भगवान बुद्ध का जीवन भगवान् भाग 1 और 2 यहाँ देखें – भगवान बुद्ध का जीवन परिचय भाग 1 | भगवान बुद्ध का जीवन परिचय भाग 2 |
धर्म का प्रचार-प्रसार
सम्बोधि (बोधि-प्राप्ति) के समय भगवान् बुद्ध की आयु पैंतीस वर्ष थी और अस्सी वर्ष की उम्र में उनका महापरिनिर्वाण हुआ | इन पैंतालीस वर्षों में भगवान् बुद्ध ने अपना बहुमूल्य जीवन को दो लक्ष्यों के प्रति समर्पित कर दिया था | प्रथम जनसाधारण को अपने उपदेशों के माध्यम से दुःखों से मुक्ति दिलाने हेतु रास्ता दिखाना और द्वितीय भिक्षु कहे जाने वाले मठवासियों का संघ बनाना |
शाक्यमुनि बुद्ध के प्रथम उपदेश को सुनकर वें पाँचों ब्राह्मण इतने प्रभावित हुए कि अपनी तपश्चर्या का परित्याग करके उनके शिष्य बन गये, जो पंचवर्गीय78 कहलाते हैं | यही पर तथागत ने बौद्ध संघ की भी स्थापना की और ये पांच ब्राह्मण बौद्धसंघ रूपी संस्था के सबसे पहले सदस्य बने | भगवान् बुद्ध प्रथम धर्मप्रवर्तक थें, जिन्होंने धर्म प्रचार के लिए संघ का संघटन किया | आगे चलकर जब संघ के नियम बने, तब संघ की सदस्यता हेतु एक विधि रखी गई, जिसे ‘उपसंपदा’ कहते हैं |
वाराणसी का एक यश नामक धनाढ्य श्रेष्ठी भी संसार से विरक्त होकर ऋषिपत्तन मृगदाव आया | बोधिसत्त्व के उपदेश सुनकर यश को ऐसी परम शांति का अनुभव हुआ जैसे धूप में तपते शरीर को नदी की जलधार में मिलती है | वह भी तथागत की शिष्यता स्वीकार कर संघ में शामिल हो गया | यह संवाद पाकर उसके 54 मित्र भी भिक्षु हो गये | बुद्ध ने इन 60 भिक्षुओं को चारों ओर बौद्ध धर्म के उपदेशों का प्रचार करने भेज दिया |
गौतम बुद्ध ने इस 60 सदस्यीय संघ को आदेश था “भिक्षुओं ! अब तुम लोग जाओ, घूमों, मानवों के हित के लिये, मानवों के कल्याण के लिए, देवों व मानवों के कल्याण के लिए घूमों | तुम लोगों में से कोई दो एक-साथ न जाये | तुम लोग उस धर्म का प्रचार करो जो आदि-मंगल, मध्य-मंगल एवं अन्त-मंगल है |” शीघ्र ही समस्त गंगा के मैदान में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया |
भगवान् बुद्ध के धर्म में दीक्षित होने वाले सबसे अधिक प्रख्यात राजगृह के दो तपस्वी सारिपुत्त और मौद्गलायन थे | इन दोनों ने प्रारंभिक पांच शिष्यो में से अस्साजी नामक अन्यतम शिष्य से दीक्षा ग्रहण की थी | बोधिसत्त्व ने स्वयं इनको अपने संघ में प्रवेश करवाया था | आनन्द और उपालि अन्य विख्यात शिष्य थें, आनन्द बोधिसत्त्व के चचेरा भाई और सबसे प्रिय शिष्य थें, वे सदैव भगवान् के साथ रहते थे और उनकी सेवा का सुख प्राप्त करते थें | बोधिसत्त्व के महापरिनिर्वाण समय भी आनन्द सबसे अधिक उनके समीप थें | उपालि ने प्रथम बौद्ध परिषद् के समक्ष विनयपिटक का पाठ किया था |
बोधिसत्त्व की सभी जगह प्रसिद्धि सुनकर काश्यप वंश के एक धनी ब्राह्मण ने अपनी सुंदर पत्नी और सम्पत्ति का परित्याग किया और काषाय वस्त्र धारण कर निर्वाण की इच्छा से एक दिन बोधिसत्त्व के पास आ गया | उसने भगवान् को नमन किया और कहा कि “मैं आपका शिष्य हूँ, आप मेरे गुरु हैं, हे धीर, अन्धकार में मेरा प्रकाश बनिये |” नवागत शिष्य की ऐसी वाणी सुनकर बोधिसत्त्व ने उससे कहा “स्वागत है |” उसे अपने समीप बैठाकर उपदेश दिया | उस प्रखर बुद्धि वाले ब्राह्मण शिष्य ने बोधिसत्त्व द्वारा की गयी धर्म की व्याख्या को भली-भांति हृदयंगम किया | बाद में यही शिष्य अपनी बुद्धि और विख्याति के कारण ‘अर्हत् महाकाश्यप’ कहलाये |
जहाँ एक तरफ शाक्यमुनि ने संघ के सदस्यों को देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने का आदेश दिया | वही दूसरी तरफ स्वयं भगवान् ने भी मानव-कल्याण हेतु आजीवन अपने धर्म का प्रचार-प्रसार किया | उन्होंने लम्बी-लम्बी यात्रा करके धर्म-संदेश को दूर-दूर तक पहुंचाया | वें शरीर से स्वस्थ व खूब तगड़े थें इसलिए वे एक दिन में 20 से 30 किलोमीटर तक पैदल चला करते थें | वे निरंतर 40 वर्षों तक मानव-कल्याण के लिए धर्म का उपदेश देते रहें, चिन्तन-मनन करते रहें | वे कभी एक स्थान पर ज्यादा समय तक नही रुकते थें, केवल वर्षा-ऋतु में ही वे एक स्थान पर टिकते थें |
बोधिसत्त्व के धर्म प्रचार को विरोधी धर्मानुयायियों ने रोकने का भी प्रयास किया | अनेक ब्राह्मणों सहित कई प्रतिद्वंद्वी कट्टरपंथियों से उनका मुकाबला हुआ, परन्तु वे शास्त्रार्थ में सभी को पराजित करते गये | यह महत्वपूर्ण बात है कि बुद्ध के उपदेशों में अनेक तत्व ब्राह्मण धर्म के विरोधी थें लेकिन बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार इनके आरम्भिक अनुयायियों में ब्राह्मणों की संख्या अत्यधिक थी | अनेक राजाओं और राजपरिवारों के सदस्यों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार किया | बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार मगध के राजा बिम्बिसार, अजातशत्रु, कोशल के राजा प्रसेनजित आदि ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था |
