हड़प्पा सभ्यता का आर्थिक जीवन – शिल्प, उद्योग और व्यापार-वाणिज्य

Economic Life of Harappan Civilization in Hindi

इस लेख में हम हड़प्पा सभ्यता का आर्थिक जीवन – शिल्प, उद्योग और व्यापार-वाणिज्य (Economic Life of Harappan Civilization in Hindi) पर चर्चा करेंगें | हड़प्पा सभ्यता की अर्थव्यवस्था कैसी थी ? हड़प्पा सभ्यता या सिन्धु सभ्यता की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ (strong) थी | हड़प्पा सभ्यता के आर्थिक जीवन को मजबूत बनाने में कृषि उत्पादन के साथ-साथ शिल्प, उद्योग और व्यापार-वाणिज्य ने भी अहम भूमिका निभाई होगी | (Hadappa Sabhyata Ki Arthvyavastha Par Nibandh)

यद्यपि हड़प्पा सभ्यता कांस्य युग की सभ्यता है, लेकिन इस सभ्यता में कांसे के औजार बहुतायत से नही प्राप्त नही होते है | कांसे का निर्माण तांबे में टिन मिलाकर किया जाता था, लेकिन ये दोनों ही धातुएं हड़प्पावासियों को आसानी से उपलब्ध नही थी |

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सिन्धु घाटी की सभ्यता में तांबे का प्रयोग ज्यादा

हड़प्पा सभ्यता या सिन्धु घाटी की सभ्यता में जो थोड़े बहुत कांसे के औजार प्राप्त हुए है उनमे टिन की मात्रा कम है | उल्लेखनीय है कि कांसा तांबे से अधिक सख्त होता है इसलिए मजबूत औजारों, हथियारों तथा उपकरणों को बनाने के लिए यह अधिक उपयोगी होता था |

सिन्धु सभ्यता के काल में औजार, बर्तन, हथियार आदि बनाने के लिए अधिकतर तांबे का प्रयोग किया जाता था | सिन्धुवासी तांबे और कांसे के पात्र भी बनाते थे |

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सिन्धु सभ्यता में लोग लोहे से अनजान

पाठकों को बता दे कि मानव ने सर्वप्रथम जिस धातु को खोजा था और जिसका प्रयोग औजार बनाने में किया था, वह धातु तांबा (copper) थी | हड़प्पा-काल के लोग (हड़प्पाई लोग) लोहे से अनजान थे |

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हड़प्पाई काल में सोने, चाँदी और रत्नों के आभूषण भी बनाये जाते थे | मोहरें, मनके, कंगन, पात्र आदि बनाने के लिए सेलखड़ी (एक प्रकार का चिकना और मुलायम पत्थर) का भी प्रयोग किया जाता था |

हड़प्पा सभ्यता की मृण्मूर्तियां

हड़प्पा-सभ्यता में आग में पकी मिट्टी (जो टेराकोटा कहलाती है) की मूर्तिकाएँ (फिगरिन) बड़ी संख्या में मिली है | शिल्प आकृतियों में सर्वाधिक संख्या मृण्मूर्तियों की है | हड़प्पा सभ्यता (hadappa sabhyta) मे मानव-मृण्मूर्तियों की अपेक्षा पशु-मृण्मूर्तियां अधिक है | जहाँ मानव मृण्मूर्तियां ठोस है वही पशु मृण्मूर्तियां खोखली बनाई गयी थी |

हड़प्पा सभ्यता की खुदाई (hadappa ki khudai) में पशु-मृण्मूर्तियों में बैल, भैसा, भालू, बन्दर, कुत्ते, भेड़, बकरी, सुअर, खरगोश, गैंडा, बाघ आदि की मृण्मूर्तियां मिली है | पशु-मृण्मूर्तियों में सबसे अधिक बैल (सांड) की आकृतियाँ है, जो कि मौलिक रूप से चित्रित है |

इनमे कूबड़ वाले बैल (सांड) की अपेक्षा बिना कूबड़ वाले बैल (सांड) की मृण्मूर्तियां अधिक हैं |

सिन्धु घाटी की सभ्यता (hadappa sabhyta) में पक्षियों में मोर, चील, कबूतर, मुर्गा, बतख, उल्लू, गौरेया, तोता आदि की मृण्मूर्तियां मिली है, परन्तु इनकी संख्या अत्यल्प है | पानी में रहने वाले जीवो में मछली, कछुआ, घड़ियाल आदि की मृण्मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं |

हड़प्पा काल (हड़प्पा संस्कृति) में कुछ काल्पनिक और मिश्रित पशुओं की भी आकृति मिलती है | लोथल से प्राप्त एक मृण्मूर्ति में एक मानव के धड़ पर एक पशु का सिर लगा हुआ है |

हड़प्पा स्थल से प्राप्त एक मृण्मूर्ति में एक काल्पनिक पशु की एक ही गर्दन से दो सिर लगे है |

मिट्टी से बने हल के साक्ष्य दो हड़प्पा स्थल से प्राप्त हुए है | मोहनजोदड़ो से मिट्टी के बने एक हल का प्रारूप प्राप्त हुआ है वही बनावली से भी मिट्टी के बने हल का पूरा प्रारूप प्राप्त हुआ है | बनावली स्थल हरियाणा के हिसार जिले में स्थित है |

सैन्धव सभ्यता में स्त्री मृण्मूर्तियां अधिक – मातृदेवी

हड़प्पा संस्कृति में लगभग सभी मृण्मूर्तियों को हाथ से बनाया गया था | कुछ सांचे द्वारा भी निर्मित है | स्त्री एवं पुरुष मृण्मूर्तियों में स्त्री-मृण्मूर्तियों की संख्या अधिक है |

सैंधव सभ्यता में अधिकांश स्त्री-मृण्मूर्तियों को उनकी वेशभूषा और अलंकृत आभूषणों के आधार पर मातृदेवी का दर्जा दिया गया है |

कुछ मातृदेवी की मूर्तियों के सिर पर फाख्ता पक्षी दिखाया गया है | कुछ मृण्मूर्तियों में स्त्री को गर्भवती, शिशु को दुग्धपान कराते, आटा सानते, तख्ते पर लेते हुए आदि के रूप में दिखाया गया है |

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कुछ स्त्रियों के सिर पर सींग जैसी आकृति दिखाई गयी है | मिट्टी के बने कुछ मुखौटे भी मिले है | कुछ विद्वानों का मानना है कि इन मुखौटों का इस्तेमाल नाटकों में किया जाता था |

सैन्धव सभ्यता में पत्थर की मूर्तियाँ कम

हड़प्पा काल में पत्थर के बने सील-बट्टे भी प्राप्त हुए है, जो अधिकांशतया अलाबस्टर (Alabaster) पत्थर के बने है | इनका प्रयोग आज की ही भांति अनाज को पीसने में किया जाता था | पत्थर की मूर्तियाँ कम संख्या में मिली है |

सम्भवतः इसके दो कारण हो सकते है, पहला यह कि हड़प्पाई लोगो ने पत्थर की मूर्ति की जगह लकड़ी और मिट्टी की मूर्ति बनाने पर ज्यादा जोर दिया होगा जो अब तक नष्ट हो चुकी होंगी, और दूसरा यह कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के समीपवर्ती क्षेत्र में पत्थर का अपेक्षाकृत अभाव होना |

अभी तक जो पत्थर की मूर्तियाँ मिली है वो अलाबस्टर (Alabaster), सेलखड़ी (Steatite), चूना-पत्थर, स्लेटी-पत्थर और बलुआ-पत्थर की बनी हुई है |

पुरोहित की मूर्ति – मोहनजोदड़ो

मोहनजोदड़ो से सेलखड़ी की बनी 19 से.मी. की एक खण्डित मानव-मूर्ति (तथाकथित पुरोहित-मूर्ति) मिली है जिसका केवल सिर से वक्षस्थल तक का ही भाग बचा है |

इस मूर्ति के आधे नेत्र (ध्यानावस्था की तरह) बंद है | आँखें सीप की बना कर अलग से लगाई गयी है | होंठ मोटे है तथा गर्दन भी अपेक्षाकृत मोटी है | केश-विन्यास आकर्षण है |

मोहनजोदड़ो से प्राप्त पुरोहित की मूर्ति में सिर और दाढ़ी के बाल रेखाये खीचकर बनाये गये है लेकिन मूंछे मुडी हुई है | बाया कंधा एक अलंकृत शाल से ढका है जबकि दायां कंधा खुला है |

