हड़प्पा सभ्यता का धार्मिक जीवन

harappa sabhyata ka dharmik jeevan

हड़प्पा सभ्यता का धार्मिक जीवन पर यह लेख इतिहास विशेषज्ञ डॉ. के. के. भारती द्वारा लिखा गया है | हड़प्पा-सभ्यता या सिन्धु सभ्यता की लिपि अभी तक पढ़ी नही जा सकी है इसलिए इस सभ्यता के धार्मिक, सामाजिक और राजनितिक पक्ष पर स्पष्ट रूप से कोई प्रकाश नही पड़ पाया है | हड़प्पा सभ्यता (सिन्धु घाटी की सभ्यता) से मिले पुरातात्विक स्रोतों से इस सभ्यता का धार्मिक और सामाजिक पक्ष कुछ उजागर होता है, लेकिन पाठकों को यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इस सम्बन्ध में विद्वानों ने जो भी मत दिए है वे सब अनुमान पर आधारित है तथा सर्वमान्य नही है |

लेखक यहाँ पर इस बात का भी उल्लेख करना आवश्यक मानता है कि हड़प्पा-सभ्यता की खोज से पहले लगभग यही माना जाता था कि भारतीय धर्म और संस्कृति का आरम्भ सामान्यतया वैदिक संस्कृति से हुआ है, लेकिन अब यह बात पूर्णरूप से स्वीकार कर ली गयी है कि हड़प्पा-सभ्यता की संस्कृति का भारतीय धर्म और संस्कृति में एक बड़ा योगदान है |

हड़प्पा सभ्यता की खोज (harappa sabhyata ki khoj) ने तुरन्त भारतीय इतिहास के आरम्भ काल को कम-से-कम एक हजार वर्ष पीछे कर दिया |

लिंग-योनि, देवी (मातृदेवी), शिव, अग्नि, वृक्ष, पशु (विशेषकर कूबड़ वाला बैल), नाग, अर्ध-मानवीय देवता (ऐतिहासिक काल में भगवान गणेश का सिर हाथी व शरीर मानव का माना गया) आदि की पूजा, बहुदेववाद, योग-क्रिया, ताबीज आदि हिन्दू-धर्म को हड़प्पा-संस्कृति की ही देन है |

लेखक को यह बात असम्भव नही लगती कि अगर हड़प्पा-लिपि पढ़ (पूर्ण रूप से पढ़) ली जाती है तो हिन्दू-धर्म के कुछ दार्शनिक-सिद्धांत भी इसी में मिल जाये |

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हड़प्पा सभ्यता में मन्दिर के साक्ष्य नही

हड़प्पा सभ्यता के धार्मिक जीवन (harappa sabhyata ka dharmik jeevan) के अंतर्गत आपको मालूम होना चाहिए | किसी भी हड़प्पाई स्थल से मन्दिर का साक्ष्य नही मिला है |

परन्तु हड़प्पावासी वृक्ष, पशु और मानव-स्वरूप में देवताओ की उपासना करते थे | उल्लेखनीय है कि प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में मन्दिर बनाये गये थे |

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कुछ लोगों का तर्क है कि हो सकता है कि हड़प्पावासियों ने लकड़ी के मन्दिर बनाये हो जो अब नष्ट हो गये हो |लेकिन यह बात तर्कसंगत नही लगती कि जहाँ के निवासियों ने बड़े-बड़े भवनों (जैसे महास्नानागार, अन्नागार आदि) के साथ-साथ अपने बड़े-छोटे मकान भी पक्की ईटों से बनाये हो वो अपने सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए लकड़ी (जोकि चिरस्थायी नही है) के भवन बनाएं |

हड़प्पा सभ्यता में मातृदेवी

हड़प्पा सभ्यता के देवी देवता (harappa sabhyata ke devi devta) के अंतर्गत सबसे महत्वपूर्ण मातृदेवी है | हड़प्पा-सभ्यता में आग में पकी मिट्टी (जो टेराकोटा कहलाती है) की मूर्तिकाएँ (फिगरिन) बड़ी संख्या में मिली है |

स्त्री एवं पुरुष की इन मृण्मूर्तियों में स्त्री-मृण्मूर्तियों की संख्या अधिक है | अधिकांश स्त्री-मृण्मूर्तियों की वेशभूषा और अलंकृत आभूषण को देखकर कुछ विद्वान इन्हे मातृदेवी (Mother Goddess) का दर्जा देते है |

यह बता पाना अत्यधिक कठिन (अभी तक तो असंभव) है कि इन मातृदेवीओं की उपासना स्वतंत्र रूप से की जाती थी या किसी पुरुष देवता की सह-धर्मिणी के रूप में |