गौतम बुद्ध ने कपिलवस्तु में अपने पिता शुद्धोदन, मौसी प्रजापति गौतमी, पत्नी यशोधरा, पुत्र राहुल79 और राजसभा के अन्य सदस्यों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी | जिनमें उनका ईष्यालु-ह्रदय शाक्यवंशीय चचेरा भाई देवदत्त भी शामिल था | देवदत्त इसलिए प्रसिद्ध है क्योकि इसने स्वयं को भगवान् बुद्ध का प्रतिदंद्वी घोषित कर दिया था | एक बार जब तथागत एक सभा को संबोधित कर रहे थे, तब देवदत्त ने उनके पास आकर कहा कि “स्वामी ! अब आप वृद्ध हो गए हैं, अतः आपको चिंतामुक्त होकर जीवन व्यतीत करना चाहिए | इसलिए यह अच्छा होगा कि आप भिक्षुओं के इस संघ का भार मुझे सौंप दें |”
भगवान् बुद्ध देवदत्त की मंशा और दुष्ट-स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थें इसलिए उन्होंने इंकार करते हुए देवदत्त से कहा कि वह इसके योग्य नहीं है | इसके पश्चात् देवदत्त ने संघ को दो भागों में तोड़ने का प्रयत्न किया, परन्तु सारिपुत्र ने देवदत्त को ही संघ से निष्कासित दिया | दुष्ट देवदत्त ने भगवान् बुद्ध की हत्या करने का भी प्रयास किया | ऐसा वर्णन मिलता है कि मगध नरेश बिम्बसार के पुत्र अजातशत्रु ने भी देवदत्त का समर्थन किया था | जो भी हो, देवदत्त अपने समस्त प्रयत्नों में विफल रहा, न तो वह संघ में मतभेद उत्पन्न कर पाया और न ही वह बोधिसत्त्व की हत्या कर सका |
लेकिन देवदत्त ने अपनी दुष्टता को नही छोड़ा और जब बोधिसत्त्व राजगृह मार्ग से अपने शिष्यों के साथ जा रहे थें, तो उसने भगवान् के मार्ग में एक मदमत्त हाथी छुड़वा दिया | आँधी की भांति दौड़ते हाथी को देखकर सब तरफ हाहाकार मच गया | बोधिसत्त्व को कुचलने के लिए वह मदमत्त हाथी उनकी ओर ही दौड़ा चला आ रहा था, जिसे देखकर उनके अनेक शिष्य भाग गये | लेकिन भगवान् शांत व निर्विकार भाव से आगे बढ़ते जा रहे थें और पीछे-पीछे केवल उनके परम प्रिय शिष्य आनन्द भी बढ़े जा रहे थें | लेकिन जैसे कि वह मदोन्मत्त हाथी बोधिसत्त्व के सामने आया और उनके प्रभाव के कारण एकदम शांत व स्वस्थ हो गया | वह बोधिसत्त्व के सामने सिर झुकाकर बैठा गया | जैसे सूर्य अपनी किरणों से, बादल को छूता है, वैसे ही भगवान् ने अपने सुन्दर हाथ, जो कमल के समान कोमल था, से गजराज के माथे पर थपकी लगाई और कहा, “हे गजराज ! निरपराध प्राणियों की क्यों हत्या कर रहे हो ? उससे तो दुःख ही होगा, किसी को कष्ट न दो |” भगवान् की वाणी सुन गजराज ने तुरन्त मद का त्याग किया और शिष्य के समान भगवान् को प्रणाम किया |
कहा जाता है कि देवदत्त को बाद में अपने दुष्ट-कर्मों पश्चाताप हुआ, जिसके उपरांत उसे पुनः संघ में शामिल कर लिया गया |
वृद्ध पिता शुद्धोदन अपने प्रिय पुत्र के गृह-त्याग से अत्यधिक दुःखी थें और उन्होंने गौतम बुद्ध को यह नियम बनाने को कहा कि कोई बालक अपने माता-पिता की सम्मति के बिना भिक्षुक न बनाया जाय |80 तथागत ने इसे स्वीकार किया और इसी के अनुसार नियम बनाया |81 उन्होंने यह भी नियम बनाया कि बिना संघ की अनुमति के कोई व्यक्ति भिक्षु नही बनेगा82, जिससे कोई पुत्र संघ से छुपकर अपने माता-पिता को छोड़कर भिक्षु न बन जाये |
एक बार बोधिसत्त्व वैशाली की नगर-वधु आम्रपाली में उद्यान में रुके हुए थें | जब आम्रपाली गणिका ने सुना कि भगवान वैशाली आये है एवं उसके आम्रवन में रुके हुए है तो बहुत खुश हुई और तथागत के दर्शन के लिए वह अलक्तक, अंजन, अंगराग व आभूषण से रहित होकर अत्यंत विनम्र भाव से देव-पूजन-समय की एक कुलीन स्त्री की भांति स्वच्छ श्वेत वस्त्र पहन कर तैयार हुई |
आम्रपाली रूपवती वन-देवी के समान अपने आम्रवन में पहुंची और बोधिसत्त्व के सम्मान में रथ से उतरकर पैदल ही उधर चल दी जिधर भगवान् अपनी शिष्य मंडली के साथ विश्राम कर रहे थें |
सौंदर्य व यौवन से संपन्न आम्रपाली गणिका को जब इंद्रियों को अपने बस में कर चुके तथागत ने अपनी ओर आते देखा तो अपने शिष्यों को सावधान करते हुए कहा कि “देखो आम्रपाली समीप आ रही है, जो दुर्बलों का मानसिक ताप है, बोध की औषधि से अपने आपको संयमित रखते हुए तुम लोग ज्ञान में स्थिर हो जाओ | तुम प्रज्ञारूपी तीर लेकर, हाथों में शक्तिरुपी धनुष धारण कर तथा स्मृतिरुपी कवच पहनकर अपनी रक्षा करों |”
