भगवान बुद्ध का जीवन परिचय भाग 2

bhagwan buddha ka jeevan parichay bhag 2

भगवान बुद्ध का जीवन परिचय भाग 1 यहाँ देखे – भगवान बुद्ध का जीवन 1 |

सम्बोधि (बोधि-प्राप्ति)

अब सिद्धार्थ ज्ञान की खोज के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने लगें | वैराग्य का तात्कालिक कारण यह था कि उन्होंने सम्पूर्ण मानव-जाति को दुःख से ग्रस्त देख लिया था | उस काल में वैराग्य का तात्पर्य तपोमय जीवन बिताना था |65 इसलिए वें कठिन तपस्या के लिए गुरु की खोज में लग गयें |

सर्वप्रथम वैशाली के निकट सांख्य दर्शन के आचार्य आलार कालाम के आश्रम में उन्होंने तप की क्रियाओं और उपनिषद-प्रतिपादित ब्रह्मविद्या की शिक्षा प्राप्त की | इसके बारे में स्वयं भगवान् बुद्ध ने चुनार (=सुंसुमारगिरि) में वत्सराज उदय के पुत्र बोधिराजकुमार को बताया था – “राजकुसार ! बोधि से पहले मुझे भी यही होता था – ‘सुख में सुख प्राप्य नहीं है, दुःख में सुख प्राप्य है |’ इसलिये राजकुमार ! मैं उस ससय दहर (=नव-वयस्क) ही, बहुत काले काले  केशवाला, सुन्दर (=भद्र) यौवन के साथ ही, प्रथम वयस में, माता-पिता के अश्रुमुख होते, घर से बेघर हो प्रब्रजित (=संन्यासी) हुआ | इस प्रकार प्रब्रजित हो, जहाँ आलार कालाम था, वहाँ गया |”66

लेकिन इन सबसे सिद्धार्थ को संतोष नही हुआ कि व्यक्ति आत्मसंयम व ज्ञान के द्वारा दुःख से निवृत्ति प्राप्त कर सकता है | यहाँ से अब वें रुद्रकरामपुत्त (उद्रक रामपुत्र) नामक एक दूसरे आचार्य के पास गये जिसका आश्रम राजगृह के निकट था | लेकिन यहाँ पर भी उनके मन को शांति नही मिली और अब सिद्धार्थ ने यह देखना चाहा कि क्या कठोर तपस्या करने से क्या दैवी ज्ञान व शक्ति प्राप्त हो सकती है |

अतः यहाँ से वें गया के निकट निरंजना नदी के तट पर उरुवेला नामक वन पहुंचे, वहां उन्होंने पांच ब्राह्मण संन्यासियों को देखा, जिन्होंने अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया था और वहां तपस्या कर रहे थें, बोधिसत्त्व ने भी उन्ही के साथ, बिना किसी गुरु के मार्गदर्शन के, घोर तपस्या आरम्भ की | कठोर तपस्या से उनका शरीर सूखकर नर-कंकाल की भांति दिखने लगा |67 लेकिन फिर भी उन्हें ज्ञान की प्राप्ति नही हुई |

पालि ग्रन्थों में इस प्रकार वर्णन मिलता है -“उनका तप इतना कठिन हो गया था कि पाँच संन्यासियों ने उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लिया | छह वर्षों तक उन्होंने अपने आपको इतने कष्ट दिए कि वे गतिमान अस्थिपंजरमात्र शेष रह गये | एक दिन वे तप व क्षुधा से क्षीण अचेत हो गये तो उनके साथियों ने उन्हें मृत मान लिया | लेकिन कुछ क्षणों के बाद उन्हें पुनः चेतना प्राप्त हुई | तब उन्हें यह अनुभव हुआ कि उनका तप और उनके उपवास निष्फल गये |”68

