बुद्ध की कहानी 17 : महापरिनिर्वाण की भविष्यवाणी

बुद्ध की कहानी 17 : महापरिनिर्वाण की भविष्यवाणी | एक बार भगवान् वैशाली में मर्कट नामक सरोवर के तट पर निवास कर रहे थे | यही मर्कट सरोवर के तट पर एक वृक्ष के नीचे बैठ कर बोधिसत्त्व ने गंभीर समाधि लगाई और जब गंभीर समाधि से निकले तो कहा, “मेरा शरीर, जिसकी आयु मुक्त हो गई है, उस रथ के समान है, जिसका धुरा (अक्षाग्र, अक्षधुरा) टूट गया हो और मैं इसे अपनी शक्ति से ढो रहा हूँ | अपनी आयु के साथ मैं भव-बन्धन से मुक्त हूँ, जैसे अण्डे से निकलते समय अण्डे को फोड़ने वाला पक्षी (बन्धन से मुक्त होता है) |” 

इसके बाद आनंद के पूछने पर बोधिसत्त्व ने बताया कि मेरा पृथ्वी-लोक में निवास का समय अब पूर्ण हो चुका है | अब मैं मात्र तीन मास और इस पृथ्वी पर रहूँगा, फिर चिरंतन निर्वाण प्राप्त कर लूँगा |

बोधिसत्त्व की इन बातों को सुनकर आनंद अत्यंत विचलित हो गये और उसके आँखों से आँसू बहने लगे, जैसे किसी हाथी द्वारा तोड़े गये चन्दन-वृक्ष से रस बह रहा हो |

बोधिसत्त्व ही उनके स्वजन, गुरु और सर्वस्व थे, इस कारण उन्हें अत्यंत शोक हुआ और दुःखी होकर दीनता पूर्वक विलाप करने लगे | “अपने गुरु का निश्चय सुनकर, मेरा शरीर मानो डूब रहा है, मेरी ग्रन्थियाँ ढीली हो रही हैं और धर्मोपदेश, जो कि मैंने सुना है, आकुल हो रहा है |”

शोक संतप्त व व्याकुल आनंद को सांत्वना देते हुए भगवान् ने कहा, “हे आनंद ! जगत्‌ के वास्तविक स्वभाव को समझों और शोक न करो | जो भी व्यक्ति जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है | पृथ्वी-लोक में कुछ भी स्वाधीन नही है, कोई भी प्राणी अमर नही है | अगर प्राणी अमर होते तो जीवन परिवर्तनशील नही होता, फिर मुक्ति का क्या महत्व होता ?” 

भगवान् ने समझाया, “हे आनंद ! मैंने सम्पूर्ण मार्ग तुम्हें दृढ़तापूर्वक बतला दिया है | तुम्हें और अन्य शिष्यों को समझना चाहिए कि बुद्ध कुछ छिपाते नहीं | मैं शरीर रखूं या छोड़ दू, मेरे लिए दोनों स्थितियां समान है | क्योकि मेरे जाने के पश्चात भी मेरे द्वारा जलाया गया यह धर्म का दीपक सदैव जलता रहेगा | तुम इसी दीपक के प्रकाश में निर्द्वंद्व होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करो और अपने मन को दूसरी बातों का शिकार मत होने दो | मेरे जाने के बाद भी जो लोग इस धर्म के मार्ग में स्थिर रहेंगे, वे निश्चित ही निर्वाण-पद प्राप्त करेंगे |”