जब बोधिसत्त्व अपने शिष्यों को इस प्रकार उपदेश दे रहे थें तभी आम्रपाली हाथ जोड़े उनके समीप आ गयी | अपने आम्रवन में शांतचित्त भगवान् को एक वृक्ष के नीचे नेत्र बंद किये बैठे देखकर अपने को अनुगृहीत माना | उसने अपनी चंचल आँखों को झुका कर, श्रद्धा व शांत भाव से सिर झुकाकर भगवान् को प्रणाम किया | जब बोधिसत्त्व के आदेशानुसार उनके सामने बैठ गयी, तब भगवान् ने उसके समझने योग्य शब्दों में उपदेश दिया |
भगवान् के उपदेश सुन आम्रपाली गणिका के मन की समस्त वासनाओं का अंत हो गया और उसे अपनी वृत्ति से घृणा होने लगी | वह बोधिसत्त्व के चरणों में गिर गयी और घर्म की भावना से परिपूर्ण हो उनसे आग्रह किया कि “भगवान् भिक्षु संघ के साथ मेरा कल का भोजन स्वीकार करें |” भगवान् ने उसका आग्रह मौन से स्वीकार किया | तब आम्रपाली भगवान् की स्वीकृति जान, उनके चरणों से उठ उनकों अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चली गई |
इसी समय लिच्छवि सामतों को जब मालूम हुआ कि तथागत आम्रपाली के आम्रवन में विश्राम कर रहे है तो वें सब भगवान् के दर्शन हेतु अपने-अपने सुसज्जित हाथी-घोड़ों व रथों पर सवार हो चल पड़े | रास्ते में उनका सामना बोधिसत्त्व से मिलकर लौट रही आम्रपाली से हो गया | आम्रपाली के मुखमण्डल पर अतिप्रसन्नता देखकर उससे पूछा कि इतने अभिमान के साथ कहाँ से आ रही हो |
तब आम्रपाली ने उत्तर दिया कि “आर्यपुत्रों ! क्योकि मैंने भिक्षु संघ के साथ कल के भोजन के लिये भगवान् को निमंत्रित किया है |”
लिच्छवियों ने उससे आग्रह किया, “हे आम्रपाली ! सौ हजार (कार्षापण) ले लो और कल तथागत को भोजन हमें कराने दो |
आम्रपाली ने आग्रह ठुकराते हुए कहा, “आर्यपुत्रों ! यदि वैशाली जनपद भी दे दो, तो भी इस महान निमंत्रण को तुम्हे नही दूंगी |”
यह सुन लिच्छवि बहुत निराश हुए आपस में कहा “अरे ! हमे आम्रपाली ने जीत लिया, अरे हमे आम्रपाली ने वंचित कर दिया |”
लिच्छवि सामंत जब आम्रवन पहुंचे तब अपने वाहनों से उतर कर पैदल भगवान् के निकट जाकर श्रद्धापूर्वक नमन कर धरती पर बैठ गये | बोधिसत्त्व का उपदेश सुनने के बाद सभी लिच्छवि सामंतो ने उनसे निवेदन किया कि कल का भोजन भगवान् उनके पास करें | बोधिसत्त्व ने उन्हें बताया कि कल के भोजन के लिए वें पहले ही आम्रपाली का निमंत्रण स्वीकार कर उसे वचन दे चुके है | ऐसा सुन लिच्छवि सामंतों को बुरा लगा लेकिन तथागत के उपदेशों के कारण वे शांत हो गये और अपने आसन से उठ बोधिसत्त्व को अभिवादन व प्रदक्षिणा कर चले गये |
अगले दिन बोधिसत्त्व ने आम्रपाली के घर भिक्षु संघ के साथ भोजन किया और आम्रपाली भी बोधिसत्त्व की शिष्या बनी | उसने भिक्षु-संघ के निवास के लिए अपनी आम्रवाटिका भेंट कर दी |
आम्रपाली से भिक्षा लेकर तथागत चतुर्मास वास हेतु वेणुमती नगर चले गये, जहाँ वर्षाकाल के चार मास व्यतीत किये | तत्पश्चात भगवान् पुनः वैशाली आ गये एवं मर्कट नामक सरोवर के तट पर निवास करने लगे |
यही मर्कट सरोवर के तट पर एक वृक्ष के नीचे बैठ कर बोधिसत्त्व ने गंभीर समाधि लगाई और जब गंभीर समाधि से निकले तो कहा, “मेरा शरीर, जिसकी आयु मुक्त हो गई है, उस रथ के समान है, जिसका धुरा (अक्षाग्र, अक्षधुरा) टूट गया हो और मैं इसे अपनी शक्ति से ढो रहा हूँ | अपनी आयु के साथ मैं भव-बन्धन से मुक्त हूँ, जैसे अण्डे से निकलते समय अण्डे को फोड़ने वाला पक्षी (बन्धन से मुक्त होता है) |”83
इसके बाद आनंद के पूछने पर बोधिसत्त्व ने बताया कि मेरा पृथ्वी-लोक में निवास का समय अब पूर्ण हो चुका है | अब मैं मात्र तीन मास और इस पृथ्वी पर रहूँगा, फिर चिरंतन निर्वाण प्राप्त कर लूँगा |84
बोधिसत्त्व की इन बातों को सुनकर आनंद अत्यंत विचलित हो गये और उसके आँखों से आँसू बहने लगे, जैसे किसी हाथी द्वारा तोड़े गये चन्दन-वृक्ष से रस बह रहा हो | बोधिसत्त्व ही उनके स्वजन, गुरु और सर्वस्व थे, इस कारण उन्हें अत्यंत शोक हुआ और दुःखी होकर दीनता पूर्वक विलाप करने लगे | “अपने गुरु का निश्चय सुनकर, मेरा शरीर मानो डूब रहा है, मेरी ग्रन्थियाँ ढीली हो रही हैं और धर्मोपदेश, जो कि मैंने सुना है, आकुल हो रहा है |”85
शोक संतप्त व व्याकुल आनंद को सांत्वना देते हुए भगवान् ने कहा, “हे आनंद ! जगत् के वास्तविक स्वभाव को समझों और शोक न करो | जो भी व्यक्ति जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है | पृथ्वी-लोक में कुछ भी स्वाधीन नही है, कोई भी प्राणी अमर नही है | अगर प्राणी अमर होते तो जीवन परिवर्तनशील नही होता, फिर मुक्ति का क्या महत्व होता ?”