आश्चर्य होता है कि इसप्रकार शाल ओढ़ने का रिवाज आज भी भारत में प्रचलित है | शाल पर उभरा हुआ तिपतिया अलंकरण है |

ए.एल.बाशम लिखते है कि “ऐसा लगता है कि इस मूर्ति का सिर किसी पुजारी का है जो ध्यानावस्था में आधी आँख बन्द किये हुए है, परन्तु ऐसा लगता है कि यह व्यक्ति मंगोल जाति का है |”

हड़प्पा की लाल-बलुआ नग्न मूर्ति – कायोत्सर्ग मुद्रा

हड़प्पा से एक लाल-बलुआ पत्थर की मूर्ति मिली है, जिसका केवल धड़ की बचा है | यह मूर्ति पूर्णतया नग्न युवा पुरुष की है, जिसका स्वस्थ्य शरीर अत्यंत सजीव और स्वाभाविक रूप से गठित है |

इस मूर्ति के गले और दोनों कन्धों में छेद है जिससे लगता है कि सिर और भुजाएँ अलग से बनाकर जोड़े गये थे, जो नष्ट हो गये होंगे |

इस नग्न मूर्ति की तुलना कुछ विद्वान जैन तीर्थंकरों की कायोत्सर्ग मुद्रा के प्राचीन रूप से करते है | पाठकों को बता दे कि कायोत्सर्ग एक यौगिक ध्यान की मुद्रा का नाम है |

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अधिकांश जैन तीर्थंकरों को कायोत्सर्ग या पदमासन मुद्रा में ही दर्शाया जाता है | कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ ‘शरीर के ममत्व का त्याग’ (काया का त्याग) है और यह ध्यान की शारीरिक अवस्था (समाधि) का पर्यायवाची है |

जैनधर्म के अनुसार दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तराल देकर खड़े हो (दोनों एक सीध में हो, आगे पीछे नही), दोनों भुजाये नीचे को लटकती रहे तथा समस्त शारीरिक अंगों को निश्चल करके यथानियम साँस लेने (प्राणायाम) पर कायोत्सर्ग होता है |

हड़प्पा की स्लेटी चूना-पत्थर मूर्ति – शिव-नटराज आकृति

हड़प्पा (hadappa) से ही एक अन्य मूर्ति मिली है जो स्लेटी चूने-पत्थर से बना धड़ है | मूर्ति नृत्य की मुद्रा में है | इसका सिर और भुजाएँ नष्ट हो चुके है |

इस मूर्ति के भी गले और कन्धों में छेद है, जिससे प्रतीत होता है इसमे भी सिर और भुजाएँ अलग से बनाकर जोडें गये थे |

इस मूर्ति की नृत्य-मुद्रा को देखकर मार्शल ने अनुमान लगाया है कि यह शिव-नटराज की आकृति है | मार्शल यह भी बताते है कि सम्भवतः इस मूर्ति के तीन सिर रहे हो | लेकिन कुछ विद्वान उनसे पूर्णतया असहमत है |

नग्न-नर्तकी की कांस्य-मूर्ति – मोहनजोदड़ो

हड़प्पाकालीन धातु की बनी मूर्तियों में सर्वाधिक कलात्मक और महत्वपूर्ण मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की कांस्य-मूर्ति है | यह मूर्ति हड़प्पाई कारीगरों की कुशलता का आश्चर्यजनक उदाहरण है |

मोहनजोदड़ो से प्राप्त यह चौदह सेंटीमीटर ऊँची, सहज भाव से नृत्य करती हुई, उत्तेजनात्मक मुद्रा में खड़ी एक नग्न स्त्री की कांस्य-मूर्ति है |

मोहनजोदड़ो की इस नग्न-नर्तकी के गले में एक हार और बाये हाथ, जो कंधे से लेकर कलाई तक चूड़ियो से भरा है, में एक पात्र है | इसका दाहिना हाथ, जिसमे केवल थोड़ी सी चूड़िया है, नितम्ब पर है |

कुछ विद्वानों के अनुसार यह नर्तकी देवदासियों और वेश्याओं की प्रतिनिधि थी |

तांबे व कांसे की मूर्तियाँ

हड़प्पा से तांबे से निर्मित एक इक्का-गाड़ी का मॉडल प्राप्त हुई है | लोथल से तांबे से निर्मित कुत्ते, बैल, खरगोश और पक्षी की आकृति प्राप्त हुई है |