अब बोधिसत्त्व को महसूस हुआ कि इस तरह की कठिन तपस्या से व्यर्थ ही शरीर को कष्ट देना ठीक नही है | यह तापस धर्म न वैराग्य दे पाता है, न बोध, न मुक्ति | दुर्बल व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति नही कर सकता, ऐसा सोच बोधिसत्त्व पुनः शरीर-बल-वृद्धि के बारे में सोचने लगे | उन्होंने सोचा “जो भूख प्यास व थकावट से ग्रस्त है, थकावट से अस्वस्थचित्त है अ-सुखी है, वह मन से प्राप्त होने वाला फल (मोक्ष) कैसे पायेगा | इन्द्रियों को निरन्तर तृप्त करने से सुख ठीक-ठीक प्राप्त होता है, इन्द्रियों को अच्छी तरह से तृप्त करने से मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है | जिसका मन स्वस्थ व प्रसन्न है उसे समाधि सिद्ध होती है, जिसका चित्त समाधि से युक्त है उसे ध्यान-योग होता है | ध्यान होने से धर्म प्राप्त होते हैं, जिनसे वह परम पद प्राप्त होता है जो दुर्लभ, शान्त, अजर और अमर है |”69 ऐसा विचार कर उन्होंने महसूस कि मुक्ति का उपाय आहार पर ही आधारित है | अतः कठोर तपस्या के कारण अत्यंत कृशकाय और दुर्बल हो चुके बोधिसत्त्व ने भोजन करने का निश्चय किया |

उसी समय उरुवेला के सेनानी नामक निगम में, सेनानी परिवार में उत्पन्न ‘सुजाता’ नामक एक सुकन्या प्रसन्नता पूर्वक वहां आयी और श्रद्धापूर्वक बोधिसत्त्व को नमन कर उन्हें पायस (खीर) से परिपूर्ण पात्र प्रदान किया |70 और आग्रह किया कि “आर्य, मेरे द्वारा दिये गये भोजन को ग्रहण करें |” फिर वन्दना की कि “जिस प्रकार मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ, उसी प्रकार आपका भी पूर्ण हो |”

शाक्यमुनि ने अपनी कठिन तपस्या का त्याग करके सुजाता द्वारा भेंट किया गया भोजन ग्रहण कर लिया और उस सुभोज्य से तृप्त होकर उन्हें महसूस हुआ कि वे अब बोधि प्राप्त करने में समर्थ हो गये है |

बोधिसत्त्व के इस आचरण को देखकर इनके साथी पांच ब्राह्मणों ने नाराज होकर कहा “गौतम भोगवादी है | शरीर के आराम हेतु अपने पथ से भ्रष्ट हुआ है |” और वें इनका साथ छोड़कर सारनाथ चले गये |

उन सबके चले जाने पर बोधिसत्त्व पवित्र बोधिवृक्ष के नीचे घास के बिछौने पर आसन लगाये पूर्व दिशा की ओर मुंह किए हुए, दृढ़ और अचल, अपने मन को एक विशेष प्रयोजन में लगाए हुए दृढ़ संकल्प करते है कि –

“इहासने सुष्यतु मे शरीरं, त्वगस्थिमांसं प्रलयं च यातु | अप्राप्य बोधि बहुकल्पदुर्लभां, नैवासनात्‌ कायमतश्चलिष्यते ||71

[इस आसन पर मेरा शरीर भले ही सूख जाए, त्वचा एवं अस्थि-मांस चाहे गर जाएँ, बहुत कल्पों तक दुर्लभ बोधि का लाभ किए बिना, इस आसन से (यह) काय नहीं हिले-डुलेगा |]

इस प्रकार सिद्धार्थ ने बोधगया में एक अवश्त्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे इस दृढ़ निश्चय के साथ समाधि लगाई कि ज्ञान प्राप्ति तक समाधि भंग नही करेंगें |72

अंततः 35 वर्ष की आयु में बोधगया में अवश्त्थ वृक्ष (बोधिवृक्ष-ज्ञान का वृक्ष) के नीचे उन्हें ज्ञान (बोधि) की प्राप्ति हुई और तब वे बुद्ध73 (प्रज्ञावान) कहलाने लगे |

