भगवान बुद्ध का जीवन परिचय भाग 1

bhagwan buddha ka jeevan parichay bhag 1

भगवान् बुद्ध के सम्पूर्ण जीवन को हम चार चरणों में विभाजित कर सकते है | उनके जन्म से लेकर 29 वर्ष की आयु में गृह-त्याग तक, अर्थात् 563 ईसा पूर्व से 534 ईसा पूर्व तक, के काल को हम तथागत के जीवन का पहला चरण मानते है | वें 29 से 35 वर्ष की उम्र के बीच उस वास्तविक सत्य की खोज में भटकते रहें जिससे मानव के दुःखों का अंत हो सके | यह उनके जीवन का दूसरा चरण था | अपने जीवन के तीसरे चरण में, भगवान् बुद्ध 35 से 80 वर्ष की आयु, अर्थात् 528 से 483 ईसा पूर्व, लगभग 45 वर्ष, तक लोगों को शिक्षा देते रहे | वे कभी कहानियों, कभी उदाहरणों व कभी अपने उपदेशों के माध्यम से लोगों को सत्य का ज्ञान करवाकर उनके जीवन से दुःखों को खत्म करने का प्रयास करते रहें | उनके जीवन का चौथा व अंतिम चरम उनकी बीमारी व महापरिनिर्वाण तक, अर्थात् 483 ईसा पूर्व, का था, जब वें अपने जीवन के अंतिम समय में भी अपने अनुयायियों और लोगों की शंकाओं को दूर करते हुए उपदेश देते रहें |

आरंभिक जीवन

भगवान् बुद्ध के बचपन के विषय में हमे बहुत कम जानकारी प्राप्त होती है | इसका एक कारण यह भी है कि भगवान् बुद्ध ने अपने आरंभिक जीवन के बारे में बहुत कम कहा है | युवा सिद्धार्थ के बारे में बहुत सी किंवदंतियां हैं परन्तु ऐसी प्रामाणिक जानकारी कम उपलब्ध है जिस पर हम भरोसा किया जा सके |

गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था, जिसका तात्पर्यं उस व्यक्ति से है जिसने अपना उद्देश्य पूर्ण कर लिया हो | कहते है कि इस तेजस्वी बालक के जन्म से ही राज्य एवं राजकुल में संपत्ति आई और सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हुई, इसीलिए राजा शुद्धोदन ने बालक को ‘सर्वार्थ-सिद्ध’ कहते हुए उसका नाम ‘सिद्धार्थ’ रखा |

एवंविधा राजकुलस्य संपत्सर्वार्थसिद्धिश्र्व यतो बभूव | ततो नृपस्तस्य सुतस्य नाम सर्वार्थसिद्धोड्यमिति प्रचक्रे ||7

[राजकुल की ऐसी सम्पद्‌ और सब अर्थों की सिद्धि हुई, इसीलिए राजा ने अपने पुत्र का नाम रखते हुए कहा- “यह सर्वार्थसिद्ध है” |]

सिद्धार्थ का सम्बन्ध गौतम अथवा गोतम के प्राचीन वंश से था | गौतम गोत्र के होने के कारण वें गौतम भी कहलाते है | बुद्ध की उपाधि उन्हें बाद में मिली और यह उस बोध का सूचक है जिसे प्राप्त करके उन्हें तत्व-दृष्टि मिली | उन्हें ‘तथागत’ भी कहा जाता है जिसका अर्थ है ‘सत्य है ज्ञान जिसका’ | शाक्य वंश में जन्म लेने के कारण वें शाक्यमुनि और शाक्यसिंह (शाक्यों का शेर) भी कहलाते है |

जैसाकि ललितविस्तर में वर्णित है –  ज्ञानप्रभं हन्ततमसं प्रभाकरं, शुभ्रप्रभं शुभविमलाग्रतेजसम्‌ | प्रशान्तकायं शुभशान्तमानसं, मुनि समाशि्लष्यत शाक्यसिंहम् ||8

[ज्ञान की प्रभावाले (अज्ञान-) अन्धकार के नाशद्वारा (ज्ञान रूपी) प्रकाश के करने वाले, देदीप्यमान छवि वाले, भव्य, निर्मल तथा उत्तम तेज वाले, प्रशान्त (अर्थात्‌ अचंचल) काय वाले, शुभ तथा शान्त (अर्थात्‌ चंचलता रहित) चित्त वाले मुनि शाक्यसिंह के समीप जाओ |]

परम्परा के आधार पर माना जाता है कि शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व9 में कपिलवस्तु10 के निकट नेपाल तराई में अवस्थित लुम्बनी वन11में हुआ था | भगवान् बुद्ध के मत के सबसे विख्यात अनुयायियों में से एक अशोक मौर्य ने अपने राज्याभिषेक के बीसवें साल इसी स्थान पर एक पाषाण स्तम्भ गाड़ा था, जो अब भी वहां मौजूद है | यद्यपि हमें भगवान् बुद्ध की जन्म तिथि का कोई उल्लेख नहीं मिलता | तथापि अधिकांश विद्वान विभिन्‍न साक्ष्यों व प्रमाणों के आधार पर मानते हैं कि भगवान् बुद्ध की मृत्यु ईसा मसीह के जन्म से 483 वर्ष पूर्व हुई थी | तथागत ने अपने महापरिनिर्वाण से कुछ समय पूर्व स्वयं कहा था कि वे उस समय 80 वर्ष के हैं | इस आधार पर हम भगवान् बुद्ध के जन्म के वर्ष को ईसा मसीह के जन्म से 563 वर्ष पहले मान सकते है |

इनके पिता शुद्धोदन वैदिक धर्म के अनुयायी और शाक्य नामक सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल के थें | अश्वघोष लिखते है कि – ऐक्ष्वाक इक्ष्वाकुसमप्रभाव: शाक्येष्वशक्येषु विशुद्धवृत: | प्रिय: शरच्चन्द्र इव प्रजानां शुद्धोदनो नाम बभूव राजा ||12

[इक्ष्वाकु-वंश में शुद्धोदन नामक राजा हुआ | वह अजेय शाक्यों का अधिपति था | इक्ष्वाकु के समान प्रभावशाली था | उसका आचरण पवित्र था | अपनी प्रजा के लिए वह शरच्चन्द्र के समान प्रिय था |]

माना जाता है कि शुद्धोदन कपिलवस्तु के शाक्यगण के प्रधान थें | डॉ. आंबेडकर लिखते है कि “हो सकता है कि कपिलवस्तु का नाम महान बुद्धिवादी मुनि कपिल के नाम पर पड़ा हो |”13 त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन कहते है कि “उनके (बुद्ध के) पिता शुद्धोदन को शाक्यों का राजा कहा जाता हैं, लेकिन हम जानते हैं कि शुद्धोदन के साथ-साथ भद्दिय व दण्डपाणि को भी शाक्यों का राजा कहा गया, जिससे यही अर्थ निकलता हैं कि शाक्यों के प्रजातंत्र की गण-संस्था (सीनेट या पार्लियामेंट) के सदस्यों को लिच्छवि-गण की भांति राजा कहा जाता था |”14 इस समय कोशल का राजा प्रसेनजित (पसेनदि) था जो इन राजाओं से ऊपर था |

ऐसा लगता है कि गणराज्य में जन्म लेने के कारण ही गौतम बुद्ध में कुछ समतावादी भावना आई थी |

शाक्य वंश के लोग काफी समृद्ध थें, इनमे बहुत से लोग भूमि के स्वामी व किसान थे साथ ही कुछ लोग व्यापार करते थे | गौतम बुद्ध के विचारों से लगता है कि वें शाक्य वंश में जन्म लेने पर गर्व महसूस करते थें | शाक्य लोग बहुत मेहनती होते थें यहाँ तक कि उनका राजा भी शारीरिक श्रम से पीछे नही हटता था | स्वयं भगवान् बुद्ध कहते है कि “जब शाक्‍्य, मेरे पिता, हल चला रहे थे, मैं जामुन के पेड़ की ठंडी छांव में बैठा था |” सम्भवतः राजा शुद्धोदन किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेते हुए ऐसा कर रहे हों | लेकिन एक रोचक तथ्य है कि राजा होने के बावजूद वे खुद अपने हाथ से हल चला रहे थें |