भगवान् ने समझाया, “हे आनंद ! मैंने सम्पूर्ण मार्ग तुम्हें दृढ़तापूर्वक बतला दिया है | तुम्हें और अन्य शिष्यों को समझना चाहिए कि बुद्ध कुछ छिपाते नहीं | मैं शरीर रखूं या छोड़ दू, मेरे लिए दोनों स्थितियां समान है | क्योकि मेरे जाने के पश्चात भी मेरे द्वारा जलाया गया यह धर्म का दीपक सदैव जलता रहेगा | तुम इसी दीपक के प्रकाश में निर्द्वंद्व होकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करो और अपने मन को दूसरी बातों का शिकार मत होने दो | मेरे जाने के बाद भी जो लोग इस धर्म के मार्ग में स्थिर रहेंगे, वे निश्चित ही निर्वाण-पद प्राप्त करेंगे |”
वैशाली में ही भगवान् ने पहली बार स्त्रियों को भी अपने संघ में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की थी और प्रथम भिक्षुणी-संघ स्थापित किया | संघ में प्रवेश पाने वाली पहली स्त्री उनकी विमाता महाप्रजापति गौतमी थी, जो राजा शुद्धोदन की मृत्यु के पश्चात् कपिलवस्तु से चलकर वहां पहुंची थीं | ऐसा वर्णन मिलता है कि बोधिसत्त्व पहले तो स्त्रियों को संघ में लेने के विरोधी थें, लेकिन महाप्रजापति गौतमी के अनुनयविनय करने और अपने प्रिय शिष्य आनंद के आग्रह पर उन्होंने इसकी अनुमति दे दी थी |86
वैश्यों और व्यापारी वर्ग ने भी बुद्ध के धर्म को स्वीकार कर उदार रूप से दान देकर धर्म के प्रचार-प्रसार में विशेष भूमिका अदा की थी | बौद्ध धर्म में नवीन उत्पादन-व्यवस्था का प्रत्यक्ष व परोक्ष समर्थन किया गया था, जो वैश्यों और व्यापारी वर्ग की प्रगति में भी मददगार था | उनके धर्मप्रचार की लोकप्रियता का एक कारण यह भी था कि वे ऊँची-नीच, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष आदि के बीच कभी कोई भेदभाव नही करते थें |
बौद्ध धर्म का सर्वाधिक प्रचार कोशल राज्य में हुआ, जहाँ बुद्ध इक्कीस वास किये थें | यहाँ के एक अत्यधिक धनी व्यापारी अनाथपिण्डक उनका शिष्य बना और संघ के लिए जेतवन विहार को अट्ठारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं में राजकुमार जेत से खरीद कर प्रदान किया था |87
कोशल की राजधानी श्रावस्ती में ही रहते हुए भगवान् बुद्ध ने कुख्यात डाकू अंगुलिमाल, जो लोगों की अंगुलियाँ काटकर उनकी माला पहनता था, का मन परिवर्तित करके अपना शिष्य बनाया था | अंगुलिमाल डाकू कोशल नरेश प्रसेनजित् के राज्य में रहता था, जिसके हाथ सदैव खून से सने रहते थें | इस निर्दयी डाकू के ह्रदय में किसी प्राणी के लिए कोई दया न थी | जिस व्यक्ति की भी हत्या वो करता था, उसकी एक अँगुली काट कर अपनी माला में पिरो लेता था, अतः वह अंगुलिमाल के नाम से प्रसिद्ध हो गया था | इसके खौफ से जो पहले गाँव थें, वे अब गाँव नही रहें, जो पहले नगर थे, वे अब नगर नही रहे थें |
एक बार बोधिसत्त्व श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवनाराम में विश्राम कर रहे थे, वही भगवान् ने अंगुलिमाल के अत्याचारों की कहानी सुनी और उसे उसका हृदय करके एक संत पुरुष में बदल देने का निश्चय किया | अतः एक दिन पात्र-चीवर धारण कर, जिधर अंगुलिमाल के होने की बात सुनी जाती थी, उधर अकेले चल दिए | गोपालकों, पशुपालकों, कृषकों, राहगीरों ने भगवान कों, जिधर डाकू अंगुलिमाल था, उसी रास्ते पर जाते हुए देखा और भगवान से कहा – “हे श्रमण ! इस रास्ते मत जाओ | इस मार्ग में श्रमण अंगुलिमाल नामक डाकू रहता है | उसने ग्रामों को भी अ-ग्राम …..| वह मनुष्यों कों मार मारकर अँगुलियों की माला पहनता हैं | इस मार्ग पर श्रमण ! | बीस पुरुष, तीस पुरुष, चालीस, पचास पुरुष तक इकट्ठा होकर जाते हैं, वह भी अंगुलिमाल के हाथ में पड़ जाते है |”88
लेकिन बोधिसत्त्व मौन धारण कर चलते रहे | दूसरी, तीसरी बार भी वहां मौजूद लोगों ने भगवान को सावधान किया लेकिन भगवान् अपने पथ पर आगे बढ़ते रहें |
जब भगवान् अंगुलिमाल के क्षेत्र में प्रवेश कर गये तो अंगुलिमाल ने दूर से ही तथागत को आते देखा | देखकर उसने सोचा, आश्चर्य है, अद्भुत है | इस रास्ते दस, बीस, पचास पुरुष मेरे डर से इकट्ठा होकर एक साथ चलते है, फिर भी मेरे द्वारा मारे जाते है परन्तु श्रमण अकेला ही चला आ रहा है | अद्वितीय बात है मानो मेरा तिरस्कार करता आ रहा है | क्यों न इस श्रमण को इसकी सजा दू और इसे जान से मार दूँ | तब डाकू अंगुलिमाल अपनी ढाल-तलवार लेकर तीर-धनुष चढ़ा, बोधिसत्त्व पीछा किया |
तब भगवान् ने इस प्रकार का योग-बल प्रकट किया, कि वे अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़े चले जा रहे थे और लेकिन अंगुलिमाल पूरे वेग से दौडकर भी उन्हें नही पकड़ पा रहा था |
तब अंगुलिमाल ने सोचा “आश्चर्य है, अद्भुत है, मैं पहले दौड़ते हुये हाथी कों भी पीछा करके पकड़ लेता था, घोड़े, रथ, मृग आदि को भी पीछा करके पकड़ लेता था | लेकिन आज मैं पूरा जोर लगाकर भी स्वाभाविक गति से जाते हुए इस श्रमण को नही पकड़ पा रहा हूँ |” उसने रुक कर चिल्लाकर बोधिसत्त्व से कहा, रुक जा श्रमण !