बोधि-प्राप्ति की इस घटना को ‘सम्बोधि’ कहते है | सम्यक् सम्बोधि प्राप्त करके बोधिसत्त्व गौतम सम्यक् सम्बुद्ध हो गये | अब शाक्यमुनि बुद्ध को दुःख के स्वरुप तथा उसे दूर करने के उपाय के विषय में सच्चा ज्ञान प्राप्त हो गया था |

हमें इस बात पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है कि भगवान् बुद्ध के सम्यक् सम्बुद्ध बनने की जिस घटना को यहां कुछ शब्दों में कह दिया गया है उसे उन्होंने छह वर्षों की अत्यंत कठोर तपस्या व संघर्ष के बाद प्राप्त किया था | इस कार्य में उन्हें मिलने वाली कड़ी बाधाओं का उल्लेख तथागत ने स्वयं कई बार किया | पहले शारीरिक कष्ट थे | वें कहते है कि “मुझे स्मरण है सारिपुत्र कि मैंने पवित्र जीवन के पूर्ण चक्र की साधना कैसे की | मैं तपस्या कर रहा था तथा मैंने अन्य लोगों से ज्यादा तपस्या की |” इसके पश्चात् कुछ भयावह विचार थे जो बाद की दंतकथाओं में पिशाचों के रूप में प्राप्त होते हैं | तथागत स्वयं इनका वर्णन अत्यधिक मानवीय ढंग से करते हैं | जब वे अकेले डरावने जंगल में रात बिताते थे तो कई बार उन्हें भी साधारण मानव की भांति डर उन्हें घेर लेता था | वें कहते है कि “जब मैं भयावह जंगल में अकेले था तो कभी कोई हिरन मुझ तक आ जाता था अथवा कोई मोर एक टहनी नीचे फेंक देता था अथवा कभी हवा नीचे गिरी हुई पत्तियों को सरसराती हुई निकल जाती थी | तब मैं सोचता था कि बस यही अंत है, फिर मैंने इसका सामना करने का विचार किया और सोचा कि मेरे अंदर यह डर निरंतर क्‍यों बना रहता है ? उस समय मैं न तो चुपचाप खड़ा रहता था, न बैठता था, न ही सोता था, मैं यहां से वहां चलता रहता था और मैंने उस आतंक, संत्रास और विभीषिका को अपनी इच्छाशक्ति के आगे झुका दिया |”

अंतिम बाधा थी संदेह | कुछ समय तक भगवान् बुद्ध इस द्विविधा में रहे कि क्या उन्हें अपने इस ज्ञान की विश्व में घोषणा करनी चाहिए या नही क्योकि यह ज्ञान इतना कठिन और गूढ़ था कि यह अल्पजनों को ही समझ में आएगा | लेकिन क्योकि तथागत मानव-जाति के कल्याण के लिए प्रयासरत थें और उनके दुःखो अंत करना चाहते थें, अतः उन्होंने अपने शेष जीवन को एकांत में ध्यानमग्न होकर बिताना उचित नही समझा | उन्होंने सोचा, “मैं स्वयं बुद्ध व मुक्त हो गया हूँ, अब सारे संसार को निर्वाण का मार्ग दिखाऊँगा |” विश्व के कल्याण हेतु शाक्यमुनि बुद्ध ने धर्म प्रचार करने का निर्णय किया |

धर्मचक्र-प्रवर्तन (धर्म प्रचार का प्रारम्भ)

  बोधिसत्त्व ने अपने ज्ञान का प्रथम प्रवचन ‘ऋषिपत्तन मृगदाव’ (सारनाथ, वाराणसी) नामक स्थान में उन पाँच ब्राहमण साथियों को दिया जिन्होंने उरुवेला में उनका साथ छोड़ दिया था | पहले उनका विचार आलार कालाम व रुद्रकरामपुत्त को धर्म का उपदेश (देशना) देने का हुआ, लेकिन यह जानकर कि वें दोनों आचार्य अब जीवित नहीं हैं, उन्होंने इन पाँच ब्रह्मणों को अपना प्रथम प्रवचन देने करने का निश्चय किया |