तथागत की माता का नाम महामाया देवी था, जो देवदह (उ.प्र. के गोरखपुर जिले में निचलौल के निकट) के गण-राजा अंजन और रानी सुलक्षणा की पुत्री थीं | राजा अंजन कोलिय थें | विवाह के बहुत समय के बाद भी महारानी महामाया सन्तान-सुख से वंचित रही | एक रात उन्होंने एक विचित्र स्‍वप्‍न देखा कि जैसे चद्रमा बादलों में चुपचाप प्रवेश करता है, वैसे ही एक श्वेत हाथी उनके शरीर में प्रवेश कर गया है |15

हिमरजतनिभश्च षड्विषाणः सुचरण चारुभुजः सुरक्तशीर्ष: | उदरमुपगतो गजप्रधानो ललितगतिर्दृंढवज्रगात्रसंधि: ||16

[हिम एवं रजत के समान (श्वेत), छह दाँतों वाला, सुन्दर पिछले पैरों वाला, सुन्दर अगले पैरों वाला, सुन्दर लाल सिर वाला, मनोहर गति वाला, वज्र के समान दृढ़ अंगों की गठन वाला, श्रेष्ठ हाथी पेट में समा गया |]

स्वप्न में उन्‍हें न किसी प्रकार का भय हुआ न कोई कष्‍ट हुआ बल्कि उन्‍हें सुखद अनुभूति हुई कि उन्‍होंने गर्भधारण कर लिया है |17

विचित्र स्वप्न के बाद सचमुच महामाया देवी गर्भवती18 हो गयी | महामाया देवी पात्र में तेल धारण करने के सदृश दस मास तक अपनी कुक्षि में बोधिसत्त्व को धारण कर, गर्भ के परिपूर्ण होने पर नैहर जाने को इच्छा से शुद्धोदन महाराज से बोली – हे देव, मैं अपने पिता के घर देवदह नगर जाना चाहती हूँ |” महाराज ने ‘अच्छा’ कह कपिलवस्तु से देवदह नगर तक के मार्ग को समतल करा, कदलीस्तम्भ, पूर्णघट, ध्वजपताकादि से अलंकृत करवा महामाया देवी को सुवर्ण पालकी पर बैठा, एक हजार अमात्य और एक बड़ी सेवक मण्डली से संरक्षित कर भेजा |19

रीत्यानुसार जब अपने पिता के घर प्रसव हेतु जा रही थी, उसी समय कपिलवस्तु से कुछ मील पर लुम्बिनी नामक शालवन (वनस्पति शास्त्रीय नाम शोरेआ रोबस्टा), जिसे शाक्य कुल के लोग पवित्र मानते थें, में वैशाख पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ का जन्म20 हुआ था |21 यहाँ से महामाया अपने पुत्र के साथ कपिलवस्तु वापस आ गयी |

बालक के जन्म और खुशियाँ और उसके नामकरण की विधियाँ अभी समाप्त भी नही हुई थी कि माता महामाया अचानक बीमार पड़ गयी और उनके रोग ने गम्भीर रूप धारण कर लिया | अंततः सिद्धार्थ के जन्म के सातवें दिन माता महामाया देवी की मृत्यु हो गयी | मृत्यु से पूर्व अपने पुत्र की जिम्मेदारी अपनी बहन (महाप्रजापति गौतमी) को देते हुए महामाया देवी ने कहा कि “प्रजापति ! मैं अपना पुत्र तुम्हे सौप जाती हूँ | मुझे विश्वास है कि उसके लिए तुम उसकी माँ से भी बढ़कर होगी | मेरा बालक शीघ्र ही मातृ-हीन बालक हो जायेगा | परन्तु मुझे इसकी तनिक चिंता नही है कि मेरे पश्चात् यथायोग्य विधि से उसका लालन-पालन नही होगा |”22

अश्वघोष लिखते है कि – “देवी तु माया विबुधर्षिकल्पं दृष्ट्वा विशालं तनयप्रभावम्‌ | जातं प्रहर्षे न शशाक सोढुं ततो निवासाय दिवं जगाम ||”23

[अपने पुत्र का प्रभाव देवर्षिका-सा विशाल देखकर, देवी माया (हृदय में) उत्पन्न हर्ष को न सह सकी और रहने के लिए स्वर्ग चली गई |]

माता के स्वर्गवासी होने पर शिशु सिद्धार्थ का पालन-पालन विमाता (मौसी) महाप्रजापति गौतमी ने बहुत स्नेहपूर्वक किया | महाप्रजापति गौतमी महामाया देवी की बड़ी बहन थीं |24

ऐसा कहा जाता है कि बालक सिद्धार्थ को देखकर महर्षि असित ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक या तो चक्रवर्ती राजा होंगा अथवा संन्यासी |25

जैसाकि अश्वघोष लिखते है – नै:श्रेयसं तस्य तु भव्यमर्थ श्रुत्वा पुरस्तादसितान्महर्षे: | कामेषु सग्ड़ं जनयाम्बभूव वनानि यायादिति शाक्यराजः ||26

[शाक्य-राज ने महर्षि असित से पहले ही उसका परम कल्याण-प्रद भविष्य सुना था; अतः उसने विषयों में उसकी आसक्ति उत्पन्न की, जिससे वह वन को न जाय |]

निदानकथाके अनुसार कौण्डिन्य नामक ब्राह्मण ने सिद्धार्थ के बुद्ध बनने की भविष्यवाणी की थी |27 त्रिपिटकाचार्य राहुल सांकृत्यायन भी लिखते है कि “उनमे (आठ ब्राह्मणों28) से सात ने दो अंगुलियाँ उठा, दो प्रकार का भविष्य कहा कि ऐसे लक्षणों वाला यदि गृहस्थ रहे, तो चक्रवर्ती राजा होता है, और प्रव्रजित होने पर बुद्ध | उनमे से सबसे कम उम्र कौण्डिन्य (नामक) तरुण ब्राह्मण ने बोधिसत्व के सुंदर लक्षणों को देखकर, एक अंगुली उठाकर कहा – ‘इसके घर में रहने का कोई कारण नही है, अवश्य ही यह विवृत-कपाट बुद्ध होगा |”29

महाराज शुद्धोदन के पुत्र के जन्म का बड़ा शुभ प्रभाव हुआ | उनके सभी मनोरथ पूरे होने लगे, उनके जो शत्रु थें, वे मध्यस्थ हो गये, जो मध्यस्थ थे, वे मित्र हो गये और जो मित्र थें वे और भी अधिक प्रिय हो गये | उनका घर धन-धान्य व हाथी-घोड़ों से सम्पन्न हो गया |

आ जन्मनो जन्मजरान्तकस्य तस्यात्मजस्यात्मजितः स राजा | अहन्यहन्यर्थगजाश्र्वमित्रैर्वृद्धिं ययौ सिन्धुरिवाम्बुवेगै: ||30

[जन्म और जरा के विनाशक उस आत्म-विजयी पुत्र के जन्म (-समय) से वह राजा दिन-दिन धन से, हाथी-घोड़ों से और मित्रों से उसी तरह बढ़ने लगा, जैसे जल-प्रवाहों से नदी |]

सिद्धार्थ का पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य व वैभवशाली वातावरण में हुआ, उन्हें एक क्षत्रिय राजकुमार को प्रदान की जाने वाली शिक्षाएं जैसे युद्ध-प्रणाली, शास्त्रों का ज्ञान आदि प्रदान की गयी थी | ऐसा वर्णन मिलता है कि जब राजा शुद्धोदन शाक्य कुल के लोगों के आपसी विवादों पर फैसला करने बैठते थे तब युवक सिद्धार्थ भी उनके बगल में बैठा करते थें |