भगवान् ने कहा, “मैं तो स्थित (रुका) हूँ अंगुलिमाल, तू भी स्थित (रुक) हो |”
तब अंगुलिमाल ने सोचा “यह शाक्य-पुत्रीय श्रमण सत्यवादी सत्य-प्रतिज्ञ होते है, किन्तु यह श्रमण जाते हुये भी ऐसा कहता है, ‘मैं स्थित हूँ’ | क्यों न मैं इस श्रमण से पूछे |”89
तब अंगुलिमाल ने गाथाओं में तथागत से कहा –
“श्रमण ! जाते हुये ‘स्थित हूँ |’ कहता है, मुझ खड़े हुये को अस्थित कहता है |
श्रमण ! तुझे यह बात पूछता हूँ “कैसे तू स्थित और मैं अ-स्थित हूँ ?”
भगवान् ने उत्तर दिया, “अंगुलिमाल ! सारे प्राणियों के प्रति दंड छोड़ने से मैं सर्वदा स्थित हूँ |
तू प्राणियों में अ-संयमी है, इसलिये मैं स्थित हूँ, और तू अ-स्थित है |”
अंगुलिमाल ने फिर कहा, “मुझे महर्षि का पूजन किये देर हुईं, यह श्रमण महावन में मिल गया |
सो मैं धर्मयुक्त गाथा को सुनकर चिरकाल के पाप को छोड़ूँगा”90
अंगुलिमाल पर बोधिसत्त्व के वचनामृत का अत्यंत प्रभाव पड़ा और उसने अपने गले में से अंगुलियों की माला उतार कर अपने हथियारों के साथ दूर फेंक दिए | उसने भगवान् के पैरों की वन्दना की और वही उनसे ‘धम्म-दीक्षा’ की याचना की |
करुणामय भगवान् बुद्ध बोले “आ भिक्षु” | यही अंगुलिमाल का संन्यास हुआ | बोधिसत्त्व भिक्षु अंगुलिमाल को अपना अनुगामी-श्रमण बनाकर श्रावस्ती के जेतवनाराम को वापस लौट गये |
महापरिनिर्वाण
शाक्यमुनि बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम समय में मल्लों की राजधानी पावा पहुंचे यहाँ उन्होंने चुन्द नामक लुहार के घर उन्होंने ‘सूकरमद्दव’ खाया |91
महापरिनिब्बाण-सुत्त92 में इस प्रकार वर्णन मिलता है –
तब भगवान् भिक्षु-सघ के साथ जहां पावा थी, वहाँ गये | वहाँ पावा मे भगवान् चुन्द कर्मार-पुत्र के आम्रवन में विहार करते थे | चुन्द कर्मार-पुत्र ने सुना, भगवान् पावा मे आए है, पावा में मेरे आम्रवन में विहार करते है | तब चुन्द कर्मार-पुत्र जहाँ भगवान् थे, वहाँ जाकर भगवान् कों अभिवादन कर एक ओर बैठा | एक ओर बैठे चुन्द कर्मार-पुत्र को भगवान् ने धार्मिक कथासे ० समुत्तेजित ० किया | तब चुन्द ० ने भगवान् की धार्मिक-कथासे ० समुत्तेजित ० हो भगवान् से यह कहा –
“भन्ते ! भिक्षु-सघके साथ भगवान् मेरा कल का भोजन स्वीकार करे |”
भगवान् ने मौन से स्वीकार किया |
तब चुन्द कर्मार-पुत्र ने उस रात के बीतने पर उत्तम खाद्य भोज्य (और) बहुत सा शूकरमार्दव (=सूकर-मद्दव) तैयार करवा, भगवान् को कालकी सूचना दी | तब भगवान् पूर्वाह् समय पहिनकर पात्र-चीवर ले भिक्षु-सघके साथ, जहाँ चुन्द कर्मार-पुत्र का घर था, वहाँ गये | जाकर बिछे आसन पर बैठे | (भोजनकर) एक ओर बैठे चुन्द कर्मार-पुत्र को भगवान् धार्मिक-कथा से ० समुत्तेजित ० कर आसनसे उठकर चल दिये |
कुछ विद्वान ‘सूकरमद्दव’ को ‘सुअर का मांस’ मानते है | एच. फैंके (H. Franke) ने ‘सूकरमद्दव’ का अर्थ ‘सुअर का मुलायम मांस’ बताया है | वही आर्थर् वेली (Arthur Waley) ने ‘सूकरमद्दव’ शब्द के चार अर्थ लगाये है – (1) सुअर का एक मुलायम भोजन अर्थात् सुअर द्वारा खाया जाने वाला भोजन, (2) सुअर का आनंद अर्थात् सुअर का एक मनपसंद भोजन, (3) सुअर के शरीर का एक मुलायम भाग और (4) सुअर से मथा हुआ अर्थात् सुअर द्वारा लताड़ा हुआ भोजन | कुछ अन्य विद्वानों ने भी कुछ इसी प्रकार के अपने मत दिए है |
लेकिन ‘सूकरमद्दव’ को ‘सुअर का मांस’ मानना तर्कसंगत नही लगता क्योकि भगवान् बुद्ध जीवनभर अहिंसा का उपदेश देते रहे अतः किसी भी स्थिति में वे किसी जीव का मांस नही खा सकते थे | सम्भवतः यह कोई वनस्पति थी जो सुअर के मांद के पास पाई जाती थी जैसे कुकुरमुत्ता आदि | सूकर-कन्द (शकरकन्द) भी इसी प्रकार का शब्द है, जोकि एक मीठी जड़ वाली सब्जी है | उल्लेखनीय है कि सुअर के मांस के लिए पालि में ‘सूकरमंस’93 शब्द का प्रयोग मिलता है | इस बात की सम्भवना ज्यादा लगती है कि ‘सूकरमद्दव’ का अर्थ ‘सुअर का आनंद’ है जो एक प्रकार का कवक (truffle) था, जिसे सुअर खाकर आनंद का अनुभव करते थें |
