बुद्ध की कहानी 20 : महापरिनिर्वाण | शाक्यमुनि बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम समय में मल्लों की राजधानी पावा पहुंचे यहाँ उन्होंने चुन्द नामक लुहार के घर उन्होंने ‘सूकरमद्दव’ खाया |
महापरिनिब्बाण-सुत्त में इस प्रकार वर्णन मिलता है –
“तब भगवान् भिक्षु-सघ के साथ जहां पावा थी, वहाँ गये | वहाँ पावा मे भगवान् चुन्द कर्मार-पुत्र के आम्रवन में विहार करते थे | चुन्द कर्मार-पुत्र ने सुना, भगवान् पावा मे आए है, पावा में मेरे आम्रवन में विहार करते है | तब चुन्द कर्मार-पुत्र जहाँ भगवान् थे, वहाँ जाकर भगवान् कों अभिवादन कर एक ओर बैठा | एक ओर बैठे चुन्द कर्मार-पुत्र को भगवान् ने धार्मिक कथासे ० समुत्तेजित ० किया | तब चुन्द ० ने भगवान् की धार्मिक-कथासे ० समुत्तेजित ० हो भगवान् से यह कहा –
“भन्ते ! भिक्षु-सघके साथ भगवान् मेरा कल का भोजन स्वीकार करे |”
भगवान् ने मौन से स्वीकार किया |
तब चुन्द कर्मार-पुत्र अगले दिन पर उत्तम खाद्य भोज्य और बहुत सा शूकरमार्दव (सूकरमद्दव) तैयार करवा, भगवान् को सूचना दी | तब भगवान् पूर्वाह् समय पात्र-चीवर ले भिक्षु-संघ के साथ, जहाँ चुन्द कर्मार-पुत्र का घर था, वहाँ गये | जाकर बिछे आसन पर बैठे | चुन्द द्वारा परोसे गये भोजन को ग्रहण कर एक ओर बैठे चुन्द कर्मार-पुत्र को उपदेश दिया और आसन से उठकर चल दिये |
कुछ विद्वान ‘सूकरमद्दव’ को ‘सुअर का मांस’ मानते है | एच. फैंके (H. Franke) ने ‘सूकरमद्दव’ का अर्थ ‘सुअर का मुलायम मांस’ बताया है |
वही आर्थर् वेली (Arthur Waley) ने ‘सूकरमद्दव’ शब्द के चार अर्थ लगाये है –
(1) सुअर का एक मुलायम भोजन अर्थात् सुअर द्वारा खाया जाने वाला भोजन,
(2) सुअर का आनंद अर्थात् सुअर का एक मनपसंद भोजन,
(3) सुअर के शरीर का एक मुलायम भाग और (4) सुअर से मथा हुआ अर्थात् सुअर द्वारा लताड़ा हुआ भोजन | कुछ अन्य विद्वानों ने भी कुछ इसी प्रकार के अपने मत दिए है |
लेकिन ‘सूकरमद्दव’ को ‘सुअर का मांस’ मानना तर्कसंगत नही लगता क्योकि भगवान् बुद्ध जीवनभर अहिंसा का उपदेश देते रहे अतः किसी भी स्थिति में वे किसी जीव का मांस नही खा सकते थे |
सम्भवतः यह कोई वनस्पति थी जो सुअर के मांद के पास पाई जाती थी जैसे कुकुरमुत्ता आदि | सूकर-कन्द (शकरकन्द) भी इसी प्रकार का शब्द है, जोकि एक मीठी जड़ वाली सब्जी है |
उल्लेखनीय है कि सुअर के मांस के लिए पालि में ‘सूकरमंस’ शब्द का प्रयोग मिलता है | इस बात की सम्भवना ज्यादा लगती है कि ‘सूकरमद्दव’ का अर्थ ‘सुअर का आनंद’ है जो एक प्रकार का कवक (truffle) था, जिसे सुअर खाकर आनंद का अनुभव करते थें |
इस भोजन के बाद उन्हें रक्तातिसार हो गया और उस वेदना को सहन करते हुए वे कुशीनगर पहुंचे | वही 80 वर्ष की आयु में 483 ईसा पूर्व में उनका महापरिनिर्वाण (महापरि-निर्वाण) हुआ | इस स्थान की पहचान पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसिया नामक गाँव से की जाती है | महापरिनिर्वाण के पूर्व शाक्यमुनि बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “समस्त संघातिक वस्तुओं का विनाश होता है | अपनी मुक्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करो |”
अपने इस अन्तिम वाक्य में तथागत ने दो बातों पर जोर दिया | एक में उनका मुख्य दर्शन है ‘सबकुछ क्षणिक है (सर्वं क्षणिकम्), संसार की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व क्षणमात्र के लिए ही रहता है’ अर्थात् क्षणिकवाद | दूसरे में अपने लक्ष्य की प्राप्ति में आलस न करने की सलाह है |
इतना कहकर वे दाहिनी करवट लेट गए और उन्होंने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया |
मल्लों ने अत्यंत सम्मानपूर्वक भगवान् का अत्येष्टि संस्कार किया | दाह-संस्कार के बाद बोधिसत्त्व के अस्थियों (भस्म) को उनके अनुयायियों में बांटा गया, जिन्हें कलशों में रखकर उन अस्थि-कलशों पर स्तूपों का निर्माण किया गया |
पाली ग्रंथों के अनुसार बांटी गयी अस्थियों पर वैशाली, कपिलवस्तु, अल्लकप्प, रामग्राम, बेठदीप, पावा, कुसीनारा में स्तूप बनवाये गये थे | द्रोण ब्राह्मण और पिप्पलीवन के मौर्यों ने अस्थियाँ न मिलने पर चिता के शीतल अंगारों पर ही स्तूप बनवाये थे |
कुशीनगर में राम संभार सरोवर के किनारे तथागत की दाह-क्रिया हुई, जहाँ आज भी स्तूप खड़ा है | मुख्य निर्वाण-स्तूप शालवन उपवत्तन में उस स्थान पर बना जहाँ पर भगवान् ने शरीर-त्याग किया था |
यह बहुत ही आश्चर्य की बात है कि शाक्यमुनि बुद्ध का जन्म, बोधि-प्राप्ति और महापरिनिर्वाण तीनों वैशाख पूर्णिमा को हुआ था | इसीलिए बौद्ध धर्म के अनुयायियों में वैशाख मास की पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है |
भगवान् बुद्ध के जीवन-संबंधी जिन घटनाओं का हमने यहां वर्णन किया गया हैं उन्हें प्रामाणिक माना जा सकता है | बहुत सारी अन्य ऐसी घटनाएं भी हैं जिनका वर्णन ललितविस्तर, जातक कथाओं इत्यादि में आया है जो न्यूनाधिक रूप में किंवदन्तियां हैं |