मार्ग में उपक नामक आजीवक भिक्षु ने बोधिसत्त्व को देखा और उनके स्वरुप से प्रभावित होकर उनके पास आया और विनयपूर्वक बोला, “आयुष्मान्‌ (आवुस) ! तेरी इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं, तेरी कांति परिशुद्ध तथा उज्ज्वल है | किसको (गुरु) मानकर, हे आवुस ! तू प्रब्रजित हुआ है ? तेरा गुरु कौन है ? तू किसके धर्म को मानता हैं ?”74

इस पर भगवान् ने उत्तर दिया, “हे वत्स ! मेरा गुरु कोई नही | मेरे लिए सम्माननीय कोई नहीं, निन्दनीय तो और भी कोई नहीं | मैंने निर्वाण प्राप्त किया है और मैं वैसा नही जैसे कि दूसरे हैं | धर्म (=परधर्म) के विषय में मुझे स्वयंभू जानो | मैंने उसे पूरा-पूरा समझ लिया है जो समझने योग्य है और जिसे दूसरों ने नही समझा है, इसलिए मैं बुद्ध हूँ | और क्योंकि मैंने क्लेशों को शत्रु की तरह जीत लिया है, मुझे शान्तिमय जानो | हे सौम्य, इस समय में अमर-धर्म की दुंदुभी बजाने के लिए काशी जा रहा हूँ | किसी सुख या यश के लिए नही, अभिमान से नही, अपितु दु:खों से पीड़ित जनों के कल्याण के लिए वहां जा रहा हूँ क्योकि पहले मैंने जीव-लोक को दु:खी देखकर ये प्रतिज्ञा की थी कि स्वयं पार होने पर मैं जगत्‌ को पार लगाऊँगा, स्वयं मुक्त होने पर मैं दुःखी जनों के दुःख दूर करूंगा, उन्हें मुक्त करूंगा |” बोधिसत्त्व की इन बातों को सुनकर उपक आजीवक ने उनकी प्रशंसा कर श्रद्धापूर्वक नमन किया और अपने मार्ग पर आगे चला गया, लेकिन उत्कण्ठित होकर विस्मित आँखों से वह उन्हें बार-बार देखता रहा |

शाक्यमुनि भी वाराणसी की ओर चल दिए और ऋषिपतन मृगदाव वन (सारनाथ) पहुंचे जहाँ वे पांच भिक्षु रुके हुए थे, जो बोधिसत्त्व को तप-भ्रष्ट भिक्षु कहकर उनका साथ छोड़कर चले गये थें | उन पांच भिक्षुओं ने जब बोधिसत्त्व को अपनी ओर आते देखा तो निश्चय किया कि उनका अभिवादन नही करेंगे, लेकिन बोधिसत्त्व के निकट आते ही वे अपने निश्चय पर टिक न सके |

मज्झिमनिकाय में इस घटना का वर्णन इस प्रकार मिलता है – तब भगवान्‌ क्रमशः यात्रा करते हुए, जहाँ वाराणसी में ऋषि-पतन मृगदाव था, जहाँ पंचवर्गीय भिक्षु थे, वहाँ पहुँचे | पंचवर्गीय भिक्षुओं ने भगवान्‌ को, दूर से आते हुए देखा | देखते ही आपस में पक्का किया – “आवुसो75 ! साघना-भ्रष्ट श्रमण गौतम आ रहा है | इसे अभिवादन नहीं करना चाहिये और न प्रत्युत्थान (सत्कारार्थ खड़ा होना) करना चाहिये | न इसका पात्र-चीवर (आगे बढ़कर) लेना चाहिये | केवल आसन रख देना चाहिये, अगर इच्छा होगी तो बैठेगा |” जैसे-जैसे भगवान्‌ पंचवर्गीय भिक्षुओं के निकट आते गये, वैसे-ही-वैसे वें अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर न रह सके | (अन्त में) भगवान्‌ के निकट जाने पर एक ने भगवान्‌ का पात्र-चीवर लिया, एक ने आसन बिछाया, एक ने पादोदक (पैर धोने का जल), पादपीठ (पैर का पीढ़ा) और पादकठलिका (पैर रगड़ने की लकड़ी) ला पास रक्खी | भगवान्‌ बिछाये आसन पर बैठे | बैठकर भगवान्‌ ने पैर धोये | (उस समय) वह (लोग) भगवान्‌ के लिये ‘आवुस’ शब्द का प्रयोग करते थे | ऐसा करने पर भगवान्‌ ने कहा – “भिक्षुओ ! तथागत को नाम लेकर या ‘आवुस’ कहकर मत पुकारो | भिक्षुओ ! तथागत अर्हत्‌ सम्यक्‌-सम्बुद्ध हैं | इधर कान दो, मैंने जिस अमृत को प्राप्त किया है, उसका तुम्हें उपदेश करता हूँ | उपदेशानुसार आचरण करने पर, जिसके लिये कुलपुत्र घर से बेघर हो संन्यासी होते हैं, उस अनुपम ब्रह्मचर्यफल को, इसी जन्म में शीघ्र ही स्वयं जानकर=साक्षात्कारकर=लाभकर विचरोगे |”76