इस भोजन के बाद उन्हें रक्तातिसार हो गया और उस वेदना को सहन करते हुए वे कुशीनगर94 पहुंचे | वही 80 वर्ष की आयु में 483 ईसा पूर्व में उनका महापरिनिर्वाण (महापरि-निर्वाण) हुआ | इस स्थान की पहचान पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसिया नामक गाँव से की जाती है | महापरिनिर्वाण के पूर्व शाक्यमुनि बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “समस्त संघातिक वस्तुओं का विनाश होता है | अपनी मुक्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करो |” इतना कहकर वे दाहिनी करवट लेट गए और उन्होंने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया |
ऐसा वर्णन मिलता है कि “जब भगवान् का कुसिनारा (कसिया) के शालवन में परिनिर्वाण हुआ, तब उनके प्रिय शिष्य आनन्द उनके साथ थे | तथागत ने आनन्द से कहा कि मैं बहुत थका हुँ तथा लेटना चाहता हूँ, दो शाल-वृक्षों के मध्य मेरा बिछौना लगा दो | भगवान् लेट गये एवं एक परिचारक उनको पंखा करने लगा | भगवान् ने कहा कि मेरे परिनिर्वाण का काल आ गया है | ऐसा सुनकर आनन्द को अत्यंत शोक हुआ तथा वे विहार में जाकर द्वार के सहारे बैठ कर विलाप करने लगे | तथागत ने भिक्षुओं से पूछा कि आनन्द कहाँ हैं ? भिक्षुओं ने बताया कि वे विहार में रो रहे हैँ | भगवान् ने उनको बुलाने हेतु एक भिक्षु को भेजा | जब आनन्द आये, तब तथागत ने कहा- हे आनन्द ! शोक मत करो | मैंने तुमसे पहले ही कहा है कि प्रिय वस्तु से वियोग स्वाभाविक व अनिवार्य है ! यह कैसे सम्भव है कि जिसकी उत्पत्ति हुई है, जो संस्कृत व विनश्वर है, उसकी च्युति न हो ? ऐसा स्थान नहीं | तुमने मनसा, वाचा, कर्मणा श्रद्धा के साथ मेरी सेवा की है | तुम अनन्त पुण्य के भागी हो | ऐसा कहकर तथागत ने भिक्षुओं से आनन्द की प्रशंसा की | तथागत ने आनन्द से कहा कि मेरे पश्चात् यदि संघ चाहे, तो विनय के क्षुद्र नियमों को रद्द कर दे |”95
“जब तक जन्म है तब तक दुःख है, और पुनर्जन्म से मुक्ति के समान कोई सुख नही, कौन सज्जन उतना पूज्य हैं जितना कि वह जिन्होंने इस मुक्ति को प्राप्त कर संसार को दिया ?”96
भगवान् बुद्ध के हृदय में हमेशा करुणा भरी रहती थी, उन्हें अपने अंतिम समय में भी बेहद पीड़ा में भी चुन्द की चिंता थी कि उनके महापरिनिर्वाण के बाद लोग चुन्द को कोई दोष न दें | इसलिए अम्बवन में चौपेती संघाटी पर लेटे उन्होंने आयुष्मान् आनन्द से कहते अपने इस अंतिम भोजन को उतना ही श्रेष्ठ बतलाया, जितना कि सुजाता के खीर को, जिसे खाकर वह बुद्ध हुये थें |
भगवान् बुद्ध आनंद से कहते है – “आनंद, शायद कोई चुन्द कर्मारपुत्र को क्षुब्ध करे और कहे – “आवुस चुन्द ! अलाभ है तुझे, तूने दुर्लाभ कमाया, जो कि तथागत तेरे पिंडपात को भोजन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुये |’ आनंद ! चुन्द कर्मार-पुत्र की इस चिन्ता को दूर करना (और कहना) – ‘आवुस ! लाभ है तुझे, तूने सुलाभ कमाया, जो कि तथागत तेरे पिंडपात को भोजन कर परिनिर्वांण को प्राप्त हुये |’ आवुस चुन्द ! मैने यह भगवान् के मुख से सुना, मुख से ग्रहण किया – ‘वह दो पिंडपात समान फल वाले हैं, दूसरे पिंडपातो से बहुत ही महाफल-प्रद हैं | कौन से दो ? (1) जिस पिंडपात (भिक्षा) को भोजन तथागत अनुत्तर सम्यक्-सबोधि (बुद्धत्व) को प्राप्त हुए, (2) और जिस पिंडपात को भोजन कर तथागत अन्-उपादिशेष निर्वाणधातु (दुःख-कारण-रहित निर्वाण) को प्राप्त हुये |…….आनंद ! चुन्द कर्मारपुत्र की चिंता को इस प्रकार दूर करना |”97
सुभद्र नामक त्रिदंडी संन्यासी बोधिसत्त्व का अंतिम शिष्य था, उसने भगवान् के अंतिम समय में उनके उपदेशों को सुना और स्वयं तथागत द्वारा दीक्षित हुआ था | सुभद्र एक सिद्ध पुरुष था, जब उसे पता चला कि भगवान् निर्वाण-प्राप्ति की अंतिम अवस्था में है, तो वह उनसे मिलने पहुंच गया | उसने आनंद से कहा कि “मैंने सुना है कि बोधिसत्त्व की निर्वाण-प्राप्ति का समय आ गया है और इसलिए मैं उन्हें देखना चाहता हूँ, क्योंकि इस जगत में प्रतिपदा के चाँद के समान परम धर्म में प्रवेश पाये हुए का दर्शन दुर्लभ है |”98
