बुद्ध की कहानी 1 : देवदत्त की दुष्टता

Buddha ki kahani 1

बुद्ध की कहानी 1 : देवदत्त की दुष्टता | देवदत्त इसलिए प्रसिद्ध है क्योकि इसने स्वयं को भगवान् बुद्ध का प्रतिदंद्वी घोषित कर दिया था | एक बार जब तथागत एक सभा को संबोधित कर रहे थे, तब देवदत्त ने उनके पास आकर कहा कि “स्वामी ! अब आप वृद्ध हो गए हैं, अतः आपको चिंतामुक्त होकर जीवन व्यतीत करना चाहिए | इसलिए यह अच्छा होगा कि आप भिक्षुओं के इस संघ का भार मुझे सौंप दें |”

भगवान् बुद्ध देवदत्त की मंशा और दुष्ट-स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थें इसलिए उन्होंने इंकार करते हुए देवदत्त से कहा कि वह इसके योग्य नहीं है | इसके पश्चात् देवदत्त ने भिक्षु संघ में फूट डालने के लिए तरह-तरह के प्रयन्त किये | उनमें एक यह भी थे, कि तथागत को ऐसे नियमों के पालन करने तथा विधान बनाने के लिये मजबूर करें, जो व्यवहार में पालन करने योग्य न हो |

देवदत्त ने भगवान् से पाँच नियमों को बनाने के लिये कहा, जोकि इस प्रकार है – “(1) भिक्षु जीवन भर वन में निवास करे, जो गांव में बसे, उसे दोष है | (2) भिक्षु आजीवन मधुकरी माँग कर खाने वाले रहें, जो निमंत्रण खाये उसे दोष है | (3) भिक्षु आजीवन फेंके गये चीथड़ों को सिलकर पहनने वाले रहें, जो गृहस्थ द्वारा प्रदान किये गये नये वस्त्र धारण करे, उसे दोष है | (4) भिक्षु जीवन भर वृक्ष के नीचे रहने वाले रहें, जो छत के नीचे रहें, उसे दोष है | (5) वह जीवन भर मछली-मांस न खायें, जो मछली-मांस खाये, उसे दोष है |”

भगवान् देवदत्त की वास्तविक मंशा से अच्छी तरह परिचित थे इसलिए उन्होंने संघ में इन विधानों को लागू करने से मना कर दिया | जब देवदत्त ने संघ को दो भागों में तोड़ने का प्रयत्न किया, तब सारिपुत्र ने देवदत्त को ही संघ से निष्कासित दिया |

दुष्ट देवदत्त ने भगवान् बुद्ध की हत्या करने का भी प्रयास किया था | उसने मगध नरेश बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु को भी अपनी ओर मिला लिया |

वह अजातशत्रु से कहता है, “कुमार पहले मनुष्य दीर्घायु होते थे, अब अल्पायु | हो सकता है, कि तुम कुमार रहते ही मर जाओ | इसलिये कुमार ! तुम पिता को मारकर राजा बन जाऊ और मैं भगवानको मार कर बुद्ध हो जाऊ |”

तब अजातशत्रु जांघ में छुरा बांधकर भयभीत, शंकित, त्रस्त की तरह मध्याह्न में सहसा राजा बिम्बिसार के कक्ष में प्रविष्ट हुआ | कक्ष के रक्षक महामात्त्यों ने भयभीत कुमार आजातशत्रु को कक्ष में प्रवेश करते देखा | शंका होने पर पकड़ लिया |

अजातशत्रु से पूछा, “कुमार तुम क्या करना चाहते थे ?”

“पिताको मारना चाहता था |”

“किसने उत्साहित किया ?”

“आर्य देवदत्त ने |”

तब कुछ महामात्यों ने कहा, “कुमार को भी मारना चाहिये, देवदत्त को भी, भिक्षुओं को भी |”

लेकिन कुछ ने कहा, “न कुमार को मारना चाहिये, न देवदत्त को, न भिक्षुओं को, राजा को बताना चाहिये, जैसा राजा कहें, वैसा करेंगे |”

तब महामात्य अजातशत्रु को मगध नरेश बिम्बिसार के पास ले गये और पूरी बात बताई |

“भणे ! महामात्यों ने क्या राय दी है ?