बालक सिद्धार्थ अत्यंत मेधावी थें | जिन विद्याओं को साधारण बालक वर्षों में सीखते हैं, उनको उन्होंने कुछ ही समय में ही सीख लिया |

वयश्र्व कौमारमतीत्य सम्यक्‌ सम्प्राप्य काले प्रतिपत्तिकर्म | अल्पैरहोभिर्बहुवर्षगम्या जग्राह विद्या: स्वकुलानुरूपाः ||31

[कुमारावस्था बीतने पर, समय पर उसका (उपनयन-) संस्कार विधिवत्‌ हुआ तथा अपने कुल के अनुरूप विद्याएँ, जो बहुत वर्षों में सीखी जाती हैं, उसने कुछ ही दिनों में सीख लीं |]

लेकिन बचपन से ही इनका ध्यान आध्यात्मिक चिन्तन की ओर था | वे प्रायः जम्बू वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठे पाए जाते थें |

सिद्धार्थ को सांसारिक जीवन से विरक्त होते देखकर पिता शुद्धोदन को अत्यधिक चिंता हुई, उन्हें महर्षि असित द्वारा की गयी भविष्यवाणी याद थी कि यह बालक बड़ा होकर मोक्ष-प्राप्ति हेतु वन की ओर प्रस्थान कर सकता है | इसीलिए उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को सांसारिक विषयभोगों में फंसाने की बहुत कोशिश की | 

इसी उद्देश्य से सोलह वर्ष की आयु में ही सिद्धार्थ का विवाह रामग्राम के कोलिय-गण की एक अत्यंत सुंदर कन्या के साथ कर दिया | पालि साहित्य में गौतम बुद्ध की पत्नी का नाम भद्दा कच्चाना (भद्रा कात्यायनी), बिम्बा और राहुल-माता मिलता है, साथ ही बौद्ध संस्कृत-साहित्य में इन्हे गोपा और यशोधरा अथवा यशोवती नाम से पुकारा गया है | कालान्तर में इस कन्या का नाम यशोधरा प्रचलित हुआ | ऐसा वर्णन मिलता है कि यशोधरा उनके रिश्ते की बहिन थी |32

आध्यात्मिक प्रवृत्ति के कारण सिद्धार्थ का मन दाम्पत्य-जीवन में नही रम रहा था | इनके पिता ने इन्हे विलासता की सभी सामग्रियां प्रदान की | तीनों ऋतुओं में आराम के लिए अलग-अलग आवास बनवा कर दिये33 और उन्होंने अंतःपुर में ऐसी व्यवस्था करवाई जिससे राजकुमार सिद्धार्थ की आसक्ति सांसारिक विषयों में बढ़े और वें भोग-विलास में इतना लिप्त हो जाये कि उन्हें किसी तरह का वैराग्य न हो तथा वें राजमहल की चार-दिवारी में रहकर शारीरिक-सुख का पूर्ण आनंद लेते रहें |

यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम राहुल पड़ा | राजा शुद्धोदन ने बड़े उत्साह के साथ अपने पौत्र का जन्मोत्सव मनाया |

अथेष्टपुत्र: परमप्रतीतः कुलस्य वृद्धिं प्रति भूमिपालः | यथैव पुत्रप्रसवे ननन्द तथैव पौत्रप्रसवे ननन्द ||34

[तब अभिलषित पुत्रवाले राजा को वंश-वृद्धि का पूरा विश्वास हुआ | जैसे वह पुत्र जन्म में आनन्दित हुआ था, वैसे ही पौत्र-जन्म में आनन्दित हुआ |]

राजा शुद्धोदन को अब यह विश्वास हो गया कि उनके वंश का विस्तार होगा और जैसे वें अपने पुत्र से स्नेह करते है वैसे सिद्धार्थ भी अपने पुत्र से स्नेह करेंगे और मोह-जाल में फंस जायेंगें | इस अभीष्ट-पूर्ति हेतु उन्होंने कई धार्मिक अनुष्ठान किये |

पुत्रस्य मे पुत्रगतो ममेव स्नेहः कथं स्यादिति जातहर्षः | काले स तं तं विधिमाललम्बे पुत्रप्रियः स्वर्गमिवारुरुक्षन्‌ ॥35

[“मेरे पुत्र को मेरे ही समान पुत्रगत स्नेह किस प्रकार होता होगा” यह सोचकर उसे हर्ष हुआ उस पुत्रप्रिय ने मानों स्वर्गारोहण की इच्छा से समय पर उस-उस (धार्मिक) विधि का अवलम्बन किया |]

लेकिन ऐसा वर्णन मिलता है कि पुत्र प्राप्ति से सिद्धार्थ खुश नही थें और उसे मोह-बंधन मानकर ‘राहु’ कहा और इस प्रकार उस बालक का नाम राहुल पड़ा | पुत्र के जन्म पर सिद्धार्थ ने कहा था, “जीवन-श्रृंखला की एक कड़ी आज और गढ़ी गयी |”

निदानकथा में इस प्रकार वर्णन मिलता है – “उसी समय राहुल माता ने पुत्र प्रसव किया, यह सुन शुद्धोदन महाराज ने आज्ञा दी कि ‘मेरे पुत्र को यह आनन्द का समाचार सुनाया जाय’ | बोधिसत्त्व ने उसे सुन – ‘राहू जन्म लिया’, ‘बन्धन उत्पन्न हुआ’ – ऐसा कहा | राजा ने यह पूछ कर कि ‘मेरे पुत्र ने क्या कहा’ तथा उनके वचन को सुन – “अब से मेरे पौत्र का नाम राहुल कुमार हो’, ऐसा कहा |36

महाभिनिष्क्रमण (गृह-त्याग)

जैसे-जैसे सिद्धार्थ की उम्र बढ़ती गयी उनका मन सांसारिक विषयभोगों से दूर भागता गया | बौद्ध ग्रन्थों में उल्लिखित जीवन सम्बन्धी चार दृश्य विश्व प्रसिद्ध है, जिन्हें देखकर सिद्धार्थ में वैराग्य की भावना अत्यंत प्रबल हो उठी |

29 वर्ष की आयु तक, एक बढ़ती जिज्ञासा के साथ, कि राजमहल के बाहर की दुनिया कैसी होगी, सिद्धार्थ ने विलासमय जीवन बिताया | उन्होंने सोचा, ‘यदि यह भूसम्पत्ति मेरी होनी ही है तो निस्संदेह मुझे उसे और अपने लोगों को देखना चाहिए |’

एक बार राजकुमार सिद्धार्थ ने सुना कि राजमहल से बाहर एक सुंदर उद्यान है |

ततः कदाचिन्मृदुशाद्वलानि पुंस्कोकिलोन्नादितपादपानि | शुश्राव पद्माकरमण्डितानि गीतैर्निबद्धानि स काननानि ||37

[तब एक बार उसने गीत-निबद्ध काननों के बारे में सुना, जो मृदु और हरे तृणों से युक्त थे, जिनके पेड़े कोयलों से निनादित थे और जो कमल के पोखरों से मण्डित थे |]

उन्होंने पिता से उस मनोहर उद्यान को देखने की इच्छा व्यक्त की | पिता नही चाहते थें कि राजकुमार को किसी प्रकार का दुःख हो और उनके मन में वैराग्य-भाव उत्पन्न हो, इसलिए उन्होंने आज्ञा दे दी |38

अथो नरेन्‍द्रः सुतमागताश्रुः शिरस्युपाघ्राय चिरं निरीक्ष्य | गच्छेति चाज्ञापयति स्म वाचा स्नेहान्न चेनं मनसा मुमोच ||39

[तब राजा ने, जिसे आँसू आ गये थे, पुत्र के शिर (सिर) को सूँघकर (चूमकर) उसे देर तक देखा और “जाओ” कहते हुए आज्ञा दी, किन्तु स्नेह-वश उसे मन से नही छोड़ा |]