कुछ मातृदेवी की मृण्मूर्तियों पर धुएँ के निशान भी मिले है, जिससे यह प्रतीत होता है कि मातृदेवी को खुश करने हेतु सम्भवतः किसी प्रकार की धूपबत्ती या दीप जलाई जाती होगी |

कुछ मातृदेवी की आकृतियों के सिर पर फाख्ता पक्षी (Dove) दिखाया गया है | जहाँ एक ओर मातृदेवी की मृण्मूर्तियां अत्यधिक संख्या में मिली है वही दूसरी ओर उसकी (मातृदेवी) पत्थर की मूर्ति का पूर्णतया अभाव है |

हड़प्पा सभ्यता (harappa civilization) में मिली एक मृण्मूर्ति में स्त्री के गर्भ से एक पौधा निकलता हुआ दिखाया गया है | विद्वान इसे पृथ्वी-देवी (Earth-Goddess) की प्रतिमा मानते है |

कुछ विद्वानों के अनुसार हड़प्पावासी पृथ्वी को उर्वरता की देवी मानते थे और इसकी पूजा करते थे जिस प्रकार मिस्र के वासी नील नदी की देवी आइसिस् की पूजा करते थे |

हड़प्पा संस्कृति (harappa sanskriti) में मिली एक मुहर पर एक नग्न-स्त्री नीचे सिर व ऊपर की ओर पैर फैलाये हुए है और उसके गर्भ से एक पौधा निकल रहा है |

कही-कही मृण्मूर्तियों में गर्भवती स्त्री और कही स्त्री के गोद में शिशु को भी दिखाया गया है | कुछ मृण्मूर्तियां मात्र बच्चो के खिलोने जैसी प्रतीत होती है |

सिन्धु सभ्यता में लिंग एवं योनि

हड़प्पा में पत्थर पर बने लिंग और योनि के अनेक प्रतीक मिले है | विद्वानों के अनुसार ये लिंग और योनि संभवतः पूजा के लिए बनाये गये थे |

संभवतः हड़प्पा काल से ही लिंग-पूजा का प्रारम्भ हुआ था | ऋग्वेद में लिंग-पूजक अनार्यों की चर्चा है | उत्तरकालीन हिन्दू-धर्म में लिंग (शिव-लिंग) भगवान शिव का चिन्ह् है, जो मूर्ति की अपेक्षा शिव-लिंग के रूप में सामान्यतः अधिक पूजित है |

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यद्यपि कालीबंगन से एक ऐसी मिट्टी की पट्टिका प्राप्त हुई है, जिसमे एक साथ लिंग और योनि के प्रतीक बने हुए है | लेकिन हम यह स्पष्ट रूप से नही कह सकते कि हड़प्पा-काल में लिंग और योनि एक-दूसरे से उसी प्रकार से समबन्धित थे जैसा कि वर्तमान में शिव-मंदिरों में स्थापित लिंग-योनि की संयुक्त आकृतियां |

पशुपति की मुहर (सील)

मोहनजोदड़ो से एक (पशुपति की) मुहर (सील) प्राप्त हुई है | इस मुहर में एक तीन मुखो वाले योगी को ध्यान-मुद्रा में पद्मासन लगाए एक आसन पर बैठे हुए दिखाया गया है |

इसकी कलाई से कंधे तक भुजाएँ चूड़ियों से भरी है | उसके सिर पर सींग जैसी आकृति बनी है | उसके दाहिनी ओर हाथी एवं बाघ, और बाई ओर गैंडा एवं भैसा है और पैरो के पास आसन के नीचें दो हिरन दिखाए गये है |

मुहर पर एक लेख भी है | मार्शल ने इस देवता को आदि-शिव कहा है |उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक काल में हिन्दू-देवताओं में मुख्यतया शिव ही पद्मासन में बैठने और योगी की तरह दिखने के लिए विख्यात है |

कुछ विद्वान मानते है कि संभवतः इस आकृति के चार मुख है और चौथा मुख पीछे की ओर होने से छिप गया है |कुछ विद्वानों के अनुसार इस मुहर में दिख रहे चार पशु चार दिशाओं के द्योतक है ओर इस देवता को चारो दिशाओं का स्वामी दिखाने का प्रयास किया गया है |

केदारनाथ शास्त्री के अनुसार यह एक महिष-सिर वाला देवता है, जिसका धड़ बाघ का, भुजाएँ कनखजूरे की और पैर सर्प से बने है | उनके अनुसार इस देवता के भक्त इसे इन सभी पशुओं की विशेषताओं से युक्त देखना चाहते थे |