मोहनजोदड़ो से कांसे से निर्मित एक क्रोध से तिरछे देखते हुए भैसे की आकृति उल्लेखनीय है |

मोहनजोदड़ो से ही कांसे की बनी मेढ़े की तथा तांबे की बनी कुत्ते की आकृतियाँ मिली है | हड़प्पा और चन्हुदड़ो से कांसे से निर्मित बैलगाड़ियों के मॉडल प्राप्त हुए है, जिनमे गाड़ीवान को इसे चलाते हुए दिखाया गया है |

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चाँदी, तांबे और कांसे के बर्तन, आभूषण आदि मिले है | सम्भवतः भारत में चाँदी का प्रयोग सर्वप्रथम हड़प्पा सभ्यता से ही आरम्भ हुआ था |

हड़प्पा सभ्यता में कुम्हार के चाक का प्रयोग

कुम्हार के चाक का प्रयोग करने में हड़प्पावासी बड़े कुशल थे | यद्यपि कुम्हार के चाक का प्रयोग (संभवतः) सर्वप्रथम मेसोपोटामिया में हुआ था तदापि उनके मृदभांड इतने अच्छे नही है जितने अच्छे हड़प्पा सभ्यता से मिले है |

हड़प्पा सभ्यता के अधिकांश मृदभांड (मिट्टी के बर्तन) चाक पर ही बने है, जो इस सभ्यता के पूर्णतया विकसित होने का द्योतक है | कुछ मृदभांड हाथ के बने हुए भी मिले है, लेकिन उनकी संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम है |

मृदभांडों के कुछ अच्छे नमूने प्राप्त हुए है, जो कुम्हारों की उच्च-कोटि की कलात्मक उपलब्धियों को प्रकट करते है | मृदभांडो को अच्छी तरह से तैयार की गयी मिट्टी से बनाकर भट्टों में भलीभांति से पकाया जाता था |

अधिकांश मृदभांड बिना चित्रण वाले मिले है | चित्रित मृदभांडों में अधिकांश चमकीली लाल सतह पर काले रंग से चित्रित किये जाते थे और इन पर ज्यामितीय आकृतियाँ, विभिन्न जीव-जंतु एवं पेड़-पौधे आदि बनाये जाते थे |

ज्यामितीय आकृतियों में वृत, त्रिकोण और चौकोर आकार प्रमुख रूप से प्रयोग किया गया है |

पेड़-पौधो के चित्रण में पीपल के पत्ते विशेष उल्लेखनीय है | जीव-जंतुओं के चित्रण में मछली, सांप, हिरन आदि एवं कुछ पक्षियों का अंकन है |

सिन्धु सभ्यता के इन मृदभांडों पर आमतौर से वृत अथवा वृक्ष की आकृतियाँ ही मिलती है | थोड़े बहुत पर मानव आकृतियाँ भी प्राप्त हुई है | सादे और चित्रित दोनों ही तरह के मृदभांडो को बनाने में एक ही प्रकार की मिट्टी उपयोग में लायी गयी है |

अधिकांशतया (चित्रित) मृदभांड के कुछ भाग को ही चित्रित किया जाता था | बहुत कम ही मृदभांड ऐसे मिले है जिनके सम्पूर्ण बाह्य भाग को चित्रित किया गया हो | रूप और आकार की दृष्टि से मृदभांडों की विविधता आश्चर्यजनक है |

लोथल से प्राप्त एक मृदभांड पर दो पक्षी चोंच में मछली दबाये वृक्ष पर बैठे है और नीचे एक जानवर (सम्भवतः लोमड़ी) का चित्रण है | कुछ विद्वान इस दृश्य का सम्बन्ध पंचतंत्र की कहानी ‘चतुर लोमड़ी’ से जोड़ते है |

कुछ मृदभांडो पर ठप्पे भी प्राप्त हुए है | अधिकतर इन ठप्पों पर हड़प्पाई लिपि के चिन्ह लिखे गये है | कुछ विद्वानों के अनुसार इन ठप्पों पर कुम्हारों अथवा उनकी फार्मों के नाम है |