राजा शुद्धोदन चाहते थे कि राजकुमार सिद्धार्थ के मन में किसी प्रकार का वैराग्‍य-भाव उत्‍पन्‍न न हो | इसलिए उन्होंने नगर में डुग्गी पिटवाई कि कुमार सुन्दर भूमि को देखने के लिए आज से सातवें दिन उद्यानभूमि की ओर बाहर निकलेंगे | इसलिए आप लोगों को चाहिए कि मन को न भाने वाली सब वस्तुएं हटा दें, ताकि कुमार अच्छी न लगने वाली वस्तु न देख पायें | मन को भाने वाली एवं विषयों में रमाने वाली वस्तुओं को जुटाए |40

राजमहल के बाहर निकलकर शाक्तपुत्र सिद्धार्थ अत्यंत प्रसन्न थें, उन्हें ऐसा लग रहा था कि जैसे उनका नया जन्म हुआ हो |

अपने स्वामिभक्त सारथी छन्दक (छन्ना) के साथ उद्यान के लिए जाते हुए सिद्धार्थ ने मार्ग में एक वृद्ध व्यक्ति को देखा | अन्य सभी व्यक्तियों से विलक्षण इस जर्जर शरीर वाले वृद्ध पुरुष को जैसे ही देखा, वें चौक गयें और बहुत ही ध्यान से उसकी ओर देखने लगें | फिर उन्होंने सारथी से पूछा – “हे सूत (सारथी), यह व्यक्ति कौन है ? यह कहाँ से आया है ? सफेद बालों वाला यह पुरुष अपने हाथ में लाठी क्यों पकड़े हुए है ? इसकी आँखें भौहों से कैसे ढँक गयी हैं ? इसका शरीर क्यों झुका हुआ है ? क्या यह कोई विकृति है ? अथवा इसकी यही स्वाभाविक स्थिति है ? अथवा यह अनायास ही ऐसा हो गया है ?”41

सिद्धार्थ की इन प्रश्नों को सुनकर सारथी छन्दक सोचने लगा कि “अब मैं राजकुमार से क्या कहूँ ?” राजकुमार के विषय में की गयी भविष्यवाणी से वह अवगत था | लेकिन न चाहते हुए भी उसने सिद्धार्थ से कहा, “हे राजकुमार ! रूप एवं शक्ति का नाश करने वाली यह जरावस्था है, यह बुढ़ापा है, जिसमे स्मृति का नाश हो जाता है, इंद्रियां शिथिल हो जाती है, इसी वृद्धावस्था ने इस पुरुष को लाचार कर दिया है | इसने भी बाल्यावस्था में दूध पिया है, सुंदर शरीर पाकर यौवन का सुख भोगा है तथा कालक्रम से यह वृद्ध हो गया है |”

रूपस्य हन्त्री व्यसनं बलस्य शोकस्य योनिर्निधनं रतीनाम्‌ | नाशः स्मृतीनां रिपुरिन्द्रियाणामेषा जरा नाम ययैष भग्नः ||42

[रूप की हत्या करने वाली, बल की विपत्ति, शोक की उत्पत्ति (-भूमि) आनन्द की मृत्यु, स्मृति का नाश करने वाली, इंद्रियों का शत्रु यह जरा है, जिसने इसे भग्न कर दिया है |]

पीतं ह्रानेनापि पयः शिशुत्वे कालेन भूयः परिसृप्तमुर्व्याम्‌ | क्रमेण भूत्वा च युवा वपुष्मान्‌ क्रमेण तेनैव जरामुपेतः ||43

[बचपन में इसने भी दूध पिया, फिर कालक्रम से पृथिवी पर पेट के बल चला, क्रम से सुंदर युवक हुआ, तथा उसी क्रम से जरा को प्राप्त हुआ है |]

सारथी की इन बातो को सुनकर सिद्धार्थ चकित हो गये, क्योकि इस प्रकार का उन्हें कोई पूर्व अनुभव न था | उन्होंने पुनः उस वृद्ध पुरुष की ओर दयापूर्ण भाव से देखा और छन्दक से पूछा, “क्या मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा |” छन्दक ने उत्तर दिया, “हाँ राजकुमार, समयानुसार आपको भी वृद्धावस्था अवश्य प्राप्त होगी |”

सारथी की इन बातो से सिद्धार्थ उद्विग्न हो उठे | उन्होंने फिर एक बार उस कमजोर वृद्ध पुरुष को देखा, फिर चारो तरफ प्रसन्नचित्त लोगों की भीड़ को देखकर आश्चर्य करने लगे कि ये कैसे लोग है जो स्मरणशक्ति व सभी पराक्रमों को नाश कर देने वाली इस वृद्धावस्था को देखकर भी अनुद्विग्न बने रहते है |

सिद्धार्थ ने सारथी को आदेश दिया कि, “हे सूत ! चलो, वापस महल चलें, अपने घोड़ों को मोड़ दो, मन में जब बुढ़ापे का भाव भर गया हो, तो इस उद्यान में मेरा मन कैसे रमेगा |”44 राजकुमार की आदेश पाकर सारथी ने रथ राजमहल की तरफ मोड़ दिया | महल में भी सिद्धार्थ के मन में बार-बार वही दृश्य आ रहा था और उन्हें किसी भी प्रकार से शांति का अनुभव नही हो रहा था |45 

राजकुमार ने पुनः पिता से आज्ञा लेकर उद्यान-भ्रमण को चल दिए | इस बार उन्हें एक रोगी दिखा, जिसका पेट बढ़ा हुआ था, कंधे झुके थे और वह लम्बी-लम्बी साँसें ले रहा था | सिद्धार्थ ने तुरंत रथ को रुकवाया और सारथी से पूछा – “हे सूत, यह दुबला-पतला मानव कौन है, जो दूसरों का सहारा लेकर चल रहा है और कराहता हुआ ‘हाय माँ, ‘हाय माँ’ कहता जा रहा है ?”

सारथी ने उत्‍तर दिया –

एषो हि देव पुरुषो परमं गिलानो, व्याधीभयं उपगतो मरणान्तप्राप्त: | आरोग्यतेजरहितो बलविप्रहीनो, अत्राणद्वीपशरणो ह्यपरायणश्च ||46

[हे देव, यह आदमी बहुत बीमार है, व्याधियों से घबराया हुआ है, मरने-मरने को हो रहा है, नीरोगता और तेज से रहित, बल को बिलकुल खो चुका है, बिना रक्षा-द्वीपशरण का है, और इसका सहारा नहीं रहा है |]

सारथी का उत्तर सुनकर राजकुमार सिद्धार्थ ने अत्यंत दयापूर्ण दृष्टि से उस रोगी को देखा और पुनः सारथी से पूछा “क्‍यों सूत ! यह रोग केवल इसी मानव को हुआ है अथवा किसी को भी हो सकता है ?”

सारथी ने बताया कि यह साधारण बात है, रोग-भय तो सभी प्राणियों को लगा रहता है | कोई भी व्यक्ति किसी भी रोग से पीड़ित हो सकता है, लेकिन मानव यह सबकुछ जानते हुए भी किसी प्रकार की परवाह नहीं करते और मस्त रहते है |

सारथी की ऐसी बातें सुनकर राजकुमार सिद्धार्थ का मन और भी बेचैन हो उठा | उनका हृदय काँपने लगा, फिर करुण स्वर से सिद्धार्थ ने कहा –

इदं च रोगव्यसनं प्रजानां पश्यंश्च विश्रम्भमुपैति लोकः | विस्तीर्णमज्ञानमहो नराणां हसन्ति ये रोगभयैरमुक्ताः ||47

[प्रजाओं की यह रोगरूप विपत्ति देखते हुए भी संसार विश्वस्त (=निर्भीक) रहता है | अहो, (कितना) विशाल अज्ञान है (इन) मनुष्यों का, जो रोग-भय से अमुक्त होकर भी हँस रहे हैं |]

दुःखी सिद्धार्थ ने सारथी से कहा – “हे सूत ! अब तुम रथ को राजमहल की तरफ मोड़ दो, जल्द वापस चलो, लौट चलो, मुझसे यह रोग-भय सहा नहीं जाता | राजकुमार के आदेशानुसार सारथी ने रथ को राजमहल की ओर मोड़ दिया |