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लेखक ने भी इस मुहर का गहन अध्ययन के बाद अपना व्यक्तिगत मत दिया था कि “सम्भव है कि इस देवता को ज्ञान-प्राप्ति के लिए जंगल में कई वर्षों की तपस्या करते दिखाया गया हो तथा इसके प्रभाव से सभी पशु इसके दास बन गये हो | तपस्या से इसका चेहरा पिचका हुआ और भुजाओं पर हड्डियाँ दिखाई गयी हो | सम्भव है कि वक्ष पर जो कवच जैसा कुछ दिख रहा है उसे वक्ष की हड्डियों के रूप में दिखाया गया हो | (कालान्तर में बुद्ध की कुछ मूर्तियों में उन्हें तपस्या में लीन हड्डियों के रूप दिखाया गया जैसे गांधार से प्राप्त उपवासी बुद्ध की प्रतिमा) | इसके सिर के सींग त्रिशूल की आकृति बनाते है | अत्यधिक सम्भव है कि यह शिव का ही आदि-रूप हो | उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक काल में हिन्दू-देवताओं में मुख्यतया शिव ही पद्मासन में बैठने और योगी की तरह दिखने के लिए विख्यात हैं |”

हड़प्पा सभ्यता में वृक्ष पूजा

हड़प्पा संस्कृति में वृक्ष-पूजा भी प्रचलित थी | विद्वानों के अनुसार हड़प्पा-सभ्यता में वृक्ष को दो रूपों में पूजा जाता था | एक रूप में वृक्ष की पूजा उसके प्राकृतिक रूप में की जाती थी, और दूसरे रूप में वृक्ष में मौजूद पवित्र आत्मा की पूजा की जाती थी |

वृक्षों से सम्भवतः पीपल सबसे पवित्र माना जाता था | पीपल आज भी एक पवित्र वृक्ष के रूप में पूजा जाता है | मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर में एक नग्न देवता को पीपल के पेड़ की दो शाखाओं के मध्य में खड़ा हुआ दिखाया गया है |

देवता के बाल लम्बे है और उसके सींग त्रिशूल भांति है | जिसकी पूजा सात मानव-आकृतियां (संभवतः स्त्री आकृतियां) एक पंक्ति में खड़े होकर करती हुई दिखाई गयी है और एक लम्बे बालों एवं सिर पर सींग वाली आकृति भक्तिपूर्वक आधे घुटने टेककर नतमस्तक है, उसके पीछे एक मानव-मुख वाला बकरा (या बकरी) है |

इन सात-स्त्री आकृतियों को देखकर ऐतिहासिक काल में हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय की सप्तमातृका (सप्तमात्रिरिका) की याद आती है | कुछ विद्वानों के अनुसार इस धार्मिक परम्परा का सातत्य साँची और भरहुत की प्रतिमाओं में पाया जाता है, जहाँ यक्षियों को वनदेवी के रूप में दिखाया गया है | इस प्रकार के बहुत सारे वृक्ष-पूजा से सम्बन्धित प्रमाण मिले है |

सिन्धु घाटी की सभ्यता में पशु पूजा

हड़प्पा की सभ्यता में पशु-पूजा प्रचलित होने के भी साक्ष्य मिले है | काल्पनिक पशुओं का भी साक्ष्य मिलता है, जैसे मानव-मुख वाला बकरा, आधा मानव व आधा गाये वाला प्राणी, तीन सिर वाला प्राणी आदि |

बहुत सारी मुहरों पर एक-श्रृंगी (Unicorn) पशु, जो सम्भवतः मिथक कथाओ में पाया जाता है, की आकृति मिलती है |कुछ विद्वान मानते है कि चित्र में इस एक-श्रृंगी पशु के दो श्रृंग ही है परन्तु दूसरा श्रृंग पहले वाले श्रृंग के पीछे छिप गया है |

परन्तु ये बात पूर्णतया सच नही लगती क्योकि बैल की जो आकृतियाँ प्राप्त हुई है उनमे दोनों सींगे स्पष्ट रूप से दिखाए गये है |अधिकांश विद्वान एक-श्रृंगी पशु को काल्पनिक ही मानते है |

कुछ-एक विद्वानों ने व्यक्त किया है कि हो सकता है कि एक-श्रृंगी पशु हड़प्पा-काल में रहा हो, जिसकी नस्ल पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी हो |

लेखक का भी यही मानना है कि सम्भव है कि ऐसा पशु कभी रहा हो, क्योकि किसी भी जीव के अस्तित्व को हम केवल इस आधार पर नही नकार सकते कि वर्तमान में उसका अस्तित्व नही है, उदाहरणार्थ आज हम डायनासोर के अस्तित्व के बारे में जानते है लेकिन एक समय इस जीव से सभी अनभिज्ञ थे |

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पशुओ में कूबड़ वाला बैल (सांड) विशेष पूजनीय था | मोहनजोदड़ो से प्राप्त कूबड़ वाले बैल (सांड) की आकृति वाली मुहर विशेष रूप से उल्लेखनीय है |