“कुछ महामात्यों ने यह राय दी कि ‘कुमार को भी मारना चाहिये, देवदत्त को भी, भिक्षुओं को भी | जैसा राजा कहें, वैसा करेंगे |’

“भणे ! बुद्ध, धर्म संघ का क्या दोष हैँ | भगवान् ने तो पहले ही राजगृह में देवदत्त का प्रकाशन करवा दिया है |”

तब वह महामात्य अजातशत्रु को बिम्बिसार के पास ले कर आया |

राजा ने अजातशत्रु से पूछा, “कुमार ! किसलिये तू मुझे मारना चाहता था ?”

“देव ! राज्य चाहता हूँ |”

“कुमार ! यदि राज्य चाहता है तो यह तेरा राज्य है |”

ऐसा कह बिम्बिसार ने अजातशत्रु कुमार को राज्य दे दिया |

तब देवदत्त अजातशत्रु के पास गया और बोला कुमार था, वहाँ गया ।

“महाराज ! आदमियो को आज्ञा दो कि श्रमण गौतम को जान से मार दें |”

तब अजातशत्रु ने अपने आदमियों से कहा, “भणे ! जैसा आर्य देवदत्त कहें वैसा करो |”

तब देवदत्त ने एक आदमी को आदेश दिया, “जाओं आवुस ! श्रमण गौतम अमुक स्थान पर विहार करता है | उसको जान से मार आओ |

लेकिन जब वह आदमी भगवान् को मारने गया तो भगवान् के व्यक्तित्व के तेज को देखकर भयभीत हो गया | उसे भयभीत देखकर उसकी मंशा जानकर भगवान् बोले – “आओ, आवुस ! मत डरो ।”

तब वह पुरुष ढाल-तलवार एक ओर रख तीर-कमान छोड़कर, जहाँ भगवान्‌ थे, वहाँ गया और जाकर भगवान् के चरणों में अपना सिर रखकर क्षमायाचना की और भगवान् का उपदेश सुना | वापस आकर उसने देवदत्त से कहा, “भन्ते ! मैं उन भगवान् को जान से नहीं मार सकता | वह भगवान्‌ महा-ऋद्धिक-महानुभाव है |” 

देवदत्त की दुष्टता का एक और वर्णन मिलता है कि एक बार जब बोधिसत्त्व राजगृह मार्ग से अपने शिष्यों के साथ जा रहे थें, तो उसने भगवान् के मार्ग में एक मदमत्त हाथी छुड़वा दिया | आँधी की भांति दौड़ते हाथी को देखकर सब तरफ हाहाकार मच गया | बोधिसत्त्व को कुचलने के लिए वह मदमत्त हाथी उनकी ओर ही दौड़ा चला आ रहा था, जिसे देखकर उनके अनेक शिष्य भाग गये |

लेकिन भगवान् शांत व निर्विकार भाव से आगे बढ़ते जा रहे थें और पीछे-पीछे केवल उनके परम प्रिय शिष्य आनन्द भी बढ़े जा रहे थें | लेकिन जैसे कि वह मदोन्मत्त हाथी बोधिसत्त्व के सामने आया और उनके प्रभाव के कारण एकदम शांत व स्वस्थ हो गया | वह बोधिसत्त्व के सामने सिर झुकाकर बैठा गया |

जैसे सूर्य अपनी किरणों से, बादल को छूता है, वैसे ही भगवान् ने अपने सुन्दर हाथ, जो कमल के समान कोमल था, से गजराज के माथे पर थपकी लगाई और कहा, “हे गजराज ! निरपराध प्राणियों की क्यों हत्या कर रहे हो ? उससे तो दुःख ही होगा, किसी को कष्ट न दो |” भगवान् की वाणी सुन गजराज ने तुरन्त मद का त्याग किया और शिष्य के समान भगवान् को प्रणाम किया |

इस प्रकार देवदत्त अपने समस्त प्रयत्नों में विफल रहा, न तो वह संघ में मतभेद उत्पन्न कर पाया और न ही वह बोधिसत्त्व की हत्या कर सका | कहा जाता है कि देवदत्त को बाद में अपने दुष्ट-कर्मों पश्चाताप हुआ, जिसके उपरांत उसे पुनः संघ में शामिल कर लिया गया |