वें अपने कमरे में जाकर एकांत में विचारों में डूब गये | पहले ही उनका हृदय बुढ़ापे के भय से दुःखी था और अब रोग से मन भयभीत हो गया |

इधर पिता शुद्धोदन ने एकांत में बैठे अपने पुत्र को दुःखी देखा तो उन्‍होंने इसका कारण जानना चाहा | उन्‍होंने सारथी को बुलाया और उससे सम्पूर्ण घटना की जानकारी ली | तब महाराज को यह ज्ञात हुआ कि राजकुमार सिद्धार्थ जरा और रोग से ग्रस्‍त दो लोगों को देखकर अत्यंत दुःखी व व्याकुल हो गए हैं |

महाराज शुद्धोदन चिंतित होकर सोचने लगे कि जिस भय से असुन्दर चीजों, व्यक्तियों आदि को हटाने का आदेश दिया था वहीं भय कैसे उपस्थित हो गया ? उन्‍हें अपने अधिकारियों व कर्मचारियों पर बड़ा क्रोध आया, क्योकि उन्होंने राजकुमार सिद्धार्थ की यात्रा से पूर्व सम्पूर्ण राजमार्ग को सुसज्जित करने और ऐसे सभी लोगों को हटाने का आदेश दिया था, जिन्हें देखकर राजकुमार को किसी प्रकार की पीड़ा हो | लेकिन महाराज शुद्धोदन कोमल हृदय के थें उन्होंने इसे अपनी नियति मान लिया और उन अधिकारियों को दंडित नही किया |48

महाराजा शुद्धोदन महर्षि असित की भविष्यवाणी को लेकर बहुत चितिंत थें, उन्होंने अपने मंत्रियों को बुलाकर इस विषय पर विस्तार से विचार-विमर्श किया | निष्कर्ष निकला कि राजकुमार सिद्धार्थ के मन को बदलने के लिए अंतःपुर में भोग-विलास और आमोद-प्रमोद की व्यवस्था में ओर वृद्धि की जाये, जिससे वह विषयों में आसक्त होकर यही रहे और उनका बाहर जाने का मन न करें |49

अब सुनियोजित तरीके से सिद्धार्थ को आमोद-प्रमोद में फंसाने के लिए विशेष आयोजन किये जाने लगे, लेकिन राजकुमार के मन पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ रहा था, वें दुखित कर देने वाले उन दो दृश्यों को भूल नही पा रहे थें |

महाराज शुद्दोधन ने सोचा कि हो सकता है अंतःपुर के बाहर निकलने पर राजकुमार का मन बदल जाये | इसीलिए उन्होंने सिद्धार्थ के लिए पुनः नगर-दर्शन की विशेष व्यवस्था करने का आदेश दिया | आदेशानुसार नगर-दर्शन की ऐसी व्यवस्था की गयी जिससे राजकुमार का मन किसी भी प्रकार उद्विग्न न हो | राजकुमार के आस-पास सुंदर युवक-युवतियों को रहने को कहा गया |

सुनियोजित तरीके से सुसज्जित किये गये नगर-मार्ग व सुंदर युवक-युवतियों को देखकर सिद्धार्थ बहुत प्रसन्न थें | लेकिन ये प्रसन्नता ज्यादा देर तक टिक न पाई | नगर-भ्रमण के कुछ देर बात ही उन्हें एक मृत व्यक्ति की शव-यात्रा दिख गयी | पूर्व की भांति यह दृश्य भी सिद्धार्थ के लिए बिल्कुल नया था |

शाक्तपुत्र सिद्धार्थ ने सारथी से पूछा –

अथाब्रवीद्राजसुतः स सूतं नरैश्चतुर्भिर्हियते क एषः | दीनैर्मनुष्यैरनुगम्यमानो (वि)भूषितश्चाप्यवरुद्यते च ||50

[यह कौन है? इसे चार पुरुष लिये जा रहे हैं, दीन मनुष्य इसके पीछे-पीछे जा रहे हैं, और विशेषता से भूषित होने पर भी इसके लिए रोया जा रहा है]

यद्यपि महाराज शुद्धोदन ने सारथी को सब समझा कर राजकुमार के साथ भेजा था कि वह राजकुमार से ऐसी कोई बात न करें जिससे उनका मन बेचैन हो, लेकिन सारथी राजकुमार का आग्रह नहीं ठुकरा सका | उसने राजकुमार से कहा कि इस व्‍यक्‍ति की चेतना, बुद्धि, प्राण, इंद्रिय गुण इत्यादि का अंत हो चुका अब यह निर्जीव लकड़ी के टुकड़े की भांति है | जिसे उसके प्रियजनों ने बड़े लाड़-प्‍यार से पाला-पोसा गया था, उसे ही आज ये लोग रो-रोकर सदैव के लिए छोड़ने जा रहे हैं |

सिद्धार्थ ने पुनः पूछा, “क्‍या यह स्‍थि‍ति सभी की होती है या केवल इसी की है ? क्‍या यह केवल इसी का अंत है अथवा हम सभी का ऐसा ही अंत होगा ?” 

सारथी ने कहा कि “हाँ देव, पृथ्वी पर मौजूद समस्त प्राणियों की यही अंतिम गति है, क्योकि समस्त नाशवान हैं, चाहे कोई व्‍यक्‍त‍ि उत्‍तम हो, मध्‍यम हो अथवा अधम हो, अंत सभी का होना है और अंत सबका एक-सा ही होना है|” 

सारथी की ऐसी बातें सुनकर राजकुमार अत्‍यंत व्यग्र हो गये क्योकि ये सब बातें उन्होंने पहली बार जानी थी | फिर उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा –

धिग्‌ यौवनेन जरया समभिद्रुतेन, आरोग्य धिग्‌ विविधव्याधिपराहतेन, धिग्‌ जीवितेन विदुषा नचिरस्थितेन, धिक्‌ पण्डितस्य पुरषस्य रतिप्रसङैग् ||51

[(उस) जवानी को धिक्कार है, (जिस पर) बुढ़ौती हमला कर देती है, (उस) आरोग्य को धिक्कार है, (जिसे) नानाप्रकार की व्याधियाँ कुचल डालती हैं, विद्वानों के (उस) जीवन को धिक्कार है, (जो) चिर काल तक नहीं ठहरता, पण्डित पुरुष के (भोगविलासों में) रमने की आसक्तियों को धिक्कार है |] 

उन्होंने सारथी से संसार की असारता के विषय में सोचते हुए कहा, “जब सभी प्राणियों की मृत्यु निश्चित है तो लोगों को डर क्यों नहीं लगता | लोग सावधान क्यों नहीं होते ? लगता है, मानव का हृदय अत्यंत कठोर है, तभी तो मृत्यु मार्ग पर विचरण करते हुए भी, वे मृत्यु के भय से बेपरवाह रहते हैं | हे सूत ! अब लौट चलो, चलो मुझे घर ले चलों | यह समय आमोद-प्रमोद का नहीं है | मृत्यु को जानकर भी भला मैं कैसे अपने आपको आमोद-प्रमोद में डुबों कर खुश रह सकता है |”

राजमहल में भी सिद्धार्थ संसार की नश्वरता के विषय में सोचते रहे | बार-बार मन में यही विचार आ रहा था कि सब कुछ क्षणिक है, सब कुछ अनित्य है | जब सारा संसार विषयों में डूबा हुआ है, इस जगत की अनित्यता जानकर, जरा, व्याधि व मृत्यु को जानकर, अब मेरा मन इसमे नही रम रहा है | लोग अज्ञानवश ही जरा, व्‍याधि व मृत्यु की उपेक्षा कर रहे हैं | क्‍या मैं भी उन्ही की भांति इनकी उपेक्षा कर रहा हूँ ? नहीं, मेरे लिए यह उचित नहीं है | अब वें हर्ष, संताप, संदेह, राग, द्वेष इत्यादि से मुक्त हो रहे थें |