लेकिन आनंद ने मना कर दिया क्योकि उन्हें लगा कि कहीं यह संन्यासी भगवान् से शास्त्रार्थ न करने लगे | लेकिन जब भगवान् ने दोनों का वार्तालाप सुना, तो उन्होंने लेटे-लेटे ही आनंद से कहा, “हे आनंद ! इस जिज्ञासु मुमुक्षु को मत रोको, आने दो |” तब आश्वस्त व परम प्रसन्न होकर सुभद्र भगवान् के पास आया और अवसर के अनुकूल शांत भाव से उन्हें अभिवादन कर उनसे कहा, “हे भगवन् ! मैंने सुना है कि आपने निर्वाण-मार्ग प्राप्त कर लिया है, जो मेरे जैसे दार्शनिकों के मोक्ष-मार्ग से भिन्न है | कृपापुंज, वह मार्ग कैसा है ? मुझे बताने की कृपा करें | क्योंकि मैं इसे ग्रहण करना चाहता हूँ | मैं जिज्ञासावश आपके पास आया हूँ, न कि विवाद करने की चाह से |”
सुभद्र की प्रार्थना सुनकर बोधिसत्त्व ने उसे अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया, जिसे उसने ध्यानपूर्वक सुना, जैसे कि मार्ग से भटका हुआ व्यक्ति सही आदेश को ध्यानपूर्वक सुनता है | भगवान् के उपदेश सुनकर सुभद्र की ज्ञान-दृष्टि सम्यक रूप से खुल गयी | तब उसने महसूस किया कि जिन रास्तों पर पहले वह चला था वह श्रेयस्कर नही था, और आज भगवान् ने उसे सच्चा मार्ग दिखा दिया है | “पहले उसका मत था कि आत्मा शरीर से भिन्न है और विकारवान् (परिवर्तनशील) नही है, अब बोधिसत्त्व के वचन सुनने से उसने जाना कि जगत् अनात्म है और (जगत्) आत्मा का परिणाम नही है | यह जानकर कि जन्म अनेक धर्मों के पारस्परिक सम्बन्ध पर आश्रित है, और कुछ भी अपने पर आश्रित नहीं है, उनसे देखा कि प्रवृत्ति दु:ख है और निवृत्ति है दु:ख से मुक्ति |”99
सुभद्र का चित्त श्रद्धा-युक्त हो गया और परम (धर्म) को पाकर उसने शान्त और अविकारी पद प्राप्त किया, और इसलिए, वहाँ लेटे हुए बोधिसत्त्व की ओर कृतज्ञतापूर्वक देखते हुए, आँखों में आँसू भरकर उसने निवेदन किया, “हे पूज्य गुरुवर, आपकी मृत्यु का दर्शन करना मेरे लिए उचित नही होगा, अतः अपने करुणामय गुरु की निर्वाण-प्राप्ति से पहले ही अपनी देह त्यागकर निर्वाण पद प्राप्त करने की अनुमति चाहता हूँ |” ऐसा कहकर सुभद्र ने बोधिसत्त्व को प्रणाम कर, शैल की भांति स्थिर होकर बैठ गया और हवा से विलीन हुए बादल के समान एक ही क्षण में निर्वाण को प्राप्त कर गया | संस्कार के ज्ञाता बोधिसत्त्व ने तब अपने शिष्यों से सुभद्र के अंतिम संस्कार सम्पन्न करने का आदेश दिया और कहा कि “सुभद्र मेरा उत्तम एवं अंतिम शिष्य था |”
दाह-संस्कार के बाद बोधिसत्त्व के अस्थियों (भस्म) को उनके अनुयायियों में बांटा गया, जिन्हें कलशों में रखकर उन अस्थि-कलशों पर स्तूपों का निर्माण किया गया | कुशीनगर में राम संभार सरोवर के किनारे तथागत की दाह-क्रिया हुई, जहाँ आज भी स्तूप खड़ा है | मुख्य निर्वाण-स्तूप शालवन उपवत्तन में उस स्थान पर बना जहाँ पर भगवान् ने शरीर-त्याग किया था |
यह बहुत ही आश्चर्य की बात है कि शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म, बोधि-प्राप्ति और महापरिनिर्वाण तीनों वैशाख पूर्णिमा को हुआ था |100 इसीलिए बौद्ध धर्म के अनुयायियों में वैशाख मास की पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है |
भगवान् बुद्ध के जीवन-संबंधी जिन घटनाओं का हमने यहां वर्णन किया गया हैं उन्हें प्रामाणिक माना जा सकता है | बहुत सारी अन्य ऐसी घटनाएं भी हैं जिनका वर्णन ललितविस्तर, जातक कथाओं इत्यादि में आया है जो न्यूनाधिक रूप में किंवदन्तियां हैं | डॉ. राधाकृष्णन् लिखते है कि “हमें इस बात को न भूलना चाहिए कि उन बौद्ध ग्रन्थों का निर्माण जिनमें बुद्ध के जीवन का वृत्तान्त मिलता है, उन घटनाओं के घटने के दो सौ वर्ष के पश्चात् हुआ, इसलिए इसमें कुछ आश्चर्य न होना चाहिए कि उनमें बहुत-सा अंश किंवदन्तियों का है जिनके साथ प्रामाणिकता का भी कुछ अंश सम्मिलित हो सकता है | उनके अनुयायियों की आढ्य भावनाओं ने भी उनके जीवन को असंख्य किंवदन्तियों से अलंकृत कर दिया | इन घटनाओं से उस महान शिक्षक के वास्तविक जीवन का वर्णन तो इतना नहीं होता जितना कि इस बात का पता लगता है कि किस प्रकार उन्होंने अपने अनुयायियों के ह्रदयों और कल्पनाशक्ति को प्रभावित किया |”101
तत्कालीन जनसाधारण की भाषा पालि को अपनाने से बौद्ध धर्म का अत्यधिक प्रसार-प्रचार हुआ | महात्मा बुद्ध का हृदय करुणा और जीवदया से परिपूर्ण था | उनके व्यक्तित्व का नैतिक प्रभाव इतिहास पर दूरव्यापी पड़ा |102 बौद्ध धर्म के तत्कालीन समय में लोकप्रिय होने का सबसे प्रमुख कारण उस समय के प्रचलित धर्म के प्रति जन-साधारण में असंतोष की भावना का विद्यमान होना | बौद्ध धर्म के अहिंसावादी सिद्धांत ने इसे अत्यधिक लोकप्रिय बनाया |103
