु का ही था | उसकी मुलाकात भी भगवान् से आरंभिक काल में ही हो गयी थी | बुद्ध होने के चार-पांच वर्ष बाद ही पहली बार अनाथपिण्डक को भगवान् के दर्शन और उपदेश सुनने का सौभाग्य मिल गया था | उसी समय वह बोधिसत्त्व का शिष्य बन गया था |

ऐसा वर्णन मिलता है कि एक बार बोधिसत्त्व राजगृह के सीतवन में विहार कर रहे थें, उस समय अनाथपिण्डक गृहपति, जोकि राजगृह-श्रेष्ठी का बहनोई था, किसी काम के सिलसिले में राजगृह गया था | वह जब राजगृहक-श्रेष्ठी के घर पहुंचा तो देखा कि राजगृह-श्रेष्ठी अपने दासों और अन्य लोगों को आज्ञा दे रहा था कि समय पर उठकर खिचड़ी पकाओं, भात पकाओ, तेमन (सूप) तैयार करो आदि, क्योकि उसने बोधिसत्त्व को भिक्षु-संघ सहित दूसरे दिन हेतु निमंत्रण दे रखा था |

राजगृहक-श्रेष्ठी को इतना व्यस्त देखकर अनाथपिण्डक गृहपति सोचने लगा कि “पहले मेरे आने पर यह गृहपति, सब काम छोड़कर मेरी ही आवभगत में लगा रहता था | आज विक्षिप्त सा दासों कर्म-करों को आज्ञा दे रहा है | क्या इस गृहपति के यहां आवाह होगा या विवाह होगा या महायज्ञ उपस्थित है, या लोग-बाग-सहित मगध-राज श्रेणिक बिम्बिसार कल के लिये निमंत्रित किये गये हैं |”

राजगृहक-श्रेष्ठी दासों व कर्मकरों को आज्ञा देकर, अनाथपिण्डक को प्रणाम करके उसके पास बैठ गया | तब अनाथपिण्डक ने उससे कहा कि “पहले मेरे आने पर तुम सब काम छोड़कर……. |”

तब राजगृहक-श्रेष्ठी ने कहा कि “गृहपति, मेरे यहां न आवाह है, न विवाह है, न मगध-राज निमंत्रित किये गये हैं | संघ-सहित बुद्ध कल के लिये निमंत्रित है |”

अनाथपिण्डक को ‘बुद्ध’ शब्द सुनकर परम आनन्द का अनुभव हुआ और उसने आश्चर्य से कहा, “गृहपति, ‘बुद्ध’ यह शब्द भी लोक में दुर्लभ है | हे गृहपति, क्‍या इस समय उन भगवान् अर्हत् सम्यक्-सम्बुद्ध के दर्शन हेतु जाया जा सकता है |”

राजगृहक-श्रेष्ठी ने उत्तर दिया कि “गृहपति, यह समय उन भगवान अर्हत् सम्यक्-सम्बुद्ध के दर्शनार्थ जाने का नहीं है |”

तब अनाथपिण्डक ने मन में दृढ़ निश्चय किया कि “अब कल समय पर उन भगवान्‌ के दर्शनार्थ जाऊँगा |” 

वह भगवान् से मिलने को इतना उत्सुक था कि रात में सुबह समझकर तीन बार उठ बैठा | सुबह अनाथपिण्डक भगवान् से मिलने सीतवन पहुंच गया | तथागत ने अनाथपिण्डक को अपनी ओर आते देखा तो बोले “आ सुद्त्त” |

अनाथपिण्डक ‘भगवान्‌ मुझे नाम लेकर बुला रहें हैं’ यह सोच फूला न समाता और भगवान् के चरणों में अपना सिर रख बोला –

‘भन्ते, भगवान्‌ को निद्रा सुख से तो आई ?’

‘निर्वाण-प्राप्त (वह) ब्राह्मण सर्वदा सुख से सोता है |

जो शीतल दोष-रहित हो काम-वासनाओं में लिप्त नहीं होता |

सारी आसक्तियों को खंडित कर हृदय से डर को हटाकर,

चित्त की शांति को प्राप्त कर उपशांत हो वह सुख से सोता है |’

बोधिसत्त्व के उपदेशों को सुनकर व उनके दिव्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अनाथपिण्डक बुद्ध, धम्म व संघ की शरण में आ उपासक बन अगले दिन भिक्षु-संघ सहित तथागत को भोजन करवाया |

फिर उसने भगवान् से निवेदन किया कि ‘भिक्षु-संघ के साथ भगवान्‌ श्रावस्ती में वर्षावास स्वीकार करें |’ भगवान् ने कहा कि ‘गृहपति, तथागत एकांत आगार पसंद करते है |’

उसके बाद अनाथपिण्डक राजगृह से श्रावस्ती जाते समय मार्ग में लोगों को सब जगह कहते गया कि “आयों, आराम बनवाओ, विहार स्थापित करो | लोक में बुद्ध उत्पन्न हो गये हैं | उन भगवान्‌ को मैंने निमंत्रित किया है | वह इस मार्ग से आयेंगे |”

श्रावस्ती लौट कर अनाथपिण्डक ऐसा स्थान खोजने लगा, जो आबादी से न बहुत दूर हो, न बहुत समीप | जहाँ आने-जाने में कोई कठिनाई न हो | दिन में जहाँ कम भीड़ हो तथा रात में शोरगुल न हो | उसे मालूम पड़ा कि ऐसा स्थान श्रावस्ती से दक्षिण-पश्चिम के कोने पर अवस्थित राजकुमार जेत का उद्यान है | उसने राजकुमार जेत से उद्यान खरीदने की बात कि लेकिन जेत ने मना कर दिया | बाद में तय हुआ कि अगर वह कोने से कोना मिलाकर पूरे उद्यान को मुद्राओं (सिक्कों) से ढक दे, तो वह उद्यान ले सकता है | इस प्रकार अनाथपिण्डक ने भारी रकम खर्च करके जेतवन को खरीदा था |

पाली ग्रंथों में वर्णन आया है कि अनाथपिण्डक ने अट्ठारह करोड़ कार्षापणों को बिछा कर जेतवन को खरीदा था | तथागत के महापरिनिर्वाण के ढाई सौ साल पश्चात् ही बने भरहुत के स्तूप में आहत सिक्‍कों को बिछा कर जेतवन को लेने को लिखा हुआ है, जिसमें जेतवन के “कोटि सन्ठतेन केते” (किनारे से सिक्के बिछा कर ख़रीदा) अंकित है |

वर्षाकाल में यह विहार भगवान् का सबसे प्रिय आवास बन गया था | त्रिपिटक में संगृहीत उनके सबसे अधिक उपदेश यहीं दिये गये थें | यही कारण है कि जेतवन बौद्धों हेतु बहुत पूज्य और प्रिय स्थान है |

ऐसा कहा जाता है कि अनाथपिण्डक को अपने जीवन के अंतिम समय में व्यापार में बहुत नुकसान हुआ, जिसके कारण वह दरिद्र हो गये थे | लेकिन फिर भी वह जब जेतवन में आते, तो कभी खाली हाथ न आते और कुछ-न-कुछ अवश्य लेकर आते | और अगर कुछ न होता, तो राप्ती का बालू लाकर ही आँगन में बिखरते |

राजकुमार जेत ने भी तथागत के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हुए थोड़ी सी जमीन को मुद्राओं से ढँकने नहीं दिया था, और उस स्थान पर अपने धन से बहुत बड़ा द्वार बनवा दिया था | आज इसी जेतवन के कारण ही जेत राजकुमार का भी नाम अमर है |