महाराज शुद्धोदन को जब मालूम हुआ कि राजकुमार सिद्धार्थ सभी विषयों से विमुख होकर वापस आया है, तो जैसे किसी सिंह को विषाक्त बाण लग जाने से असहनीय पीड़ा होती है वैसे ही उनको पीड़ा हुई | उन्होंने अविलम्ब पुनः अपने मंत्रियों को बुलाया व उनके साथ मंत्रणा की कि क्या उपाय किये जाएँ, जिससे उनके प्रिय पुत्र का मन दुःख को त्याग कर सुख की ओर भागे, उसका वैराग्य समाप्त हो और विषयों के प्रति आसक्ति जागे |

पुनः राजमहल में उन्हें सुंदर स्त्रियों के नृत्य, गान और वीणा वादन इत्यादि विविध प्रकार के आमोद-प्रमोद व भोग-विलासों द्वारा लुभाने का प्रयास किया जाने लगा | लेकिन इन सब से शाक्त पुत्र को तनिक भी सुख नही मिल रहा था और न ही उनके मन को शांति नही मिल रही थी | राजकुमार के मन में शांति प्राप्ति हेतु वन की ओर जाने की इच्छा हुई |

अथ मन्त्रिसुतै: क्षमै: कदाचित्सखिभिश्चित्रकथैः कृतानुयात्र: | वनभूमिदिदृक्षया शमेप्सुर्नरदेवानुमतो बहिः प्रतस्थे ||52

[तब एक बार शान्ति-प्राप्ति के उस इच्छुक (सिद्धार्थ) ने, राजा (शुद्धोदन) से अनुमति पाकर, वन-भूमि देखने के लिए बाहर प्रस्थान किया, मन्त्रियों के पुत्र, जो उसके योग्य मित्र थे और जो चित्र-विचित्र कथाएँ जानते थे, उसके साथ गये |]

राजकुमार ने वन में जाते वक्त एक मुण्डित, काषाय-वस्त्रधारी, प्रब्रजित (साधु) को देखा |53 जो सांसारिक मोह-बंधन को त्यागकर प्रसन्न मुद्रा में भ्रमण कर रहा था |

देखकर सारथी से पूछा, – “यह पुरुष कौन है, इसका सिर भी मुंडा है, वस्त्र भी दूसरो जैसे नही है ?”

“देव, यह प्रब्रजित हैँ |”

“यह प्रब्रजित क्या चीज है ?”

“देव, अच्छे धर्माचरण के लिये, शांति पाने के लिये, अच्छे कर्म करने के लिये, पुण्य-संचय करने के लिये, अहिंसा, भूतो पर अनुकंपा करने के लिये यह प्रब्रजित हुआ है”

“तब जहाँ वह प्रब्रजित है वहाँ रथ को ले चलो |”

“अच्छा देव !”

तब राजकुमार ने उस प्रब्रजित से यह कहा – “हे ! आप कौन है ?, आपका सिर भी मुंडा हुआ है, आपके वस्त्र भी अलग है |”

“देव, मैं प्रब्रजित हूँ |”

“आप प्रब्रजित है, इसका क्या अर्थ ?’

“देव, मैं, अच्छे धर्माचरण के लिये ……… प्रब्रजित हुआ हूँ |”

इसके पूर्व के तीन दृश्यों को देखकर राजकुमार सिद्धार्थ का मन द्रवित हो उठा था | किन्तु इस चौथे दृश्य से उन्हें आशा व संतोष की प्राप्ति हुई |

सिद्धार्थ ने कहा –

“साधू सुभाषितमिदं मम रोचते च, प्रव्रज्य नाम विदुभिः सततं प्रसस्ता |, हितमात्मनश्च परसत्त्वहितं च यत्र, सुखजीवितं सुमधुरं अमृतं फलं च ||”54

[साधु, यह सुभाषित मुझे पसन्द है | विद्वानों ने (उस) प्रव्रज्या की सदा प्रशंसा की है, जिसमें अपना हित होता है, दूसरे प्राणियों का हित होता है, जीवन सुख का तथा बहुत मिठास का होता है, तथा (अन्त में) अमृत का फल मिलता है |]

सिद्धार्थ जब अपने राजमहल की तरफ जा रहे थें तभी राजमार्ग में एक राजकन्‍या ने उन्हें देखकर कहा, “हे विशाल-नयन ! आप जिस स्‍त्री के पति हैं, वह निश्‍चित ही निवृत्त है, सुखी है |” राजकुमार को इस ‘निवृत्त’ शब्‍द को सुनने-मात्र से परम शांति का अनुभव हुआ तथा वें निर्वाण के विषय में विचार करने लगे | इन्ही भाव के साथ वे राजमहल पहुंचे |

राजकुमार सिद्धार्थ द्वारा देखें गये ये चार दृश्य, जोकि राजमहल के ऐश्वर्यपूर्ण-विलासतामय जीवन से बिल्कुल विपरीत और जिनसे उन्हें संसार की अस्थिरता व क्षणभंगुरता का बोध हुआ, निश्चय ही उन्हें गृह-त्याग की ओर ले जाने वाले थें |

राजमहल में राजकुमार सीधे राजसभा गये और विद्वान मंत्रियों के साथ विचार-विमर्श कर रहे अपने महाराज शुद्धोदन से कहा कि “हे राजन’, मैं अब मोक्ष-प्राप्‍त‍ि हेतु संन्‍यास लेना चाहता हूँ, आप कृपा करके मुझे आज्ञा प्रदान करें, क्‍योंकि यह निश्‍चित है कि कभी-न-कभी एक दिन हमारा वियोग होगा, इसलिए अभी जाने की आज्ञा प्रदान करके मेरे जीवन पर उपकार करें |”

राजकुमार सिद्धार्थ का यह वचन सुनकर महाराज शुद्धोदन वैसे ही काँप उठे, जैसे हाथी से आहत वृक्ष | और कमल-सदृश हाथों से उसे पकड़कर बाष्प से रुकती वाणी में यह वचन कहा, “हे तात ! इस तरह के विचारो का त्याग करों, संन्यास लेने का समय तो अभी मेरा है, तुम तो अभी पुरुषार्थ करो, राजलक्ष्मी का भोग करो, गृहस्थ धर्म का पालन करो, जवानी के सुख भोगने के बाद मनुष्य का तपोवन-प्रवेश रमणीय होता है, अभी तुम्हारे संन्यास ग्रहण करने का समय उपयुक्त नही है |”

महाराज के ये वचन सुन सिद्धार्थ ने कहा, “यदि आप मेरी चार बातों को पूरा कर दे तो मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं तपोवन की शरण में नही जाऊंगा |”

ये चार बातें है –

न भवेन्मरणाय जीवितं मे विहरेत्स्वास्थ्यमिदं च मे न रोगः | न च यौवनमाक्षिपेज्जरा मे न च सम्पत्तिमिमां हरेद्विपत्तिः ||55

[मेरा जीवन मरण के लिए न हो, और न रोग मेरे इस स्वास्थ्य का हरण करे, और न जरा मेरे यौवन को नष्ट करे, और न विपत्ति मेरी इस सम्पत्ति को हरे |]

सिद्धार्थ की ऐसी बात सुन कर महाराज दुःख से अत्यंत पीड़ित हुए, और कहा “कुमार, तुम्हारी माँग बे-ठिकाने की हैं | इस पर मेरा बस नहीं है | जरा, व्याधि और मृत्यु के भय से तथा विपत्ति से कल्प तक ठहरने वाले ऋषि भी कभी मुक्त नहीं हुए |”56

पिता के ये वचन सुन राजकुमार ने कहा –

यदि दानि देव चतुरो वर नो ददासि, जरव्याधिमृत्युभयतश्च विपत्तितश्च | हन्तः श्यृणुष्व नृपते अपरं वरैकं, अस्माच्च्युतस्य प्रतिसंधि न मे भवेया |57

[हे देव, अब जरा, व्याधि तथा मृत्यु से और विपत्ति से (मुक्ति के) चार वर नहीं देते हो, तो अहो राजन्‌, एक और वर सुनो – यहाँ से देह त्यागने पर मेरा पुनर्जन्म न हो |] 