यहाँ पाठकों को बताना चाहता हूँ कि बैल कई प्राचीन सभ्यताओं में शक्ति का प्रतीक माना गया है | हिन्दू धर्म में बैल, जो कि नंदी के रूप में पूज्यनीय है, भगवान शिव का प्रिय वाहन है |

मेसोपोटामिया के निवासी बैल को असाधारण शक्ति और जनन क्षमता का प्रतीक मानकर औरोक्स के रूप में उसकी पूजा करते थे | प्राचीन मिस्रवासी बैल को एपिस नाम से पूजते थे |

यहाँ धार्मिक रूप से उत्तम बैलो की पहचान पुजारियों द्वारा की जाती थी | ये एपिस बैल अपना सम्पूर्ण जीवन मन्दिर में ही व्यतीत करते थे और इनकी मृत्यु के बाद इनके शव पर लेप लगाकर विशाल ग्रेनाइट ताबूत में दफनाया जाता था |

इसी प्रकार मेढ़ा कुछ प्राचीन सभ्यताओं में पवित्र माना जाता था | वैदिक साहित्य में मेढ़े को अग्नि देवता का वाहन माना जाता था | प्राचीन मिस्र में मेढ़ा एक पवित्र पशु माना जाता था | सम्भवतः हड़प्पा-सभ्यता में भी मेढ़े का कुछ धार्मिक महत्व होगा |

बलि-प्रथा, जादू-टोना

सिन्धु काल में बलि-प्रथा भी प्रचलित हो सकती है | कालीबंगन से मिले एक अग्निवेदिका में पशुओं की हड्डियाँ और हिरन के सींग प्राप्त हुए है | लोथल में भी एक चबूतरे पर ईटों से बनी अग्निवेदिका मिली है, जिसमे पशु की जली हुई हड्डियाँ थी |

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मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर में मानव-बलि जैसा दृश्य अंकित है | इस मुहर में एक पुरुष अपने हाथ में हंसिया जैसा कोई हथियार लिए है और एक बिखरे बाल वाली स्त्री हाथ ऊपर उठाए नीचे बैठी है |

इस दृश्य को देखने से लगता है कि पुरुष, स्त्री की बलि देने वाला है | ताबीज बड़ी संख्या में मिले है, जिससे पता चलता है कि हड़प्पावासी भूत-प्रेत में विश्वास करते थे |

अग्नि-पूजा

अग्नि पूजा के भी साक्ष्य मिले है | कालीबंगन, लोथल और बनावली की खुदाई में कई अग्नि-वेदिकाएँ (अग्निकुण्ड) प्राप्त हुई है | कुछ विद्वानों के अनुसार संभवतः इनका प्रयोग यज्ञ-वेदिकाओं के रूप में किया जाता था |

स्वास्तिक एवं योग

हड़प्पाई लोग स्वास्तिक का चिन्ह भी प्रयोग करते थे | अनेक मृदभांडों, मुहरों आदि पर स्वास्तिक का चिन्ह मिलता है | उल्लेखनीय है कि वर्तमान में हिन्दुधर्म, जैनधर्म, और बौद्धधर्म में स्वास्तिक एक पवित्र प्रतीक माना जाता है |

यूनानी सलीब (क्रॉस, Cross) का अंकन भी अधिक संख्या में मिला है | हड़प्पा सभ्यता में योग भी प्रचलित होने की सम्भावना हो सकती है |

यहाँ से बहुत-सी मृण्मूर्तियां मिली है, जो भिन्न-भिन्न योगासन प्रस्तुत कर रही है | मोहनजोदड़ो की विख्यात पशुपति की मुहर में देवता ध्यानमग्न होकर योगासन की मुद्रा में बैठा है |

मोहनजोदड़ो से ही प्राप्त सेलखड़ी की खण्डित पुजारी की मूर्ति में उसे ध्यानावस्था में आधे नेत्र बन्द किये हुए दिखाया गया है |

इस प्रकार हम देखते है कि विश्व की समस्त प्राचीन सभ्यताओं व संस्कृतियों की ही भांति हड़प्पा सभ्यता के समाज पर भी धर्म का अत्यधिक महत्व था | लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि सिन्धु सभ्यता के धार्मिक जीवन पर हमारी सभी जानकारी समकालीन मुहरों, मुहरों की छापों, मिट्टी व धातु की बनी मूर्तियों आदि पर ही आधारित है | अतः हड़प्पा कालीन धार्मिक जीवन के सम्बन्ध में हमें जो भी आंशिक जानकारी प्राप्त हुई हैं, उसके आधार पर हम कह सकते है कि इनके धार्मिक जीवन में परवर्ती हिन्दू धर्म की बहुत सारी विशेषताएं, जैसे शिव, पशुपति, मातृदेवी, पशु पूजा, वृक्ष पूजा आदि की आराधना, शामिल थी |

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