मिट्टी की बनी चूहेदानियां भी उत्खनन से प्राप्त हुई है | जिनका प्रयोग अनाज तथा खाने की अन्य वस्तुओ को चूहों से बचाने हेतु किया जाता था |

सिन्धु सभ्यता में मनकें

हड़प्पा-सभ्यता में मनकों का निर्माण भी एक विकसित उद्योग था | हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल, चन्हुदड़ो आदि से अत्यधिक संख्या में मनके प्राप्त हुए है | चन्हुदड़ो और लोथल से मनके बनाने के कारखाने (Bead Factory) का साक्ष्य मिला है |

मनकों का इस्तेमाल हार बनाने में किया जाता था | मनकों को बनाने में सबसे अधिक सेलखड़ी का प्रयोग किया जाता था | सेलखड़ी के अलावा मिट्टी, गोमेद, सोना, चाँदी, तांबा, हाथी-दन्त, शंख आदि का प्रयोग भी मनके बनाने में होता था |

मनकों के आकार-प्रकार में पर्याप्त विविधता मिलती है | सीप और शंख की वस्तुओं के उत्पादन के दो सबसे बड़े केंद्र बालाकोट (बलूचिस्तान) और चन्हुदड़ो (सिन्ध) थे | ये दोनों स्थान चूड़ियों के लिए भी प्रसिद्ध थे |

कपास की खेती के जनक

हड़प्पावासी कपास की खेती के जनक थे | सम्भवतः कुछ समय तक कपास के व्यापार पर इनका एकाधिकार बना रहा हो | ये भी सम्भव है कि कपास के बदले देश-विदेश से उन्होंने खूब मुनाफा कमाया हो |

वस्त्र-निर्माण इनका एक महत्वपूर्ण व्यवसाय रहा होगा | उल्लेखनीय है कि कपास एक नकदी फसल है | भारत में कपास को ‘सफेद सोना’ कहा जाता है |

सिन्धु सभ्यता में समृद्ध व्यापार – वाणिज्य

हड़प्पा सभ्यता में व्यापार और वाणिज्य का अत्यधिक महत्व था | यहाँ के समृद्ध नगर व्यापार और वाणिज्य की सफलता के परिचायक थे | व्यापार भारत के अंदरूनी क्षेत्र और विदेश में स्थल-मार्ग व जल-मार्ग द्वारा किया जाता था |

स्थल-मार्ग की कठिनाइयों से बचने हेतु व्यापार समुद्र-मार्ग से भी होता था | यहाँ धातु के सिक्को का प्रचलन नही था बल्कि संभवतः वे सारे आदान-प्रदान विनिमय द्वारा करते थे |

खेती की उपज, औद्योगिक कच्चा माल, सोना, चाँदी, रत्न आदि का व्यापार किया जाता था | लोहे से ये लोग अनजान थे |

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व्यापार में वे बैलगाड़ियों और नावों का प्रयोग करते थे | कुछ हड़प्पाई मुहरों पर नावों की आकृतियाँ मिली है साथ ही लोथल और मोहनजोदड़ो से मिटटी के बने पानी पर तैरती हुई नाँव के मॉडल प्राप्त हुए है, जिससे पता लगता है कि नावों से आवागमन आम था |

हड़प्पा काल में परिवहन का सबसे तेज रफ्तार का माध्यम बैलगाड़ी थी | बैलगाड़ी अंतर्देशीय परिवहन का साधन थी | हड़प्पाई स्थलों से मिटटी के बने बैलगाड़ी के अनेक नमूने प्राप्त हुए है | हड़प्पावासी अरब सागर के तट पर जहाजरानी (नौचालन) करते थे |

सम्भवतः इनकी नावें अरब सागर के किनारे-किनारे फारस की खाड़ी से होकर जाती थी | लोथल के पूर्वी भाग में एक बंदरगाह (गोदी/डॉकयार्ड) मिला है |

विद्वानों के अनुसार यहाँ छोटे-बड़े जहाज माल उतारने और लादने के लिए आते थे | सुरकोतड़ा और बालाकोट भी महत्वपूर्ण तटवर्ती व्यापारिक नगर थे जहाँ से समुद्री-मार्ग द्वारा व्यापार होता था |

विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि हड़प्पा सभ्यता में तांबा राजस्थान की खेत्री ताम्र-खानों से, टिन व चाँदी अफगानिस्तान और ईरान से, सोना दक्षिण-भारत व अफगानिस्तान से, रत्न दक्षिण भारत से, सीसा राजस्थान, अफगानिस्तान और ईरान से, लाजवर्द मणियाँ कश्मीर और बदख्शां (अफगानिस्तान) से, गोमेद सौराष्ट्र से तथा अलाबस्टर पत्थर बलूचिस्तान से मंगाया जाता था | लोहे से हड़प्पावासी अनजान थे |

वाणिज्यिक सम्बन्ध – अफगानिस्तान, ईरान

हड़प्पा काल की अनेक छोटी-बड़ी मुहरें कई पश्चिम एशियाई देशों से प्राप्त हुई है | इससे इस बात की पुष्टि होती है कि उस समय भारत और इसके पश्चिम एशियाई देशों के बीच वाणिज्यिक सम्बन्ध थें | (Hadappa Sabhyata Ki Arthvyavastha)

सिन्धुवासी व्यापारियों के एशियाई देशों के साथ विदेशी व्यापार का एक अधिक स्पष्ट प्रमाण लोथल से प्राप्त एक विशेष प्रकार की गोलाकार बटन जैसी मुहर का मिलना है | यह गोलाकार बटन जैसी मुहर ‘फारस की खाड़ी’ प्रकार की मुहरों की जैसी है, जो बहरीन के बंदरगाह में किये गए उत्खननों तथा मेसोपोटामिया के नगरों (विशेषकर ‘उर’) से बहुत अधिक मात्रा में प्राप्त हुई हैं |

लोथल से ही पिंडाकार ताँबे की सिल्लियाँ प्राप्त हुई हैं, जो फारस की खाड़ी के द्वीपों व सूसा से मिली सिल्लियों जैसी हैं |

हड़प्पाई व्यापारियों के वाणिज्यिक सम्बन्ध अफगानिस्तान और ईरान से थे, इसके पर्याप्त पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध है | उन्होंने उत्तरी अफगानिस्तान में एक वाणिज्य उपनिवेश स्थापित किया था, जिसके माध्यम से हड़प्पाई व्यापारी अपना व्यापार मध्य एशिया के साथ सुगमता से चलते थे |

इनके व्यपारिक सम्बन्ध मेसोपोटामिया (इराक) से भी थे | मेसोपोटामिया की खुदाई से अनेक हड़प्पाई मुहरे मिली है, जो मुख्यतया व्यापार के माध्यम से यहाँ पहुची होंगी |

सिंधु सभ्यता के मेसोपोटामिया से सम्बन्ध

हड़प्पा काल के लोगों का सम्बन्ध मेसोपोटामिया (इराक) से भी थे | मेसोपोटामिया की खुदाई से अनेक हड़प्पाई मुहरे मिली है, जो मुख्यतया व्यापार के माध्यम से यहाँ पहुची होंगी |

मेसोपोटामिया (सुमेर ) के प्राचीन ग्रन्थों में इस बात का वर्णन मिलता है कि हाथीदाँत, सोना, गोमेद, मोर, चिड़ियों की लघुमूर्तियाँ और इमारती लकड़ी सुमेर में मेलुहा से आती थी |

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मेसोपोटामिया में स्थित अक्काड़ के प्रसिद्ध सम्राट सारगान ने अपने अभिलेख में दावा किया था कि ‘दलमुन’, ‘मकान’, और ‘मेलुहा’ के जहाज उसकी राजधानी में लंगर डालते थे |

इस अभिलेख में ‘मेलुहा’ नामक स्थान के साथ उसके व्यापारिक सम्बन्धो का वर्णन है |

विद्वानों के अनुसार ‘मेलुहा’ सिन्धु क्षेत्र का ही प्राचीन नाम है | इस अभिलेख में ‘दलमुन’ और ‘माकन’ नामक दो व्यापारिक केन्द्रों का वर्णन मिलता है |

ये दोनों स्थान मेसोपोटामिया और मेलुहा के मध्य में थे | विद्वान दिलमुन ही पहचान फारस की खाड़ी के बहरैन से करते है | कुछ विद्वानों ने माकन और मकरान समुद्रतट को एक ही माना है |

साभार – यह लेख इतिहास विशेषज्ञ डॉ. के. के. भारती द्वारा लिखा गया है |

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