महाराज ने तरह-तरह के तर्क देकर राजकुमार को समझाने का प्रयास किया, लेकिन सिद्धार्थ ने उनकी एक भी बात न मानी और कहा – “हो सकता है कि मेरी बातों में कोई तर्क न हो, लेकिन मुझे ऐसा महसूस होता है कि जिस घर में आग लग गयी हो, उससे बाहर निकल जाना ही श्रेयस्कर है | जब मेरा आपका वियोग निश्चित है, तो धर्म पालन हेतु उस वियोग को मैं अभी क्यों न चुन लूँ, नही तो मृत्यु तो अलग करेगी ही |”

राजकुमार सिद्धार्थ की इस तरह की निश्चय बातें सुनकर महाराज शुद्धोधन ने अपनी सावधानियों को दुगना कर दिया और अपने प्रिय पुत्र को सांसारिक वैभव में रमाने हेतु भांति-भांति प्रयत्न करने लगे | सिद्धार्थ सत्य रूप में मानो राजमहल में एक बंदी बना दिए गये | यद्यपि अब वे और अधिक ऐश्वर्य और आनन्द के बीच थें तदापि उनका मन उन चार दृश्यों को भूल नही पा रहा था और उनका मन व्याकुल हो रहा था |

एक रात सिद्धार्थ अनेक सुंदर गणिकाओं का मनोहर नृत्य देखते-देखते सो गये साथ ही गणिकाएँ भी सो गयी | अचानक राजकुमार की नींद भंग हुई तो निद्रावस्था में मग्न श्रृंगारविहीन गणिकाएँ उन्हें अत्यंत भयानक दिखी | कुछ लगभग निर्वस्त्र थी, कुछ के बाल बिखरे थें और कुछ भयानक तरह से खर्राटे ले रही थी | सिद्धार्थ को कुछ समय पूर्व जो दृश्य मनोहर लग रहा था वही दृश्य अब घृणित लग रहा था |58

अब सिद्धार्थ में सांसारिक जीवन के त्याग की भावना दृढ़ हो चुकी थी | अंततः एक रात जब सभी निंद्रामग्न थें, उन्होंने अपने स्वामिभक्त सारथी छन्दक को जगाया जिसने उनके प्रिय अश्व कंथक को पृष्ठपर्याण किया59 और वे अपने दृढ़ संकल्प के साथ अपने हितैषी माता-पिता, अनुरक्त पत्नी, प्रिय अबोध पुत्र तथा अन्य प्रियजनों को त्याग कर चुपचाप राजमहल से निकल गये |

गृहत्याग के पूर्व भगवान् बुद्ध का अपने नवजात पुत्र को देखने की इच्छा हुई | निदानकथा में इस घटना का मार्मिक वर्णन इस प्रकार मिलता है, “बोधिसत्त्व ने भी छन्न को भेजकर ‘पुत्र को देखूगा’ ऐसा विचार, अपने आसन से उठकर राहुलमाता (यशोधरा) के वासस्थान की ओर जा गर्भद्वार को खोला | उस समय घर के भीतर गन्धपूर्ण तेल का दीपक जल रहा था | राहुलमाता सुमन मल्लिका आदि के अम्मण भर फूलों से भरी शय्या पर पुत्र के माथे पर हाथ रख कर सो रही थी | बोधिसत्त्व ने देहली पर पैर रख खड़े-खड़े उसे देख (सोचा) “यदि मैं देवी के हाथ को हटा अपने पुत्र को ग्रहण करूँगा, तो देवी उठ जायगी | इस प्रकार मेरे जाने में बाधा होगी | बुद्ध होकर ही आ पुत्र को देखूंगा” ऐसा सोच प्रासाद से उतर आये |”60

राजकुमार सिद्धार्थ ने नगर पार करके एक बार नगर की मुड़कर देखा और सिंहनाद किया कि “जन्म व मृत्यु के पार देखे बिना मैं अब इस कपिलवस्तु नगर में फिर प्रवेश नही करूंगा |” फिर “सूर्य के घोड़े के समान वह घोड़ा, जो मानो मन में प्रेरित होता हुआ चल रहा था, और वह कुमार, उषा के आगमन से आसमान के तारों के फीके होने से पहले ही बहुत योजन चले गये” |61 

रातों-रात शाक्य राज्य को लाँघकर सुबह अनोमा (गोरखपुर में आमी) नदी को पार कर लिया |

इसके बाद बोधिसत्त्व ने नदी के तट पर खड़े हो छन्न से पूछा –

“इस नदी का क्या नाम है ?”

“देव, इसका नाम अनोमा है |”

“मेरी प्रव्रज्या अनोमा (महान्‌) होगी” (ऐसा सोच) एड़ी से घोड़े को छूते हुए उन्होने संकेत किया |

नदी के दूसरे तट पर पहुँच कर भगवान् बुद्ध ने घोड़े की पीठ से उतर कर रजतपट (चाँदी के वस्त्र) सदृश्य बालुका तट पर खड़े हो छन्न से कहा, “सौम्य छन्न, तुम मेरे आभूषण और कंथक को लेकर जाओ, मैं यहीं प्रव्रजित होऊंगा |”

“देव, मैं भी आपके साथ प्रव्रजित होऊगा” छन्दक ने आग्रह किया |

बोधिसत्त्व ने समझाया “तुम्हें प्रव्रज्या अलभ्य है, अतः तुम लौट जाओ |”

इस प्रकार तीन बार जाने को कह, आभूषण और कंथक को सारथी को दे भगवान् बुद्ध सोचने लगे कि, “ये मेरे केश श्रमण के अनुरूप नही हैं, साथ ही मेरे केश को काटने योग्य दूसरा कोई नहीं है, अतः मैं स्वयं ही काटूँगा |” ऐसा सोच बोधिसत्त्व ने दाहिने हाथ से तलवार और बाएं हाथ से अपने सुंदर केश पकड़ कर काट डाला | केश दो अंगुली मात्र के हो, दाहिनी ओर से घूमते हुए सिर में चिपक गये |

इसके बाद बोधिसत्त्व ने अपने राजसी वस्त्रो व सभी आभूषणों को उतारकर छन्दक को दे दिए |62 बोधिसत्त्व ने दिए की भांति चमकने वाली एक मणि अपने मुकुट से निकाल कर छन्दक को दी और कहा, “हे छन्दक, महाराज को यह मणि देकर मेरी तरफ से बारंबार नमन करना उनके शोक-निवारण हेतु मेरा यह संदेश कहना – हे तात ! मैं स्वर्ग की तृष्णा से अथवा स्नेह के अभाव से अथवा क्रोध से तपोवन नही आया हूँ बल्कि मैने जरा व मरण के नाश का मार्ग खोजने हेतु तपोवन में प्रवेश किया है | शोक-त्याग के लिए निकलने वाले प्राणी हेतु किसी को शोक नही करना चाहिए | मैं अपने पूर्वपुरुषों (पूर्वजों) के मार्ग पर चल रहा हूँ, इसलिए आपकों मेरे लिए शोक नही करना चाहिए | उलट-पुलट (मृत्यु) होने पर पुरुष के धन के दायाद होते हैं, किंतु पृथिवी पर धर्म के दायाद दुर्लभ हैं अथवा हैं ही नहीं | अगर वे कहे कि कुमार असमय (युवावस्था) में वन गया है, तो (कहूँगा कि) जीवन चंचल होने के कारण धर्म के लिए असमय नही है | इसलिए कल्याण का चयन (अर्जन) मैं आज ही करूँगा, यही निश्चय है, क्योंकि मृत्युरूप शत्रु के रहने पर जीवन में क्‍या विश्वास ? इस प्रकार, हे सौम्य, तुम्हें राजा से निवेदन करना चाहिए और वैसा ही प्रयत्न करो जिससे वह मुझे स्मरण भी न करें |”63