बोधिसत्त्व के महापरिनिर्वाण के बाद मौर्य काल में अशोक महान ने बौद्ध धर्म को अपनाया, जिसने बौद्ध धर्म को अन्तर्राष्ट्रीय स्वरुप दिया | उसने अपने धर्मदूतों के माध्यम से बौद्ध धर्म को श्रीलंका, पश्चिम एशिया और मध्य एशिया में फैलाया |
अपनी विशिष्टताओं के कारण वर्तमान में बौद्ध धर्म नेपाल, तिब्बत, बर्मा, चीन, जापान, श्रीलंका, कोरिया, वियतनाम, थाईलैण्ड, हांगकांग, सिंगापुर, कम्बोडिया, मंगोलिया आदि देशों में प्रमुख धर्म के रूप में मौजूद है |
संदर्भ व टिप्पणी
78. जातक-अट्ठकथायं, निदानकथा, अविदूरे निदान, 121,
79. विनयपिटक, महावग्ग, 1:3:11,
80. विनयपिटक, महावग्ग, 1:3:11,
81. जातक (87-90), महावग्ग (1:54) |
82. विनयपिटक, महावग्ग, 1:3:5,
83. बुद्धचरित, 23.75 |
84. बुद्धचरित, 24.3 |
85. बुद्धचरित, 24.6 |
86. महाप्रजापति गौतमी ने तथागत से भिक्षुणी होने की इच्छा प्रकट की, पर तथागत ने निषेध किया | आनन्द ने प्रजापति गौतमी का पक्ष लेकर तथागत से तर्क किया और कहा कि क्या महिलाओं को निर्वाण का अधिकार नहीं है ? तथागत को स्वीकार करना पड़ा कि है | फिर आनन्द ने कहा कि क्या उनकी विमाता ही, जिन्होंने तथागत का बड़े प्यार से लालन-पालन किया, इस उच्चपद से वंचित रह जायेंगी | इस तर्क के आगे तथागत अवाक् हो गये और उन्हें अनिच्छा से इसकी अनुमति देनी पड़ी |
87. भरहुत से प्राप्त एक शिल्प के ऊपर इस दान का अंकन प्राप्त होता है, जिसमे “जेतवन अनाथपेन्डिकों देति कोटिसम्थतेनकेता’ लेख उत्कीर्ण है |
88. मज्झिमनिकाय, अंगुलिमाल-सुत्तांत, 2|4|6 |
89. मज्झिमनिकाय, अंगुलिमाल-सुत्तांत, 2|4|6 |
90. मज्झिमनिकाय, अंगुलिमाल-सुत्तांत, 2|4|6 |
91. चुन्द यह सोचकर अत्यन्त दुःखी हो उठा कि उसके यहाँ भोजन के बाद भगवान् बुद्ध का महापरिनिर्वाण हो गया, लेकिन आनंद ने उसे यह कहते हुए शांत किया कि भगवान् को महापरिनिर्वाण से पहले अंतिम बार भोजन कराकर उसने बहुत पुण्य कमाया है |
92. दीघनिकाय, 2|3, महापरिनिब्बाण-सुत्त |
93. संपन्न-कोलं सूकरमंस (बेर-युक्त सुअर-मांस) |
94. कुशीनगर मल्ल गणतन्त्र की राजधानी थी | भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण स्थल होने के कारण यह स्थान प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल है | यहाँ मल्लों ने परिनिर्वाण-स्तूप में भगवान् बुद्ध की अस्थियाँ प्रतिष्ठापित की थी | यही परिनिर्वाण-चैत्य में भगवान् बुद्ध की परिनिर्वाण-मुद्रा (लेटी हुई) में विशाल लाल-पत्थर की प्रतिमा स्थापित है जिसके आसन के सामने भगवान् बुद्ध के परिनिर्वाण का पूरा दृश्य अंकित है |
95. बौद्धधर्म दर्शन – आचार्य नरेन्द्रदेव, पृष्ठ 10 और 11 |
96. बुद्धचरित, 28.73 |
97. दीघनिकाय, 2|3, महापरिनिब्बाण-सुत्त |
98. बुद्धचरित, 26.2 |
99. बुद्धचरित, 26.17 और 26.18 |
100. किंवदन्ती के अनुसार भगवान् बुद्ध के जीवन में अनेक आश्चर्यजनक घटनाएँ घटी | प्रारम्भिक कथाओं में उनके द्वारा की गयी कई चमत्कारिक घटनाओं का वर्णन मिलता है, लेकिन उन्होंने भिक्षुओं को चमत्कारों से दूर रहने का आदेश दिया | एक कथा के अनुसार एक बार एक अत्यंत दुःखी स्त्री अपने इकलोते पुत्र का शव लेकर भगवान् बुद्ध के पास आयी और उनसे उसे चमत्कार द्वारा जीवित करने की प्रार्थना करने लगी, जब वह न मानी तो, भगवान् ने उससे कहा कि अगर वह किसी ऐसे घर से, जिसमे कभी किसी की मृत्यु नही हुई हो, एक मुठ्ठी सरसों लाकर उन्हें दे देगी, तो वह उसके पुत्र को जीवित कर देंगे | वह स्त्री पुत्र-मोह में द्वार-द्वार गयी लेकिन उसे ऐसा घर न मिला, जो वास्तव में संसार में सम्भव ही नही है | अंततः वह मृत्यु और दुःख की अनिवार्यता से परिचित होकर भिक्षुणी बन गयी |
101. भारतीय दर्शन, प्रथम खण्ड – डा० राधाकृष्णन्, पृष्ठ 322 |
102. वर्तमान हिन्दू धर्म महात्मा बुद्ध के सिद्धान्तों से अत्यंत प्रभावित है |
103. महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों द्वारा वर्णव्यवस्था और पशुबलि (उन दिनों यज्ञों में अंधाधुंध पशुबलि दी जाती थी) का अत्यधिक विरोध किया |