भगवान् बुद्ध के प्रथम उपदेश को बौद्ध साहित्यों में “धर्मचक्र-प्रवर्तन” (धम्मचक्कापवत्तन) अर्थात् ‘धर्म प्रचार का प्रारम्भ’ कहा गया है | चक्र शब्द यहाँ धर्म के चक्रवर्ती साम्राज्य का द्योतक था | सारनाथ में धर्मचक्र का प्रथम बार प्रवर्तन हुआ, इसलिए यह स्थान बौद्ध भिक्षुओं का एक तीर्थ हो गया | यह संभव है कि भगवान् बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश 528 ईसा पूर्व जुलाई महीने की पूर्णिमा को दिया था |

यह प्रथम उपदेश दुःख, दुःख के कारणों और उनके समाधान से सम्बन्धित था, जिसे “चार आर्य-सत्य” (चतारि आरिय सच्चानि) कहलाता है | चंद्रकीर्ति के कथनानुसार इन सत्यों को ‘आर्य’ कहने का अभिप्राय यह है कि आर्य (विद्वज्जन) लोग ही इन सत्यों के तह तक पहुँचते हैं, पामरजन जीते हैं, मरतें हैं और दुःखमय जगत्‌ का अनुभव प्रतिक्षण करने पर भी इन सत्यों तक नहीं पहुँच पाते |

शाक्यमुनि बुद्ध का प्रथम उपदेश उसी शंका को समाप्त करने के लिए था, जिसके कारण कि उपवास तोड़ आहार आरम्भ करने वाले सिद्धार्थ को वें पांच ब्राह्मण छोड़ आये थें | इसी मौके पर भगवान् बुद्ध ने पहली बार निब्बान (निर्वाण) की चर्चा की |

भगवान् बुद्ध ने सारनाथ में दिए गये सर्वप्रथम उपदेश में इन पांच ब्राह्मणों से कहा था कि “हे भिक्षुओं, दो कोटियां है जिनसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति को दूर रहना चाहिए | वे क्या है ? प्रथम सुख का जीवन है, जो कामनाओं की पूर्ति एवं विषयभोग ने लिप्त रहता है | यह जीवन अधम, निन्द्य, परमार्थ से दूर करने वाला, अनुचित व मिथ्या है | द्वितीय तपस्या का जीवन है | यह भी विषादमय, अनुचित व मिथ्या है | हे भिक्षुओं, अर्हत् इन दोनों ही कोटियों से दूर होता है तथा उसने इन दोनों के बीच का मार्ग खोज लिया है | यह मध्यम मार्ग चक्षुओं को प्रकाश देता है, चित्त को प्रकाश देता है, शांति की तरह ले जाता है, ज्ञान की तरफ ले जाता है, बोधि की तरफ ले जाता है, निर्वाण की तरफ ले जाता है……..|”77

