हड़प्पा सभ्यता में मृतकों का संस्कार (Cremation of the Dead in the Harappan Civilization) : हड़प्पा-सभ्यता में मृतकों के अंतिम संस्कार की विशेषरूप से कोई एक प्रथा देखने को नही मिलती है | हड़प्पा-सभ्यता में बस्तियों के आकार और उनकी सम्भावित जनसंख्या की तुलना में कंकाल-अवशेष अत्यधिक कम संख्या में मिले है | इससे स्पष्ट होता है कि शव को दफनाने के साथ-साथ अग्नि-दाह संस्कार प्रथा भी प्रचलित थी |
सम्भवतः अग्नि-दाह संस्कार ज्यादा प्रचलित था | शवों को दफनाने की प्रथा कम प्रचलित होंगी | कालान्तर में भारतीय संस्कृति में अग्नि-दाह संस्कार ही सर्वाधिक प्रचलित हुआ |
[लेखक के अनुसार अग्नि-दाह संस्कार को इसलिए अच्छा माना गया होगा क्योकि भारतीय संस्कृति में अग्नि को अत्यधिक पवित्र माना जाता है और ऐसा माना जाता है कि भगवान और उसके भक्त के बीच अग्नि मध्यस्थ की भूमिका निभाती है | भक्त जो भी प्रिय वस्तु अपने देवता को अर्पित करना चाहता है वह अग्नि (हवन-कुण्ड) में डाल देता है और मानता है कि अग्नि इसे उसके भगवान को दे देगी | सम्भवतः इसी भाव (सोच) से प्राचीन लोगो ने अपने प्रिय की मृत्यु पर उसे अग्नि में समर्पित करना पसन्द किया होगा कि अग्नि उस व्यक्ति की आत्मा की ईश्वर से मिला देगी | स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह सही है क्योंकि शव (अगर किसी बीमारी से संक्रमित है) को जला देने से संक्रमण फैलने का खतरा भी खत्म हो जाता है | लेकिन पुरातत्ववेत्ताओं के लिए दाह-संस्कार उपयोगी नही है क्योकि इससे शरीर नष्ट हो जाता है और भूतकाल के मानव-कंकाल पर कोई अनुसन्धान नही किया जा सकता है]
शव दफनाने की प्रथा में शव का सिर आमतौर पर उत्तर दिशा की ओर तथा पैर दक्षिण दिशा की ओर रखते थे | उल्लेखनीय है कि आज भी हिन्दुओं में शव का सिर उत्तर दिशा की ओर की रखने का रिवाज है |
सम्भवतः वे लोग आत्मा या मृत्यु के बाद के जीवन पर भी विश्वास करते थे | क्योकि अन्न आदि से भरे हुए मिट्टी के पात्र तथा अन्य सामग्री (पक्षी व पशुओं की हड्डियाँ, पशुओं की सींग आदि) भी शवों के पास से मिली है और कही-कही तो शव को अभूषणों (चूड़ियाँ, हार, अंगुठी, तांबे के दर्पण आदि) के साथ ही दफन कर दिया जाता था |
आंशिक शवाधान के भी साक्ष्य मिले है | इसमे शव को जानवरों और पक्षियों द्वारा खाने के लिए अन्यत्र खुला छोड़ दिया जाता था और तदुपरान्त उनकी बची हुई अस्थियाँ एकत्र करके उन्हें जमीन में विधिवत् दफना दिया जाता था |
पात्र-शवाधन (कलश-शवाधन) के भी साक्ष्य मिले है | हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में कुछ बड़े पात्र (कलश) प्राप्त हुए है | इन पात्रों में पशुओं, पक्षीयों और मछलियों की हड्डियों के साथ राख, कोयला, आभूषण (चूड़ियाँ, मनके आदि), छोटे मृदभांड आदि रखे हुए मिले है साथ ही ऐसे थोड़े-कुछ पात्रों में मानव अस्थियाँ (हड्डियाँ) भी प्राप्त हुई है |
इस तरह के कई पात्र फर्श और सडकों के नीचे दबे हुए प्राप्त हुए है | कुछ विद्वान विचार व्यक्त करते है कि संभवतः कुछ लोग शव का दाह-संस्कार करके थोड़ी अस्थियाँ (हड्डियाँ) और राख मिट्टी के पात्रों (कलशों) में रखकर जमीन में दफना देते थे |
लोथल से दो शवों के एक साथ दफनाये जाने का साक्ष्य मिला है | कुछ विद्वान मानते है कि ये स्त्री और पुरुष के शव है तो कुछ मानते है कि दोनों पुरुष है | कुछ विद्वान तो इस युगल शवाधान को ‘सती-प्रथा’ का रूप मानते है |
सुरकोतड़ा से कलश-शवाधान के साक्ष्य मिले है |
रोपड़ में एक मानव शव के नीचे एक कुत्ते को भी दफनाये जाने का साक्ष्य मिला है | उल्लेखनीय है कि नवपाषाण-कालीन स्थल बुर्जहोम (कश्मीर) में भी शव के साथ कुत्ते को दफनाए जाने की परम्परा के साक्ष्य मिले है |
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