बुद्ध की कहानी 6 : अंगुलिमाल का जीवन परिवर्तन

बुद्ध की कहानी 6 : अंगुलिमाल का जीवन परिवर्तन | कोशल की राजधानी श्रावस्ती में ही रहते हुए भगवान् बुद्ध ने कुख्यात डाकू अंगुलिमाल, जो लोगों की अंगुलियाँ काटकर उनकी माला पहनता था, का मन परिवर्तित करके अपना शिष्य बनाया था | अंगुलिमाल डाकू कोशल नरेश प्रसेनजित् के राज्य में रहता था, जिसके हाथ सदैव खून से सने रहते थें | इस निर्दयी डाकू के ह्रदय में किसी प्राणी के लिए कोई दया न थी | जिस व्यक्ति की भी हत्या वो करता था, उसकी एक अँगुली काट कर अपनी माला में पिरो लेता था, अतः वह अंगुलिमाल के नाम से प्रसिद्ध हो गया था | इसके खौफ से जो पहले गाँव थें, वे अब गाँव नही रहें, जो पहले नगर थे, वे अब नगर नही रहे थें |

एक बार बोधिसत्त्व श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवनाराम में विश्राम कर रहे थे, वही भगवान् ने अंगुलिमाल के अत्याचारों की कहानी सुनी और उसे उसका हृदय करके एक संत पुरुष में बदल देने का निश्चय किया | अतः एक दिन पात्र-चीवर धारण कर, जिधर अंगुलिमाल के होने की बात सुनी जाती थी, उधर अकेले चल दिए |

गोपालकों, पशुपालकों, कृषकों, राहगीरों ने भगवान कों, जिधर डाकू अंगुलिमाल था, उसी रास्ते पर जाते हुए देखा और भगवान से कहा – “हे श्रमण ! इस रास्ते मत जाओ | इस मार्ग में श्रमण अंगुलिमाल नामक डाकू रहता है | उसने ग्रामों को भी अ-ग्राम …..| वह मनुष्यों कों मार मारकर अँगुलियों की माला पहनता हैं | इस मार्ग पर श्रमण ! | बीस पुरुष, तीस पुरुष, चालीस, पचास पुरुष तक इकट्ठा होकर जाते हैं, वह भी अंगुलिमाल के हाथ में पड़ जाते है |” 

लेकिन बोधिसत्त्व मौन धारण कर चलते रहे | दूसरी, तीसरी बार भी वहां मौजूद लोगों ने भगवान को सावधान किया लेकिन भगवान् अपने पथ पर आगे बढ़ते रहें |

जब भगवान् अंगुलिमाल के क्षेत्र में प्रवेश कर गये तो अंगुलिमाल ने दूर से ही तथागत को आते देखा | देखकर उसने सोचा, “आश्चर्य है, अद्भुत है | इस रास्ते दस, बीस, पचास पुरुष मेरे डर से इकट्ठा होकर एक साथ चलते है, फिर भी मेरे द्वारा मारे जाते है परन्तु श्रमण अकेला ही चला आ रहा है | अद्वितीय बात है मानो मेरा तिरस्कार करता आ रहा है | क्यों न इस श्रमण को इसकी सजा दू और इसे जान से मार दूँ  |” तब डाकू अंगुलिमाल अपनी ढाल-तलवार लेकर तीर-धनुष चढ़ा, बोधिसत्त्व पीछा किया |

तब भगवान् ने इस प्रकार का योग-बल प्रकट किया, कि वे अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़े चले जा रहे थे और लेकिन अंगुलिमाल पूरे वेग से दौडकर भी उन्हें नही पकड़ पा रहा था |

तब अंगुलिमाल ने सोचा “आश्चर्य है, अद्भुत है, मैं पहले दौड़ते हुये हाथी कों भी पीछा करके पकड़ लेता था, घोड़े, रथ, मृग आदि को भी पीछा करके पकड़ लेता था | लेकिन आज मैं पूरा जोर लगाकर भी स्वाभाविक गति से जाते हुए इस श्रमण को नही पकड़ पा रहा हूँ |”

उसने रुक कर चिल्लाकर बोधिसत्त्व से कहा, रुक जा श्रमण !

भगवान् ने कहा, “मैं तो स्थित (रुका) हूँ अंगुलिमाल, तू भी स्थित (रुक) हो |”

तब अंगुलिमाल ने सोचा “यह शाक्य-पुत्रीय श्रमण सत्यवादी सत्य-प्रतिज्ञ होते है, किन्तु यह श्रमण जाते हुये भी ऐसा कहता है, ‘मैं स्थित हूँ’ | क्यों न मैं इस श्रमण से पूछे |”

तब अंगुलिमाल ने गाथाओं में तथागत से कहा –

“श्रमण ! जाते हुये ‘स्थित हूँ |’ कहता है, मुझ खड़े हुये को अस्थित कहता है |

श्रमण ! तुझे यह बात पूछता हूँ “कैसे तू स्थित और मैं अ-स्थित हूँ ?”

भगवान् ने उत्तर दिया, “अंगुलिमाल ! सारे प्राणियों के प्रति दंड छोड़ने से मैं सर्वदा स्थित हूँ |

तू प्राणियों में अ-संयमी है, इसलिये मैं स्थित हूँ, और तू अ-स्थित है |”

अंगुलिमाल ने फिर कहा, “मुझे महर्षि का पूजन किये देर हुईं, यह श्रमण महावन में मिल गया |

सो मैं धर्मयुक्त गाथा को सुनकर चिरकाल के पाप को छोड़ूँगा” 

अंगुलिमाल पर बोधिसत्त्व के वचनामृत का अत्यंत प्रभाव पड़ा और उसने अपने गले में से अंगुलियों की माला उतार कर अपने हथियारों के साथ दूर फेंक दिए | उसने भगवान् के पैरों की वन्दना की और वही उनसे ‘धम्म-दीक्षा’ की याचना की |

करुणामय भगवान् बुद्ध बोले “आ भिक्षु” | यही अंगुलिमाल का संन्यास हुआ | बोधिसत्त्व भिक्षु अंगुलिमाल को अपना अनुगामी-श्रमण बनाकर श्रावस्ती के जेतवनाराम को वापस लौट गये |