बोधिसत्त्व ने उन्हें आगे समझाते हुए बताया कि मेरी दृष्टि में मध्यम मार्ग के जो चार मूलभूत सत्य है, वे हैं – दुःख, दुःख का कारण, दुःख का निरोध और दुःख के निरोध के उपाय | मैंने दिव्य दृष्टि से ये चार आर्य सत्य जान लिए है तथा उनका अनुभव किया | जब तक आर्य सत्य की ये चार अवस्थाएँ मैंने नहीं देखीं, तब तक इस जगत्‌ में मुक्त होने का दावा मैंने नही किया और अपने में लक्ष्य-प्राप्ति भी नही देखी | लेकिन जब मैंने आर्य सत्यों को अच्छी तरह जाना और उन्हें जानकर कर्तव्य कार्य को किया, तब मैंने इसी ज्ञान के आधार पर निर्वाण प्राप्त किया और मैं अब बुद्ध हूँ |

संदर्भ व टिप्पणी

65. भगवान् बुद्ध के समकालीन अजित केशकंबलीन् भी एक प्रधान आचार्य थे | इनका नाम था अजित और केश का बना कंबल धारण करने के कारण वह केशकंबली नाम से विख्यात हुए | ये मनुष्यों के बालों का एक वस्त्र पहनते थें, जोकि वस्त्रों में सबसे कष्टदायी होता है, क्योकि ये सर्दियों में बेहद ठंडा और गर्मियों में बेहद गर्म होता है |

66. मज्झिमनिकाय, बोधिराजकुमार-सुत्तन्त, 2:4:5 |

67. किंवदन्तियों में उन वृतान्तो का वर्णन मिलता है कि किस प्रकार मार या कामदेव ने बुद्ध का ध्यान बंटाकर कभी प्रबल आक्रमणों द्वारा, कभी आकर्षक प्रलोभन के साधन से उसे अपने उद्देश्य से पथभ्रष्ट करने के नाना प्रयत्न किए | मार को सफलता नहीं मिली |

68. ऐसा वर्णन मिलता है – एक दिन, सिद्धार्थ नदी के किनारे बैठे हुए थें तभी उन्होंने एक छोटे बालक को उसके शिक्षक द्वारा वाद्ययंत्र बजाने का निर्देश देते हुए सुना कि “तार बहुत ढीले नहीं होने चाहिए, वर्ना आप वाद्ययंत्र नहीं बजा सकते | और साथ ही, वे बहुत अधिक कसे हुए भी नहीं होने चाहिए, नहीं तो वे टूट जाएँगे |” तब उनकों को यह ज्ञान हुआ कि उनकी वर्षों की तपस्या व्यर्थ थी | राजमहल में उनके विलासतापूर्ण जीवन की भाँति, तप भी एक अतिवाद था जो दुःख को दूर नहीं कर सकता था | उन्होंने सोचा कि इन दोनों अतिवादों के मध्य ही समाधान का वास्तविक मार्ग होना चाहिए |

69. बुद्धचरित, 12.103 से 12.106 |

70. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 154,

71. ललितविस्तर, बोधिमण्डगमनपरिवर्त, 907 |

72. अपनी गम्भीर ध्यानावस्थित मुद्राओं में से एक मुद्रा में जबकि वें (बुद्ध) उस वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थें, जिसे उनके भक्त अनुयायियों ने बोधिनन्द का नाम दिया अर्थात् बुद्धि का पीठ, एक नवीन ज्ञान उनके मन में प्रस्फूटित हुआ | अपनी खोज की वस्तु उनके अधिकार में आ गई | (भारतीय दर्शन, प्रथम खण्ड – डा० राधाकृष्णन, पृष्ठ 320) |

73. बुद्ध का अर्थ है प्रकाश देने वाला और भारत में यह एक सामान्य संज्ञा है, जो अनेक व्यक्तियों के लिए उपयुक्त होती है | (भारतीय दर्शन, प्रथम खण्ड – डा० राधाकृष्णन, पृष्ठ 318) |

74. विनयपिटक, महावग्ग, 1:1:6 |

75. स्नेह सूचक संबोधन है जो पहले बड़े हेतु भी प्रयुक्त किया जाता था, लेकिन तथागत के महापरिनिर्वाण के पश्चात् छोटों के लिये ही रह गया |

76. मज्झिमनिकाय, पासरासि, 1:3:6 |

77. विनयपिटक, महावग्ग, 1:1:6 |