बोधिसत्त्व ने पुनः छन्दक से कहा, “हे सौम्य, इसी प्रकार की और भी बातें करके तुम महाराज को समझाना | तुम मेरी उनसे मेरी बुराई भी करना, क्‍योंकि दोष-दर्शन के कारण स्‍नेह छूट जाता है और स्‍नेह का अंत होने पर शोक भी समाप्‍त हो जाता है |”

छन्दक तरह-तरह की बातें बना राजकुमार को वापस चलने आग्रह करता रहा लेकिन बोधिसत्त्व ने हर बार तर्क देकर मना कर दिया | तभी उन्हें काषाय वस्त्र धारण किये हुए एक शिकारी दिखा |

बोधिसत्त्व ने उससे कहा –

शिवं च काषायमृषिध्वजस्ते न युज्यते हिंस्रमिदं धनुश्च | तत्सौम्य यद्यस्ति न सक्तिरत्र मह्मं प्रयच्छेदमिदं गृहाण ॥64

[इस हिंसक धनुष के साथ तुम्हारा यह मगलमय काषाय वस्त्र, जो ऋषियों का चिह् है, मेल नहीं खाता | इसलिए, हे सौम्य, यदि इसमें आसक्ति नहीं है, तो मुझे यह (अपना वस्त्र) दो, और यह (मेरा वस्त्र) लो |]

शिकारी ने जवाब दिया – “हे कुमार, समीप से इस काषाय वस्त्र द्वारा विश्वास पैदाकर मैं मृगों का शिकार करता हूँ | किन्तु, हे इन्द्र-तुल्य, यदि इससे प्रयोजन हो, तो ले लो और अपना वस्त्र दे दो |”

दोनों ने परस्पर वस्त्र बदल लिए | शिकारी के जाने के बाद छंदक ने काषाय वेशधारी राजकुमार को विधिवत् प्रणाम किया और बोधिसत्त्व ने फूट-फूट कर रोते हुए छंदक और उदास कंथक को प्रेमपूर्वक विदा किया |

गृह-त्याग के समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष थी | बौद्ध ग्रन्थों में सिद्धार्थ के गृह-त्याग की घटना को महाभिनिष्क्रमण की संज्ञा दी गयी है |

ये भी देखें : भगवान बुद्ध का जीवन परिचय भाग 2 | भगवान बुद्ध का जीवन परिचय भाग 3 |

संदर्भ व टिप्पणी

7. बुद्धचरित, 2.17 |

8. ललितविस्तर, निदानपरिवर्त, 1 |

9. डॉ. चन्द्रधर्म शर्मा अलग मत व्यक्त करते है, उनके अनुसार, “भगवान् बुद्ध के आविर्भाव व निर्वाण का काल-निर्धारण निश्चित रूप से नहीं हो सका है | बौद्ध परम्परा एकमत से 544 ई.पू. को बुद्ध-निर्वाण का वर्ष मानती है, किन्तु कुछ विद्वानों के अनुसार उनका निर्वाण 486 ई.पू. के आसपास होना चाहिये | उनकी आयु लगभग 80 वर्ष रही | अतः उनके जन्म का वर्ष बौद्धपरम्परानुसार लगभग 624 ई.पू. तथा अन्य विद्वानों के अनुसार 566 ई.पू. के आसपास होना चाहिये | – भारतीय दर्शन, पृष्ठ 45 |

10. कपिलवस्तु की पहचान उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में पिपरहवा से की जाती है | पिपरहवा से ‘कपिलवस्तु महाविहारे’ अंकित सील प्राप्त हुई है, जिससे पता चलता है कि कि पिपरहवा ही कपिलवस्तु रहा होगा |

11. आधुनिक रुमिंदेई या रुमिंदेह नामक स्थान |

12. बुद्धचरित, 1.1 |

13. The Buddha and His Dhamma by Dr. B.R. Ambedkar, (Siddharth College Publication-1957), Page 2.

14. राहुल सांकृत्यायन, बौद्ध दर्शन (किताब-महल, इलाहाबाद,1944) पृष्ठ 1 |

15. अश्वघोष लिखते है – [बुद्धचरित, 1.4]

“प्राग्गर्भधानान्मनुजेन्द्रपत्नी सितं ददर्श द्विपराजमेकं | स्वप्ने विशन्तं वपुरात्मन: सा [न तन्निमित्तं समवाप तापं] ||

[गर्भधारण करने से पूर्व उसने (रानी महामाया ने) स्वप्न में एक श्वेत गज-राज को अपने शरीर में प्रवेश देखा, किन्तु इससे उसे कुछ कष्ट नहीं हुआ |

16. ललितविस्तर, गर्भावक्रान्तिपरिवर्त, 156 |

17. अश्वघोष लिखते है – [बुद्धचरित, 1.5]

[सा तस्य देवप्रतिमस्य देवी गर्भेण वंशश्रियमुद्वहन्ती] | श्रमं न लभे न शुचं न मायां गन्तुं वनं सा निभृतं चकाड्क्ष ||

[उस देव-तुल्य राजा की रानी माया ने अपने गर्भ में अपने वंश की श्री को धारण किया | श्रम, शोक और माया से मुक्त होकर और विशुद्ध होकर, उसने पावन वन (जाने) की इच्छा की |]

18. The Buddha and His Dhamma by Dr. B.R. Ambedkar, (Siddharth College Publication-1957), Page 2&3.

19. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 110,

20. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 115,

21. *

22. The Buddha and His Dhamma by Dr. B.R. Ambedkar, (Siddharth College Publication-1957), Page 8.

23. बुद्धचरित, 2.18 |

24. The Buddha and His Dhamma by Dr. B.R. Ambedkar, (Siddharth College Publication-1957), Page 2.

25. दीघनिकाय, 2:1, महापदान-सुत्त |

26. बुद्धचरित, 2.25 |

27. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 120 |

28. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 119, “राम, ध्वज, लक्ष्मण, मन्त्री, कौण्डिन्य, भोज, सुयाम तथा सुदत्त नामक आठ ब्राह्मण उस समय छह अंगों (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, छन्द) को जानने वाले थे, जिन्होंने मन्त्र की व्याख्या की |”

29. बुद्धचर्या, पृष्ठ 5 |

30. बुद्धचरित, 2.1 |

31. बुद्धचरित, 2.24 |

32. राजकुमारी यशोधरा कोलीय वंश के राजा सुप्पबुद्ध और उनकी पत्नी पमिता की पुत्री थीं | यशोधरा की माता पमिता राजा शुद्धोदन की बहन थीं |

33. दीघनिकाय, 2:1, महापदान-सुत्त |

34. बुद्धचरित, 2.47 |

35. बुद्धचरित, 2.48 |

36. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 132,

37. बुद्धचरित, 3.1 |

38. ललितविस्तर (स्वप्नपरिवर्त) |

39. बुद्धचरित, 3.7 |

40. ललितविस्तर, स्वप्नपरिवर्त |

41. बुद्धचरित, 3.28 |

42. बुद्धचरित, 3.30 |

43. बुद्धचरित, 3.31 |

44. बुद्धचरित, 3.37|

45. दीघनिकाय, 2:1, महापदान-सुत्त |

46. ललितविस्तर, स्वप्नपरिवर्त, 551 |

47. बुद्धचरित, 3.46 |

48. बुद्धचरित, 3.49 |

49. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 127 |

50. बुद्धचरित, 3.55 |

51. ललितविस्तर, स्वप्नपरिवर्त, 555 |

52. बुद्धचरित, 5.2 |

53. दीघनिकाय, 2:1, महापदान-सुत्त |

54. ललितविस्तर, स्वप्नपरिवर्त, 559 |

55. बुद्धचरित, 5.35 |

56. ललितविस्तर, अभिनिष्क्रमणपरिवर्त, 599 | 

57. ललितविस्तर, अभिनिष्क्रमणपरिवर्त, 600 |

58. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 135,

59. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 136,

60. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 137,

61. बुद्धचरित, 5.87 |

62. डा. अलेक्ज़ेंडर बर्ज़िन – स्टडी बुद्धिज़्म |

63. बुद्धचरित, 6.13 से 6.23 |

64. बुद्धचरित, 6.61 |